गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
हर इक शय किस कदर लगती नई थी
हवाले जब तेरे यह ज़िंदगी थी
ज़रा सी गुफ्तगू तुम से हुई जब
मेरी राहों में मंज़िल आ बिछी थी
अँधेरा पार कर आए कदम जब
बहुत मसरूर मुझ से रौशनी थी
मैं सहरा में चला आया था जब जब
सुराबों में मची क्या खलबली थी
मैं सज धज कर वहाँ से हट गया था
मगर शीशे में परछाईं खड़ी थी
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो चाहते हैं तेरा हर गुमान छुप जाए
जहाँ में दोस्त तेरी दास्तान छुप जाए
यहाँ तो सच पे ही ऐलान कर दो बंदिश का
कहीं पे जा के तो यह बेज़ुबान छुप जाए
हमें तलाश है उस छाँव की जहाँ पर हम
जब आँख मूंदें तो सारा जहान छुप जाए
सजाया किसने है यह कायनात का गुलशन
कुछ इस तरह से कि खुद बागबान छुप जाए
जहाँ पे ज़लज़ले हों चल वहीं पे चलते हैं
ज़मीं के टुकड़ों में यह आसमान छुप जाए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कितनी करीबियों से गुज़र कर जुदा हुए
तकदीर से हम ऐसे में कितने खफा हुए
उन चीड़ के दरख्तों के साये में बैठ कर
यादों से अश्कबार भी हम बारहा हुए
थे गमज़दा धुंधलकों में तनहाइयों के पर
खुश भी तेरे ख़याल से बे-इन्तहा हुए
ऐ दिल वफ़ा के रस्मो-रिवाजों का गम न कर
रस्मो रिवाज उनकी जफा के रवा हुए
फस्ले बहार बन के जो गुलशन में आए तुम
मंज़र तुम्हारे हुस्न पे कितने फ़िदा हुए
जिन के लिये ये जान भी हाज़िर थी दम-ब-दम
वो हम-नशीन आज हैं सब नारसा हुए
कूचे में उनके पहुंचेंगे कब जाने ये कदम
तब तक तो रास्ते ही मेरे हमनवा हुए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो वादा कर के भी मिलने मुझे अक्सर नहीं आया
यकीं मुझको भी जाने क्यों कभी उस पर नहीं आया
कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया
परिंदा कोई भी ऐसा फलक छू कर नहीं आया
अदालत में गए थे ईश्वर पर फैसला सुनने
मगर अफ़सोस सब आए फकत ईश्वर नहीं आया
बहुत आई सदाएं शहृ की मेरे दरीचे से
मगर मैं हादसों के खौफ से बाहर नहीं आया
मेरी मजबूर बस्ती में सुबह सूरज उगा तो था
वो अपनी मुट्ठियों में रौशनी ले कर नहीं आया
बहुत आए हमारे गांव में सपनों के ताजिर पर
गरीबी दूर करने वाला बाज़ीगर नहीं आया
करोड़ों देवताओं के करोड़ों रूप हैं लोगो
बदल दे ज़िंदगानीजो वो मुरलीधार नहीं आया
मकानों की कतारों में गए हम दूर तक साथी
चले भी थे मुसलसल पर तुम्हारा घर नहीं आया
बहुत आवाज़ दी तुझको तेरे ही घर के बाहर से
मगर अफ़सोस तू इतनी सदाओं पर नहीं आया
गए शागिर्द सब पढ़ने मदरसा बंद था लेकिन
पढ़ाने कम पगारों पर कोई टीचर नहीं आया
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दीवाने तेरे हुस्न के मारों में खड़े हैं
तपते हुए पैरों से शरारों में खड़े हैं
तारों से फरोज़ां किये दुल्हन तेरी चूनर
हम डोली उठाए हैं कहारों में खड़े हैं
तालीम पे इस अह्द में इक आप का हक है
इस मुल्क में हम कब से गंवारों में खड़े हैं
मंदिर हो कि मस्जिद हो वहाँ जंग छिड़ी है
हिंदू ओ’ मुसलमान कतारों में खड़े हैं
सूरज लिये फिरते हैं हथेली पे जो पैहम
हम आज उन्हीं रंगे सियारों में खड़े हैं
चल चल के कदम रुकते हैं अचरज में अचानक
ये सूखे शजर कैसे बहारों में खड़े हैं
सहरा में नहीं होती किसे अब्र की चाहत
