Wednesday, August 17, 2011

प्रकाश झा स्टाईल दर्द निवारक गोली ‘आरक्षण’


प्रेमचंद सहजवाला
प्रकाश झा की अति प्रतीक्षित फिल्म ‘आरक्षण’ जिस के रिलीज़ होने से पहले ही खूब शोर मचा था, के रिलीज़ होने से ठीक एक दिन बाद एक राष्ट्रीय स्तर समाचार पत्र की प्रमुख शीर्षक पंक्ति यह थी कि पूरी आठ कट ऑफ लिस्टें निकलने के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यलय को प्रवेश के लिये समुचित मात्रा में ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ (OBC) की श्रेणी के प्रवेशार्थी नहीं मिल रहे. कई कॉलेजों को कट ऑफ प्रतिशत 40 तक गिरानी पड़ी जो कि बारहवीं में मात्र पास होने योग्य प्रतिशत है. पर जहाँ जहाँ ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ प्रवेश से वंचित रह जाते हैं वहाँ के लिये प्रकाश झा के पास अपने ब्रैंड की दर्द निवारक गोली है ‘आरक्षण’. इस फिल्म में प्रकाश झा देखते देखते मुफ्त की कोचिंग क्लासेज खड़ी कर देते हैं और ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ व दलित वर्ग बहुत चमत्कारी तरीके से ऊंचे से ऊंचे कोर्स में प्रवेश के लिये फिट हो जाते हैं! फिल्म में मनोज वाजपेयी द्वारा चलाए जा रहे के.के. कोचिंग क्लासेज़ दिखाए गए हैं जिन में भ्रष्ट मनोज वाजपेयी अपने प्राध्यापकों को एक एक लाख के वेतन ऑफर करता है जब कि अमिताभ-सैफ-दीपिका-प्रतीक बब्बर की चौकड़ी पसीने बहा बहा कर मुफ्त की कोचिंग क्लासेज में ऐसी जान फूंक देती है कि एक दिन के.के कोचिंग क्लासेज के बंद होने की नौबत आ जाती है! यह सब बुरी तरह बम्बइया तरीके से चलता है. फिल्म के प्रारंभ में तो लगता है बहुत अच्छी शुरुआत है और आरक्षण समर्थकों व विरोधियों के बीच का बहुत ही यथार्थ जंग दिखाया जाएगा. वास्तव में पिछड़े हुओं को आगे लाने की समस्या इस देश में एक न सुलझने वाली जटिल समस्या बन गई है जिस के कई आयाम हैं. एक तरफ ‘शिक्षा के अधिकार अधिनियम’ (Right to Information Act) की खूब छीछालेदर हुई है तथा सरकार द्वारा हर दलित, मज़दूर, किसान व दरिद्र को शिक्षा की लालटेन पकड़ाने के लिये झोंके गए करोड़ों रुपए व्यर्थ जा रहे हैं. अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसला दे कर बिहार सरकार, जिस ने गरीबों पिछडों को पढ़ाने के लिये 400 करोड़ रुपए खर्चे, को आदेश दे दिया कि ऐसे तमाम स्कूलों की कोई सार्थकता साबित नहीं हुई सो ऐसे स्कूल बंद कर दिए जाएं क्योंकि अपने उद्देश्य में सरकार की सभी कोशिशें विफल गई हैं! इधर नोएडा में भी मज़दूरों किसानों पिछडों के लिये खोले गए एक मुफ्त स्कूल के बच्चों के बारे लिखा गया कि पांचवीं पास के बावजूद कई बच्चे कैट या रैट के स्पेलिंग भी नहीं जानते और अध्यापक लोग विद्यार्थियों को आनन् फानन में पास करते जा रहे हैं. लालू प्रसाद के चरवाहा स्कूलों की भदेस बहुत पुरानी नहीं है जहां अध्यापकों को वेतन तो मिलता था जबकि विद्यार्थियों को पढ़ने से कुछ लेना देना ही नहीं होता था! प्रकाश झा को लगता है कि आज़ादी के 64 वर्ष बाद भी आरक्षण अब तक ज़रूरी हैं क्योंकि पिछडों दलितों के पास कोचिंग की वे समुचित सुविधाएं हैं ही नहीं जो उच्च जाति के विद्यार्थियों के पास हैं! परन्तु वास्तविकता तो यह है कि दलितों पिछडों को ऐसी मुफ्त कक्षाओं या मुफ्त स्कूलों कॉलेजों से भी अधिक ज़रूरत है उनके भीतर उच्च शिक्षित होने की वह अनिवार्य चेतना जिसके तहत वे पढ़ने या कुछ कर गुज़रने के लिये स्वयमेव उठ खड़े हों. जब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल ने दसवीं में बोर्ड की परीक्षाएं समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू की थी तब अधिकांश विश्लेषकों ने इस कदम को इसलिए भी सुखद माना था कि इस से व्यापार करती असंख्य कोचिंग कक्षाओं को पूर्ण विराम मिलेगा. परन्तु वास्तव में देखने सोचने योग्य बात यह भी है कि क्या नियमित स्कूलों के अध्यापकों में वह काबलियत है कि वे अमिताभ बच्चन की तरह विद्यार्थियों को आई. आई. टी या अन्य उसी के बराबर की व्यावसायिक कोर्सेज़ की प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिये तैयार करें? निजी कोचिंग क्लासेज के पास इस बात का भी गुरूर है कि उनके कॉलेजों में पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर अति अनुभवी लोग हैं जो कठिन से कठिन प्रतियोगिता परीक्षाओं के प्रश्न पत्रों को भी स्वयं चुटकी में हल कर देते हैं! नियमित स्कूलों के अध्यापक केवल कोर्स की पढ़ाई करा कर प्रतिमाह अपनी तनख्वाह के नोट गिन कर जीवन यापन करते हैं बस, अपने स्तर पर किसी भी प्रकार की अतिरिक्त काबलियत उनकी महत्वाकांक्षा में शामिल है ही नहीं! जबकि प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में तो अंतिम दृश्य में बहुत चमत्कारी तरीके से अतिथि कलाकार हेमा मालिनी प्रकट होती है जो मुख्य मंत्री को फोन पर झाड़ कर अमिताभ स्टाईल कोचिंग क्लासेज पर चलाए जाने को तैयार बुल डोज़र को रुकवा देती है और देखते देखते ऐसी मुफ्त कोचिंग चलाने वाली एक आलीशान इमारत खड़ी हो जाती है जिसे देख कर दलित व पिछड़े वर्ग मिल कर एक खुशी भरा कोरस गाना शुरू कर देते हैं. यह सब प्रकाश झा का फ़िल्मी यूफोरिया नहीं तो और क्या है!

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