Saturday, June 16, 2012

मेरी कहानी ‘अफ़सोस हम फेसबुक पर नहीं बता पाएंगे’ कहना क्या चाहती है?

‘हंस’ पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित मेरी कहानी ‘अफ़सोस हम फेसबुक पर नहीं बता पाएंगे’ बेहद विवादस्पद सी बन गई है. मुझे कई फोन भी आ रहे हैं तथा फेसबुक पर रामजी तिवारी, विवेक मिश्र व लीना मल्होत्रा आदि मित्रों ने इस पर अपने मंतव्य दिए हैं. पर कुछ मित्रों ने प्रश्न किया है कि यह कहानी आखिर कहना क्या चाहती है. कहानी जो कुछ कहना चाहती है वह संकेत रूप में तो उसकी शीर्षक में ही निहित है. कथ्य सब को पता है कि एक युवक युवती फेसबुक पर मिलते हैं और एक चैट के बाद युवक मुंबई से दिल्ली आता है और दो दिन युवती जो एक उद्योगपति की बेटी है के बंगलो में रुक कर दोनों रातें उसके साथ सेक्स संबंध रखता है. वैसे मेरा विचार है कि कोई भी कहानी केवल शीर्षक या अंत में सब कुछ नहीं कहती वरन कदम कदम पर कुछ ना कुछ कहती है. कहानी के प्रारंभ से ही स्पष्ट है कि नायिका आभिजात्य वर्ग की है जिस के लिये सेक्स संबंध रखना कोई जीवन भर का कमिटमेंट नहीं है वरन वह आज़ाद खयालों वाली है जिसके लिये सेक्स एक ज़रूरी क्रिया है तथा सेक्स संबंध की दूसरी रात को कहानी ‘फंडामेंटल राईट्स’ की बात भी करती है यानी जैसे ‘राईट तो एडूकेशन’ या ‘राईट तो फ़ूड’ है वैसे ही ‘राईट तो सेक्स’ को कहानी लेती है. यह सब लेखक की कल्पना ही हो, ऐसा नहीं है, वरन पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश के न्यायालयों उच्च न्यायालयों ने ‘लिव इन’ संबंधों को मान्यता दी है, एक मुक़दमे में पति ने पत्नी पर ‘कान्जूगल राईट्स’ का केस किया था कि उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ रह रही है. पर न्यायलय ने स्पष्ट कहा कि कोई भी महिला विवाहित या अविवाहित अपनी इच्छा से किसी अन्य पुरुष के साथ रह सकती है. वैसे बदलाव न्यायाधीश नहीं लाते, बदलाव तो समाज में आ चुका होता है और अदालतें या संसद उन बदलावों को मान्यता देते हुए संविधान में या फैसलों में समुचित परिवर्तन करते हैं. ऐसे में बाबा साहेब आम्बेडकर की बात याद आती है कि ‘मनु-स्मृति’ में मनु ने जो संविधान बनाया वह अकेले नहीं बनाया वरन उस समय के क्षत्रिय राजाओं के अधीन प्रजा जैसा जीवन जी रही थी वैसे ही संविधान बनाया मनु ने. आज हमारे लोकतांत्रिक देश में भी यही हो रहा है. जनता के बदलते तेवरों के मुताबिक सेक्स संबंधों पर भी निर्णय होते हैं या संवैधानिक संशोधन होते हैं. इन्हीं दिनों एक चर्चा चल पड़ी थी कि स्वेच्छा से संबंध रखने की न्यूनतम उम्र 16 से बढ़ा कर 18 क्यों ना की जाए. इस पर विचारकों का घोर विरोध सरकार को सुनना पड़ रहा है. हमारे यहाँ जितने भी Act पारित हुए हैं उनमें से एक अविवाहित गर्भवती महिलाओं को सरकारी दफ्तर में maternity leave देने के प्रावधान का भी एक Act है. अब अपनी कहानी पर लौटता हूँ. वैसे यह बता दूं कि मैं कहानी को डिफेन्स नहीं कर रहा क्योंकि विरोध या कटु आलोचना के विरुद्ध लेखक अपने हथियार ले कर उसे बचाने निकल पड़े यह शायद साहित्य के लिये स्वस्थ ना हो. पर यह स्पष्टीकरण तो मैं उन मित्रों को दे रहा हूँ जो पूछते हैं कि कहानी आखिर कहना क्या चाहती है. कई लोगों को यह गलतफहमी है कि हमारे देश में फ्री सेक्स शायद केवल और केवल पश्चिम से आया है. पर हमारा देश विशाल देश है. इसमें संस्कृतियों की अकूत विविधता है. फ्री सेक्स एक तो ऊंचे लोग या उच्च