यह सोच के प्यासों की कतारों में खड़े हैं
मज़हब के सबब आप की हम से है अदावत
हम जी के भी अल्लाह के प्यारों में खड़े हैं
जिन लोगों ने राहों से बनाए थे मरासिम
मंज़िल पे वही लोग सितारों में खड़े हैं
महसूस जिन्होंने भी किया दर्द हमारा
वो आज तेरे मेरे सहारों में खड़े हैं
(शरारों = अंगारों, तालीम = शिक्षा, अहद = युग, फ़ारोज़ां = जगमगाती, पैहम = हमेशा, शजर = पेड़, सहरा = रेगिस्तान,अब्र = बादल, अदावत = दुश्मनी, मरासिम = संबंध,
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सदा दी थी बहारों को मगर आई खिज़ां क्यों है
दीवानों के लिये ये इश्क आखिर इम्तेहां क्यों है
फ़रोज़ाँ रौशनी बेइन्तहा थी जश्न जब आया
अंधेरों की तरफ ये काफिला फिर से रवां क्यों है
हमारे नाम आकाओं ने इक परवाज़ लिखी थी
मगर इस अहद में ताइर हुआ बे-आसमां क्यों है
मैं सहरा में मुसलसल चल के भी मसरूर कैसे हूँ
सराबों से मुहब्बत दोस्ती में आसमां क्यों है
कसम खा कर के सच की मैं गवाही देने आया था
मेरे माथे पे लेकिन झूठ कहने का निशाँ क्यों है
तुझे तो भूख सहने में महारत कब से हासिल है
मेरी तक़रीर सुन कर इस कदर तू बदगुमाँ क्यों है
तुम्हारी बरखिलाफी के बहुत आसार जागे हैं
मगर ला-गर्ज़ चेहरे पर तबस्सुम हुक्मरां क्यों है
उठा कर संग हाथों में निकल आए घरों से सब
हुआ कश्मीर फौजों के मुक़ाबिल नातवां क्यों है
(सदा = पुकार, खिज़ां = पतझड़, फ़ारोज़ां = जगमगाती, बेकरां = असीम, परवाज़ = उड़ान, सहरा = रेगिस्तान, मुसलसल = लगातार, मसरूर = खुश, तक़रीर = भाषण, महारत = विशेषज्ञता, बर्खिलाफी = विरोध, लगार्ज़ = बेपरवाह, तबस्सुम = मुस्कराहट, संग = पत्थर, नातवां = कमज़ोर)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
न हिन्दू की न मुस्लिम की किसी ग़लती से होता है
यहाँ दंगा सियासतदान की मर्ज़ी से होता है
ज़मीं सरमाएदारों की है या है हम किसानों की
हमारे मुल्क में ये फैसला गोली से होता है
नज़र मज़लूम ज़ालिम से मिला सकते नहीं अक्सर
शुरू ये सिलसिला शायद किसी बागी से होता है
तरक्की-याफ़्ता इस मुल्क में खुशियाँ मनाएं क्या
हमारा वास्ता तो आज भी रोज़ी से होता है
गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो वापस तो नहीं आते
मगर अहसास अश्कों का किसी चिट्ठी से होता है
कहाँ तक रौशनी जाए फलक से चाँद तारों की
ये बटवारा जहाँ में आप की मर्ज़ी से होता है
न देखा कर तू हसरत से इन ऊंचे आस्तनों को
वहां तक पहुंचना पहचान की सीढ़ी से होता है
(सियासतदान = राजनीतिज्ञ, सरमाएदार = पूंजीपति, मज़लूम = अत्याचार पीड़ित).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
किसानों को ज़मींदारों के जब ऐलां बता देंगे,
वो अपनी जान दे कर आप के कर्ज़े चुका देंगे.
परिंदे सब तुम्हारे क़ैदखाने के कफ़स में हैं,
मगर इक दिन ये तूफाँ बन के ज़िन्दाँ को उड़ा देंगे.
तुम्हारी हर हक़ीक़त राज़ के पर्दे में पिन्हाँ है
मगर कुछ सरफिरे आ कर कभी पर्दा उठा देंगे
गिरफ्तः-लब हैं हम गरचे तुम्हारे खौफ़ से अब तक
ज़बां खुलने पे इक नग्मा बगावत का भी गा देंगे.
सियासतदान नावाकिफ़ हैं सब इखलाक़ से लेकिन
कभी नेहरु कभी गाँधी सी तक़रीरें सुना देंगे
कोई मुजरिम शहर में कल ज़मानत पर नज़र आया
वो इक आला घराने का था उस को क्या सज़ा देंगे!
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जगमगाते शहृ का हर इक मकाँ ऐवाँ लगा
गरचे दिल से हर बशर बे-इन्तहा वीराँ लगा
झूठ के रस्ते रवाँ था आज सारा काफिला
सच के रस्ते जा रहा इक आदमी नादाँ लगा
सच खड़ा था कटघरे में और मुन्सिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीज़ां लगा
जिन सवालों का पता था इम्तिहाँ से पेशतर
इम्तिहाँ में बस उन्हीं का हल मुझे आसाँ लगा
इक मुलम्मा ओढ़ कर मिलते यहाँ अहबाब हैं,
मुस्कराना भी किसी का जाने क्यों एहसाँ लगा
इक बड़ा बाज़ार दुनिया बन गई है दोस्तो
दह्र के बाज़ार में इन्सां बहुत अर्ज़ां लगा
ज़िन्दगी के क़र्ज़ से था डर रहा जो बेपनाह
मौत से बेखौफ मुझ को अब वही दहकाँ लगा
दोस्त के सीने में खंजर घोंपना आसान था
दर्द सा इक बेवजह दिल में फ़कत पिन्हाँ लगा
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
शहृ में चलते हुए सब को यही लगता है क्या
कू ब कू दुश्मन कोई फिर घात में बैठा है क्या
हाथ फैला कर यहाँ पर हर कोई करता सवाल
देखना मेरी लकीरों में लिखा पैसा है क्या
कह रहा था इक सियासतदान कल तक़रीर में
मुझ से भी ज़्यादा कहो चेहरा कोई उजला है क्या
रास्तों से कह रहा था कल समुन्दर कुछ उदास
मेरी नदियों को कहीं पर आप ने देखा है क्या
पूछते थे एक दूजे से ये कुछ ख़ास आदमी
यार बतलाओ कि यह आम आदमी होता है क्या
ईश्वर भी इक बशर को देख कर हैरान था
सोचता था यह बशर खाता है क्या पीता है क्या
रूह सी कोई भटकती आज भी इंजील में
फिर कोई तालीम देना चाहता ईसा है क्या
हो गया है यह वतन भी मिस्र के बाज़ार सा
आदमी से और ज़्यादा कुछ कहो सस्ता है क्या
इश्क में बह्रे-रमल क्या और क्या बह्रे हज़ज़ ,
दर्द में कोई कहे मक़तअ है क्या मतला है क्या.
(कू ब कू = आसपास, सियासतदान = राजनीतिज्ञ, तक़रीर = भाषण, इंजील = बाईबल, बहरे-रमल, बहरे-हज़ज़ = गज़ल की बह्रें, मक़तअ = गज़ल का अंतिम शेर, मतला = गज़ल का पहला शेर).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मगरूर ये चराग दीवाने हुए हैं सब
गरचे ये आँधियों के निशाने हुए हैं सब
इक कारवां है बच्चों का पीछे पतंग के
उड़ती हुई खुशी के दीवाने हुए हैं सब
पंछी घरों की सिम्त उड़े जा रहे हैं देख
कल फिर उड़ान भरने की ठाने हुए हैं सब
फुटपाथ हों या बाग-बगीचे हों शहृ के
लावारिसों के आज ठिकाने हुए हैं सब
मत कर हिरासाँ कश्मकश-ए-इश्क यूं मुझे
मुश्किल किताबों के वो फ़साने हुए हैं सब
लुक छुप सी छत पे कर रहा है चाँद बार बार
बादल भी ढीठ कितने न जाने हुए हैं सब
(सिम्त = तरफ, हिरासाँ = भयभीत)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार
तनहाइयों ने बांहों में ले कर लिया उबार
चलती है दिल पे कैसी तो इक तेज़ सी कटार
डोली उठा के जाते हैं जब भी कोई कहार
दिन भर चले तो रात को आ कर के सो गए
फिर नींद की पनाहों में सपने सजे हज़ार
कितनी कशिश भरी है ये अनजान सी डगर
मिलता है हर दरख़्त के साए से तेरा प्यार
मौसम बदल बदल के ही आते हैं बाग में
आई है अब खिजां को बताने यही बहार
वादों पे जीते जीते हुई उम्र अब तमाम
अब कौन कर सकेगा हसीनों का एतबार
साकी की दीद करने को हम भी चले गए
रिन्दों की मैकदे में लगी जिस घड़ी कतार
साधू भी रंग गए हैं सियासत के रंग में
वादों से मोक्ष होगा ओ तक़रीर की जुनार
दिल को लगाने वाले मनाज़िर चले गए *
अब तो फकत बचे हैं ये उजड़े हुए दयार
नासेह दे गए हैं दीवानों को ये सबक
अब कोई चारासाज़ है कोई न गमगुसार **
(* ज़फर के प्रति श्रद्धांजलि सहित ** ग़ालिब के प्रति श्रद्धांजलि सहित)
(मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफर आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खुद को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी नज़र आती है रुख पर उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ रखो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
(फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ज़रा सी बात पे हो जाते हैं खफा कुछ लोग
कभी जो होते थे अपने भी हमनवा कुछ लोग
शजर की छांव में बैठे तो गुफ्तगू कर ली
अगरचे धूप में रखते हैं फासला कुछ लोग