मध्य वर्ग के लोग करते हैं या यदि हम झारखंड आदि जाएं तो वहां के आदिवासी लोग ‘घोटुल’ नाम की प्रथानुसार अपने नौजवान बेटे बेटियों को शिविरों में भेजते हैं जहाँ वे स्वतंत्रता से सेक्स संबंध रख सकें. उन शिविरों से कुछ फासले पर जिम्मेदार बुज़ुर्ग लोग उपस्थित रहते हैं, यह देखने को कि कोई झगड़ा वगड़ा हो तो वे जा कर बीच बचाव कर लें. वैसे यह भी है कि हमारे विशाल देश भारत में कहीं तो प्रेम करने वाली लड़की को ही मार दिया जाता है और कहीं स्थिति यह है कि मुंबई के फैशन पैरेडों में ऐसी ऐसी स्थिति आ जाती है कि मंच पर बिकिनी में फैशन पैरेड करती एक युवती की ब्रेजरी ही लापरवाही से गिर जाती है और वह अपनी हथेलियों से अपनी छातियाँ ढकती किसी प्रकार मंच से अदृश्य होती है. कहा यह भी गया था कि यह सब जानबूझ कर किया गया. इतनी घोर विविधता के बीच एक कहानी जो एक युवक युवती के फ्री-सेक्स संबंध जो बिना किसी शादी ब्याह के कमिटमेंट के रखा गया है, कोई अजूबा नहीं है. आज मध्यवर्ग के अनेकों युवक युवती जो मल्टीनैशनल कंपनियों में काम करते हैं उन्हें लोदी गार्डन, नेहरू पार्क या शहर के किसी भी पार्क में स्वतंत्रता से आपस में प्रेमालाप करते देखा जा सकता है. यानी सेक्स की आज़ादी ना तो देश की सरकारें लाएंगी ना ही कोई जज वज, वरन जनता जनार्दन खुद उस आजादी की घोषणा व्यावहारिक रूप से कर ही रही है,. और हमारे न्यायलय Honour killing वाले मामलों में मृत्यु दंड तक दे चुके हैं. मैंने कुछ देर पहले कहा कि हर कहानी कदम कदम पर कुछ ना कुछ कहती चलती है. मेरी कहानी में भी नायक नायिका लोदी गार्डन घूम रहे हैं तो नायिका स्पष्ट कहती है कि ‘अभी वो कल्चर यहाँ आया नहीं दोस्त कि हम वो सब हासिल कर लें जो हमें चाहिए. अभी तो तुम भी अनुसूया हो और मैं भी अनुसूया!’ (p 32). यदि मैं अपनी बात कहूँ तो कहानी लिखने का संस्कार मुझे तो नई कहानी के दौर की कहानियां पढ़ने पर मिला जिसमें एक एक मुहावरे या स्थिति तक की चीरफाड समीक्षक करते रहे. अब वो दौर शायद नहीं रहा. उदहारण: मन्नू भंडारी की जगप्रसिद्ध कहानी ‘यही सच है’ में नायिका दीपा का प्रथम प्रेमी अंत में उसे पत्र लिखता है और पत्र के अंत में दो शब्द लिखता है ‘शेष फिर’. उस समय की समीक्षा पुस्तकें पढ़ कर देखें इन दो शब्दों से भी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला गया था कि पहले प्यार के बाद दूसरा प्यार हो तो पहला प्यार सचमुच सर्वथा समाप्त नहीं हो जाता. शेष कुछ ना कुछ ज़रूर रह जाता है. इस के अलावा मुझे याद आ रही है अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी ‘दोपहर का भोजन’ जिसके अंत में एक गरीब पति पत्नी ज़मीन पर पल्थी मार कर भोजन करते हैं तो थाली पर मक्खियाँ भिनभिनाती हैं. समीक्षा पुस्तकों में ही इन उड़ती मक्खियों की मीमंसा मिलती है कि मध्य वर्ग की अस्मिता पर उड़ती हुई ये मक्खियाँ ही मध्यवर्ग की असलियत हैं आदि आदि, मेरी कहानी में जगह जगह मुहावरे हैं ‘प्यासे प्यासे मर्यादा पुरुषोत्तम’, प्यासी प्यासी अनुसूयाएं. स्पष्ट है कि शास्त्रों से मिले कड़े बंधनों पर प्रहार करती है मेरी कहानी की नायिका. कहानी में शिवसेना का ज़िक्र भी है कि ‘मुंबई में तो शिव सेना वाले पीछे ना पड़ जाएं बस... यहाँ आज़ादी नाम की कोई चीज़ नहीं. विदेशों में तो हर कोई हर किसी से मिलते ही लिपट पड़ता होगा और मौके बे मौके ‘किस’ कर लेता होगा. यह तो प्यासे लोगों का देश है ना! यहाँ तो प्यासे प्यासियाँ ही रहते हैं...