वो कोई शैख़ हो या बिरहमन कि हो नासेह
न जाने इश्क को कहते हैं ‘क्या बला’ कुछ लोग
ये रास्ते हैं दरख्तों की छांव से भरपूर
इन्हीं से लेते हैं मंज़िल का भी पता कुछ लोग
न कोई अपनी खुशी और न कोई गम अपना
वतन की राह पे हो जाते हैं फ़ना कुछ लोग
हम उनकी बज़्म में जाने के ख्वाब देखते हैं
हमें दिखाते हैं तब आ के आईना कुछ लोग
हमारे शहृ में सब लोग बेमुरव्वत हैं
अगरचे देते हैं पैगाम प्यार का कुछ लोग
कभी तो करते हैं वो जां निसार की बातें
मुलम्मा रुख पे चढाते हैं बारहा कुछ लोग
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा
कामयाबी का कहीं पर तो शिखर आएगा
इस समुन्दर में कभी दिल का नगर आएगा
मेरी मुट्ठी में भी उल्फत का गुहर आएगा
अपने पंखों को ज़रा तोल के देखो ताइर
आस्माँ गुफ्तगू करने को उतर आएगा
चमचमा देता है आईने को किस दर्जा तू
जैसे इस तर्ह तेरा चेहरा निखर आएगा
आज इस शहृ में पहुंचे हैं तो रुक जाते हैं
होंगे रुख्सत तो नया एक सफ़र आएगा
चिलचिलाहट भरी इस धूप में चलते चलते
जाने कब छांव घनी देता शजर आएगा
अपना सर सजदे में उस दर पे मुसलसल रख दे
इक न इक तो इबादत में असर आएगा
(गुहर = मोती, ताइर = पंछी, रुख्सत = विदा, शजर = वृक्ष मुसलसल = लगातार)
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा यह किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
ज़बाँ तक आते आते सच, निकलता झूठ है आखिर
ख़याल ऐसे समय इखलाक के झिंझोड़ जाते हैं
मरासिम तोड़ना तो दोस्त फितरत है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
सियासत के परिंदे हैं ये दहशतगर्द दीवाने
इशारे पर किसी के शह्र में बम छोड़ जाते हैं
ए कान्हां जी बिगाड़ा आप का मैंने है क्या आखिर
जो आकर रोज़ मेरी आप मटकी फोड़ जाते हैं.
(सराब = रेगिस्तान में जहाँ पानी का भ्रम होता है, शजर = पेड़, इखलाक = नैतिकता, मरासिम = रिश्ता, फितरत = स्वाभाव, सियासत = राजनीति, दहशतगर्द = आतंकवादी).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सरहद के पार से थी इधर आई दूर तक
दहशत से ये फज़ा थी सिहर आई दूर तक
खुशहाल से थे यूं तो मनाज़िर वतन के फिर
अफसुर्दगी सी कैसी नज़र आई दूर तक
ज़ुल्मतज़दः सी शब में थे गल्तान पर तभी
हर सिम्त कैसे सुब्ह निखर आई दूर तक
हैं अब्र आसमाँ में बरसते अभी अभी
फिर नागहाँ है धूप पसर आई दूर तक
मंज़िल का कुछ ख़याल न था ख़्वाब ही कोई
पर पांव गुदगुदाती डगर आई दूर तक
गर्दिश में जब भी दीद मसीहा ने दी मुझे
इक रौशनी सी कैसी बिखर आई दूर तक
जिस लम्हा बाम पर हुए महबूब जलवागर
तब चांदनी ज़मीं पे उतर आई दूर तक
गरकाब दो दीवाने थे गिर्दाबे-इश्क़ में
साहिल पे एक भीड़ उभर आई दूर तक
(अफसुर्दगी = उदासी, मनाज़िर = नज़ारे , ज़ुल्मतज़दा = अँधेरी, शब = रात, सिम्त = तरफ, अब्र = बादल, नागहाँ = अचानक, बाम = छत, गरकाब = गुम, गिर्दाब = भंवर)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मैं अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से कितना रहा पशेमाँ हूँ
कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब बताते हैं सब यह कि मैं मुसलमाँ हूँ
जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ
शहर में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ
हरेक शख्स के मज़हब से मुझ को उल्फत है
अगरचे खिर्दमंद कहते हैं मैं नादाँ हूँ
धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस दर्जा तो परेशाँ हूँ
लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे सदियों से मैं तो हैराँ हूँ
खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
मौलवी थे वो तपस्या में रहे थे दिन भर
उन की चौखट पे कई लोग रुके थे दिन भर
प्यार इस शहृ में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
शब के आगोश में बेसुध से गिरे जिस लम्हा
सिर्फ इस बात पे खुश थे कि चले थे दिन भर
कोई सीने से लगा और कोई बेगानावार
थी तसल्ली कि कुछ अफराद मिले थे दिन भर
जश्न तो आया मगर दिल को दरीदः कर के
सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
(अफराद= लोग, दरीदः कर के = चीर कर) (बह्र = फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
दुनिया में जो भी आए, तारीख़ को बनाने
अब गुमशुदा हैं लोगो, उनके पते ठिकाने
साज़िश से बेख़बर थे, सब शहर के मसीहा
घर जल गया तो सारे, निकले कुएँ बनाने
अनजान सो रहे हैं, सब वारिसे-वसीयत
बहरूपिये चले हैं, अब मिल्क़ियत भुनाने
साहिल पे भीड़ थी और, था डूबने को कोई
मैं भी चला गया फ़िर, उस भीड़ को बढ़ाने
हैराँ थे लोग सारे, क़ातिल की देख जुर्रत
क़ातिल वहीं खड़ा था, मकतूल के सिरहाने
लो इंतेखाब आए, अपने वतन में लोगो
कुछ लोग आ रहे हैं सपने नए दिखाने
(मकतूल = जिस का क़त्ल हुआ हो, इंतेखाब = चुनाव, वारिसे-वसीयत = वसीयत के उत्तराधिकारी).
बह्र - मफ़ऊल फाइलातुन मफ़ऊल फाइलातुन
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलोगे जब भी तुम होंठों पे शिकवे और गिले होंगे
इन आँखों में मुसलसल आंसुओं के सिलसिले होंगे
हवाएं जिस तरफ से खुशनुमा आ जा रही होंगी
वहीं मंज़िल तरफ जाते हुए कुछ काफिले होंगे
पता था क्या तुम्हारी बज़्म में आएँगे हम जब भी
तुम्हारे हुस्न के चौगिर्द पहरों के किले होंगे
खिज़ां गम की चली जाएगी इक दिन वक्त आने दे
इसी गुलशन में अनगिन फूल खुशियों के खिले होंगे
खुदा का शुक्र है अब रहनुमा जाएंगे दौरे पर
जहाँ सैलाब में डूबे हुए अनगिन ज़िले होंगे
जहाँ पर कोहकन शीरीं की उल्फत में गया था कल
वहीं पर देखना अब भी हज़ारों दिल मिले होंगे
(मुसलसल = लगातार, खिज़ां = पतझड़, सैलाब = बाढ़ , कोहकन = फरहाद).(बहृ – मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
तुम्हारे और मेरे बीच फासले तो हैं
मगर खुशी है कि मिलने के सिलसिले तो हैं
चलोगे साथ तो हम भी कदम बढ़ाएंगे
ये और बात है उल्फत में मरहले तो हैं
अगरचे गाहे-ब-गाहे कहीं गिरेंगे ज़रूर
ज़हन में थोड़े से मज़बूत फैसले तो हैं
गुरूर कर न फलक-बोस आशियाने का
ज़मीं की कोख में थोड़े से ज़लज़ले तो हैं
शजर हूँ तनहा मगर ये खुशी भी क्या कम है
मेरे वजूद पे थोड़े से घोंसले तो हैं
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
किसी को अम्न की थोड़ी सी इल्तिजा है क्या
तुम्हारे पास मेरे दर्द की दवा है क्या
तुम्हारे शहृ की परछाईयाँ फज़ा में हैं
तुम्हारे शहृ कोई हादसा हुआ है क्या
जवां के काँधे पे मज़हब का इक तमंचा है
वो जानता नहीं भगवान क्या खुदा है क्या
धुआँ उड़ा तो मैं हैराँ था देख तसवीरें
हलाक लोगों में चेहरा मेरा छुपा है क्या
अदू की जीत हुई जंग में न जाने क्यों
कमर न कसना भी कोई बड़ी खता है क्या
ख़बर सुनी तो बहुत लोग हड़बड़ाने लगे
ये देखना कोई अपना हुआ फ़ना है क्या
(अर्थ - अम्न = शान्ति, हलाक = मृत, उदू = दुश्मन, फ़ना = मृत)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
हो गए हैं आप की बातों के सब मुफलिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रौशनी दे कर मसीहा ने चुनी हंस कर सलीब
रौशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िंदगी की सुब्हो-शाम
ज़िंदगी पर फिर रहा कोई न अपना अख्तियार
मिल नहीं पाते शहर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में कभी रूदादे-उल्फत थी लिखी
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे
सारी मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ
और समुन्दर में सभी नदियों के शामिल आब थे
कुछ कदम चलना था तुझ को कुछ कदम फिर मैं चला
सामने फिर डूबने को इश्क के गिर्दाब थे
सुब्ह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे
शहृ जब पहुंचे तो खुश थे फिर अचानक क्या हुआ
हादसों के सिलसिलों में हम सभी गरकाब थे
मंज़िलों के सब मसीहा मील पत्थर बन गए
वो शहादत के फलक पर जलवागर महताब थे
ईद पर जब चाँद निकला सब सितारे खुश हुए
कर रहे फिर एक दूजे को सभी आदाब थे
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गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में लो अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रौशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब का ही रौशनी से मरासिम है दोस्तो
जलते चराग हों कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र न देख तू
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब?