प्यासे प्यासे मर्यादा पुरुषोत्तम प्यासी प्यासी अनुसूयाएं...’ (p 30). कहानी में जब नायिका नायक को कार में अपनी कोठी में ले जाती है तो कार में जगजीत सिंह का गीत एक कैसेट पर चल पड़ा है, ‘मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल, यहाँ सब के सर पे सलीब है...’(p 30). स्पष्ट है कि यह एक संकेत है कि यहाँ तो सब के सर पे प्रतिबंधों की सलीब है भाई... अब उस अफ़सोस पर आते हैं जो नायिका को होता है. इसे भी कुछ मित्रों ने गलत समझा है. मित्र विवेक मिश्र ने राजी सेठ का उदहारण दिया है कि मेरे जीवन में जो कुछ हो रहा है उसे दुनिया भी जाने वह ज़रूरी है क्या. दरअसल मेरी कहानी में अपनी बात का विज्ञापन दुनिया में बनाना है ही नहीं. प्रसिद्ध साहित्यकार मृदुला गर्ग ने भी एस.एम.एस से मुझे यही कहा है: ‘So? why should others be interested in someone having sex? No one is or would be in a free society.’ दरअसल यहाँ दूसरों को डिस्टर्ब कर के अपनी सेक्स लाईफ बताने की बात ही नहीं हो रही. फेसबुक एक सामजिक क्लब जैसा है जिसमें लोग अपने बच्चे के पास होने की खुशी बांटते हैं, कार खरीदने या मकान बनवाने की खुशी बांटते हैं, कहीं नौकरी मिलने या किताब छपने की खुशी बांटते हैं. इस सब की आज़ादी है. नायिका को दुःख है कि सेक्स इस कदर सामान्य क्यों नहीं हो पाता कि हम फेसबुक जैसे क्लब में आजादी से बता सकें कि हम ने अपने एक मित्र के साथ दो रातें सेक्स का आनंद लिया और उस मित्र को वाल पर ही थैंक्स क्यों नहीं कह सकते. यह बात जो मैं कह रहा हूँ वह विचित्र सी लग सकती है या कम से कम दूर की ज़रूर लग सकती है. अब तक कहानियों में गोपनीयता का आनंद लेने की बात कही जाती रही है, यहाँ एक नया दोस्त बनने और उस के साथ बिताई रातों को बांटने की बात गोपनीयता वाली बात से टकराती नहीं है, वरन उसी सिक्के का दूसरा पहलू लेती है, जिसमें नायिका की मंशा वह निर्भीकता है जिस से वह सेक्स संबंध बताने में किसी से डरे नहीं. नायिका को पता है कि वह खुल्लमखुल्ला ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि अभी वो कल्चर आया ही नहीं जहाँ सेक्स संबंध एक आम बात हो. मैंने मृदुला गर्ग को भी एस.एम.एस द्वारा यह भी बताने की कोशिश की कि ब्रिटिश की एक अविवाहित सांसद महिला ने एक बार ब्रिटिश संसद में अपने भाषण में मुस्कराते हुए घोषणा की थी कि वह माँ बनने वाली है पर होने वाले बच्चे के पिता का नाम नहीं बताएगी. ऐसे में उस सांसद ने अपनी खुशी भी बांटी और गोपनीयता का रस भी चख लिया. सन 2007 में तत्कालीन अमरीकी उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने पत्रकारों को बताया था कि उस की बेटी लेस्बियन है और साथ में वह माँ भी बनने वाली है. मैंने मृदुला जी को कुछ हिंदी साहित्यकार महिलाओं के उदहारण भी दिये कि उन्होंने अपनी आत्मकथाओं में अपने सेक्स संबंधों की चर्चा की है. पर मृदुला जी ने जो जवाब दिया वह यह है: Why do ‘X’ and ’Y’ need to talk about their sex relations? Because they are insecure as are most americans. Immature.’ (उन महिला साहित्यकारों के नाम मैंने छुपा कर X Y कर दिए हैं). इस बात पर बहस हो सकती है कि सब के बीच घोषणा करना असुरक्षा बोध है या यह उस कल्चर का हिस्सा है जो अमरीका और ब्रिटिश में है. फिर असुरक्षा किस बात की? अपनी आत्मकथाओं में अपने सेक्स संबंधों को ज़ाहिर करने वाली महिला साहित्यकारों को शायद असुरक्षा ना होती हो वरन वे आत्मकथा धर्म निभाती हुई अपने अनुभवों द्वारा पाठकों तक एक नया कल्चर पहुंचा रही हों, यह उनकी बहादुरी है शायद, बेबाकी, असुरक्षा कैसे हुई. अंत में एक बात कहूँगा कि मेरी कहानी को ले कर केवल दो धरातलों पर चर्चा हो सकती है – 1. ‘क्या कहानी में सेक्स का वर्णन इस कदर खुला खुला होना चाहिए जैसा मेरी कहानी में है?’ इस का उत्तर मेरे पास यह कि मेरी कहानी पहली नहीं है जो नायिकाओं को निर्वस्त्र दिखाती है. सब से पहले जो हंगामा मुझे याद है वह जैनेंद्र के उपन्यास ‘सुनीता’ पर हुआ था जिस के चरम में ‘सुनीता’ अपने विवाहोत्तर प्रेमी के सामने एक एक कर के अपने आप को निर्वस्त्र कर के दिखाती है. ‘सुनीता’ प्रेमचंदोत्तर युग का उपन्यास है जो आज पुराना लगता है पर उसमें नारी को अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व जीने और उजागर करने की स्वतंत्रता की बात की गई है. इस के बाद जो हंगामा हुआ था वह जैनेन्द्र की ही शिष्या मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ पर .हुआ था जिस का एक पूरा अंश सारिका में छपा था. उस के एक अनुच्छेद का केवल एक वाक्य आज याद है ‘काश मैं पूरा का पूरा एक उरोज़ होती...’ नायिका कल्पना करती है कि वह एक शरीर ना हो कर केवल एक उरोज़ होती तो...तो उसका प्रेमी उस उरोज से खेलता.. पिछले वर्ष ‘हंस’ में प्रकाशित गीता श्री की कहानी ‘इन्द्रधनुष के पार’ पर भी पाठकों की निंदा का तूफ़ान सा उमड़ पड़ा था पर वह कहानी भी मनुष्य के बीच आदिम वृत्तियों को बहादुरी से उजागर करती है. नायिका अपनी सहेली के साथ एक ऐसे क्लब में जाती है जिसमें सब लोग निर्वस्त्र घूम रहे हैं. यह कहानी एक आइना थी, मनुष्य के भीतर छुपी उसकी नैसर्गिकता का. 2. क्या कहानी में निहित फ्री सेक्स का सन्देश समाज ज्यों का त्यों अपना ले? क्या मानव सभ्यता जो जंगलों में निर्वस्त्र रहते रहते कपड़े पहनने तक आ गई और विवाह जैसी संस्था का आविष्कार किया वह अब पुनः फ्री सेक्स पर आ जाए? इस का आंशिक उत्तर तो मैं ऊपर दे चुका हूँ कि विचारक/लेखक या सांसद या न्याय्पलिकएं इन बातों पर जब तक अपने निष्कर्ष दें, तब तक समाज वे उत्तर दे चुका होता है. या धीरे धीरे दे रहा होता है. इस लिहाज़ से मेरी कहानी हो सकता है आने वाले कल की कहानी लगे या जैसे एक मित्र ने एस,एम.एस में कहा कि कहानी आने वाले समय की लगती है, पर मित्र लोग इस बात पर ज़रूर चर्चा कर सकते हैं कि फ्री सेक्स वाली सोसाइटी जैसी कि आदिवासी जीते हैं या आभिजात्य वर्ग या उच्च मध्यवर्ग, उस के नतीजे हमारे समाज के लिये क्या हो सकते हैं. उपसंहार: ऐसा बहुत कम होता है कि एक लेखक को अपनी कहानी की बहुत लंबी मीमांसा करनी पड़े, या कोई लेखक एक मशीन ले कर अपनी ही कहानी का Demo करे, पर मेरी कहानी पर फेसबुक पर ही चर्चा उठी है, और एक मित्र ने कहा भी कि आप स्वयं ही बता दें कि कहानी क्या कहती है. सो मुझे यह सब करना पड़ा, जो पहले कभी कभार कुछ लेखकों को करना पड़ा. इस के बावजूद मैं इस बात पर कायम हूँ कि ज़रूरी नहीं कि बतौर complement के कहानी की प्रशंसा ही की जाए. मित्र बधाई भी देते हैं पर अपनी अपनी छुरियों से उस की चीरफाड भी तो करते हैं! इतने लंबे नोट के लिये क्षमा याचना सहित. जो पढ़े उसका भी भला जो ना पढ़े उस का भी भला. जो प्रशंसा करे उसका भी भला जो निंदा करे उसका भी भला. – प्रेमचंद सहजवाला

1 comment:

MD. SHAMIM said...

समझ गया आपका तात्पर्य.