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा तुझे तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गई बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इंतेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सुब्ह तक तो हमकदम हो कर सभी चलते रहे
ख्वाब तेरी और मेरी आँखों में पलते रहे
एक परचम ता-फ़लक लहरा गया जब शान से
दीप खुशियों के करोड़ों रात भर जलते रहे
जब मसीहा को मिली सूली बहाए अश्क तब
सच नहीं यह बात कह कर ख़ुद को ख़ुद छलते रहे
मज़हबों में भी न जाने बात क्या है दोस्तो
पत्थरों की छांव में सब फूलते फलते रहे
ये न सोचो राह कितनी दूर तक आए हैं हम
रोज़ सूरज सुब्ह आकर शाम को ढलते रहे
शहृ सा ये शोर कैसा आ गया है गांव में
खेत और खलिहान उनकी आँखों में खलते रहे
कैस अब लैला के आगे इस लिए है शर्मसार
चाँद तारे तोड़ने के फैसले टलते रहे
देवता मुझ को बचाने जब तलक आए कोई
कारवां लुटने लगा और हाथ सब मलते रहे
खून था या ये पसीना कुछ पता चलता नहीं
यार इंसानों के पैकर किस कदर गलते रहे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
एक छोटी बात कोई आ के समझाना मुझे
मुल्क और दर्दे-चमन में फर्क बतलाना मुझे
दर्द मेरा जानने मोटर में आए मेहरबाँ
आज उन के घर तलक पैदल पड़ा आना मुझे
जब कड़ी सी धूप के दिन अलविदा देने लगे
दोस्तो अच्छा लगा बादल का तब छाना मुझे
कह रहा था कल नुमाइंदा ये मेरे शहृ का
खूब आता है सितारे तोड़ कर लाना मुझे
मुल्क की हालत पे लिख डाली उन्होंने इक किताब
उस के पन्नों पर कहीं सच हो तो पढ़वाना मुझे
आस्मां को छू रहे हैं दाम हर इक शय के अब
कोई ला कर दे कहीं से सिर्फ़ इक दाना मुझे
हर घड़ी नगमे खिजां के गा रहा हूँ आजकल
फस्ले-गुल का भी सिखा दो गीत तुम गाना मुझे
क्यों करोड़ों लोग आए हैं वहाँ मैदान में
मेरी हस्ती चाहता है कौन बतलाना मुझे
सनसनी बिकती है दुनिया के बड़े बाज़ार में
मेरी भी जब हो शहादत दोस्त बिकवाना मुझे
ग़ज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो खुदा से भी न डरता था वो इक फौलाद था
लोग कहते हैं कि वो हिटलर की इक औलाद था
ईश्वर चौराहे पर कल कर रहा तक़रीर था
मेरी तकलीफों को ले कर जाने क्यों नाशाद था
जो पहाडों की तरफ़ जाता मिला था सैर को
वो नहीं था यार ये तो और कोई फरहाद था
इश्क के बारे में उस को कुछ पता तो था नहीं
शायरों से बोलता बस लफ्ज़ इक इरशाद था
मिलकियत घर में करोड़ों क्यों न रक्खे हुक्मरां
मुफलिसी की मुल्क में करता रहा इमदाद था
प्यार करने की तो उसको छूट पहले ही से थी
कत्ल महबूबा का करने को भी वो आज़ाद था
खेलने में खूब है वो मस्त सुंदर बालिका
चुस्त कपडों पर छिड़ा क्यों उस के वाद विवाद था
खूब किस्से और कहानी लिखने में माहिर है वो
सिर्फ़ लिख पाता नहीं तेरी मेरी रूदाद था
कामयाबी मिल गयी आख़िर उसी दह्कान को
रोज़ मरने के तरीके कर रहा ईजाद था
देवता लाखों करोड़ों देख कर हैरां था वो
गिन नहीं पाता कभी इन की मगर तादाद था
घर जला सकता था सब के एक ही आवाज़ में
अपने मज़हब का वो इक माना हुआ जल्लाद था
भूख से बेहाल हो कर जब मैं बुतखाने गया
पत्थरों के पांव में रक्खा हुआ परसाद था
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ख्वाब देखो किस कदर थे तेरे मेरे मिल रहे
रौशनी बोई मगर क्यों हैं अंधेरे मिल रहे
चल पड़े थे चांदनी ले कर के झोली में सभी
राह में किस दर्जा सब को हैं लुटेरे मिल रहे
बाँट ली थी ठोकरें और रास्ते की धूप तक
अब मगर तनहाइयों में हैं बसेरे मिल रहे
रात भर ये सोचते थे सुब्ह आएगी ज़रूर
कालिमा की कैद में हैं अब सवेरे मिल रहे
देवता ने दे दिये वरदान बिन मांगे सभी
आज लेकिन देवता को दुःख घनेरे मिल रहे
देख कर तपती ज़मीं रह रह के आता है ख़याल
आसमाँ की गोद में बादल घनेरे मिल रहे
इक सुरीली तान के वश में हुए हैं क्यों सभी
बीन सी कोई बजाते हैं सपेरे मिल रहे
एक शीशे में सभी ने अक्स देखा खुश हुए
कांच के टुकड़े ज़मीं पर अब बिखेरे मिल रहे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
हरेक राह नज़र आते राह्बर क्यों हैं
ज़मीं पे इतने गरीबों के मोतबर क्यों हैं
तुम्हारे शहृ का हर बाग़ लहलहाता है
हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं
उड़ान तय हुई थी आसमाँ तलक लेकिन
यहाँ परिंदों के कटते हुए ये पर क्यों हैं
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
हुई है रात जवाँ पांव थरथराने लगे
ये लोग नाचते यूँ रात रात भर क्यों हैं
कोई चमकता सा मंज़र नज़र नहीं आता
ये मेरी ऑंखें हुई ऐसी कमनज़र क्यों हैं
(राहबर = मार्गदर्शक, मोतबर = विश्वसनीय, शजर = पेड़, दहशत = आतंक, मंज़र = दृश्य)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
इस शहृ में कहाँ रहूँ लोगो बताओ तो
दीवारो दर वो तोड़ गए हैं मकान के
दे कर ज़मीन घूम रहा कार में वो अब
इस गांव में बदल गए हैं दिन किसान के
हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के
मनसूबे किस को हैं यहाँ हाकिम बनाने के
दरवाज़े बंद कर दिए सब ने दुकान के
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
गज़ल – (गुजरात 2002 में हुई नृशंस मुस्लिम हत्याओं पर)
हुई है दोस्तो तकरार मज़हबों में अब
घरौंदे देख लो उन के इन्हें जलाने तक
गिरा हुआ है बहुत खून अब भी मकतल पर
खुली है आँख ये मेरे गवाह आने तक
कफस में कैद है बुलबुल बहुत से हैं सैय्याद
कोई न आएगा अब छटपटाते जाने तक
मिली है जिंदगी रिश्वत में हुक्मरां से मुझे
रहेंगे जिंदा कभी मौत के बुलाने तक
जला के जिस्म मेरा मुस्करा रहा है कोई
रुका हुआ है मेरी रूह को मिटाने तक
चमक है चेहरे पे जल्लाद के गुरूर भरी
सुनहले वर्क में तारिख को बनाने तक
लगा है ज़ख्म मसीहा को आज सूली पर
सदी भी कम है किसी घाव को भुलाने तक
(तकरार = लड़ाई, मज़हब = धर्म, मकतल = वधस्थल, कफस = पिंजरा, सैय्याद = पंछी पकड़ने वाले, रूह = आत्मा, वर्क = पृष्ठ, तारीख = इतिहास..
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रास्तों से गपगपाते चल दिये
बारहा ठोकर भी खाते चल दिये
हमसफ़र कोई मिला तो खुश हुए
राग उल्फत के सुनाते चल दिये
वक़्त जब बोला कि मंज़िल दूर है
बेवजह हम खिलखिलाते चल दिये
गर्मियों में छांव में बैठे कहीं
सर्द रुत में थरथराते चल दिये
हर हकीक़त से गले मिलते रहे
ख़्वाब से भी तो निभाते चल दिये
हाथ में परचम तमन्ना के लिए
ये कदम आगे बढाते चल दिये
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कल हुई दहशत ने मारे थे बहुत
जो गए, वो लोग प्यारे थे बहुत
जिस जगह पर कल धुआँ उठने लगा
घर वहाँ मेरे तुम्हारे थे बहुत
दोस्तों के और अज़ीज़ों के लिए
लोग वो सच्चे सहारे थे बहुत
धूप मीठा खिलखिलाती थी मगर
छा गए फिर मेघ कारे थे बहुत
यक-ब-यक बस्ती धुएँ से भर गई
लोग कितना डर के मारे थे बहुत
कुछ नहीं मेरा तुम्हारा ये कुसूर
अश्क तो सदियों से खारे थे बहुत
(अर्थ: दहशत = आतंक , यक-ब-यक = अचानक).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
किस के दिल में दर्द कितना है निहाँ
दे सके तो दे कोई ये इम्तिहाँ
हम मसीहा हो गए सब नातवाँ
मिट गए हैं तेरे क़दमों के निशाँ
ज़लज़लों की हो गई है इन्तिहा
ये हवा किस तर्फ होगी अब रवाँ
सब रसूलों में बहुत तकरार है,
टूट जाएगा किसी दिन ये मकाँ
आँख मेरी क्या हुआ यह यक-ब-यक
बर्क़ सी दिखने लगी है कहकशाँ
बो रहे थे कल तलक जो खुशबुएँ
आज वो तामीर करते है धुआँ
मुझ पे रंजीदा हुआ भगवान क्यों
पूछता है अपने रब से मुस्लिमाँ
(अर्थ - निहाँ = छुपा हुआ, नातवाँ = कमज़ोर, ज़लज़ला = भूकंप, इन्तिहा = हद, रवाँ = प्रवाहित, रसूल = अवतार पैगम्बर, यक-ब-यक = अचानक, बर्क़ = बिजली, कहकशाँ = आकाश में सितारों भरा रास्ता, तामीर = निर्माण, रंजीदा- नाराज़).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
शहर में मौत पे अफ़सोस करने आया था,
वो कौन शख्स था जो दर्द पढ़ने आया था.
जहाँ पे आज धमाका हुआ था शाम ढले
वहीं पे कल ही तो मैं सैर करने आया था.
यहीं पे पहली मुलाक़ात में मिला था मुझे
यहीं पे आज वो सब से बिछड़ने आया था.
बहुत हसीन था वो लाजवाब सूरत थी
कफ़न के कपड़ों में वो अब सँवरने आया था.
बहुत बयान दिए हुक्मराँ ने मकतल पर
वो इक विमान से तफ्तीश करने आया था.
तुम इस तरह मुझे मुजरिम समझ के मत देखो,
मैं अपने दीन पे ही जीने मरने आया था.
(पैरहन = वस्त्र, मकतल = वधस्थल, तफ्तीश = जांच
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ख्वाब मेरी आँखों को बस खुशनुमा देते रहें,
रोज़ तकरीरें मुझे ऐ मेहरबाँ देते रहें
सारी खुशबू आपकी और खार हों मेरे सभी
और कितने इश्क के हम इम्तिहाँ देते रहें
मुजरिमों में नाम कितना भी हो शामिल आपका
आप अपनी बेगुनाही के बयां देते रहें
देनदारों के न कर्जे अब चुका पाएंगे हम
बा-खुशी कुर्बानियां अपनी किसाँ देते रहें
आ गयी है सल्तनत फौलाद की अब गांव में
या ज़मीं दे दें इन्हें या अपनी जाँ देते रहें
कायदों का मैं नहीं हों कायदे मेरे गुलाम
फलसफा ये मुन्सिफों को हुक्मराँ देते रहें
(फलसफा = दर्शन, philosopy, मुंसिफ = जज तकरीरें = वक्तव्य, speeches
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
मेरे हिस्से में ये टूटा हुआ अंजुम क्यों है
मेरी सब रौशनी तरीकियों में गुम क्यों है
बेरुख़ी तेरी बुरी क्यों नहीं लगती हमको
पुरकशिश दर्द में इस दर्जा तरन्नुम क्यों है
यूँ तो रौनक़ है बहुत चार सू मेरे लेकिन
हाले-दिल हो गया इतना मेरा गुमसुम क्यों है
तुम से उम्मीदे-मुहब्बत तो नहीं है मुझ को
फिर भी यह दिल में उमड़ता सा तलातुम क्यों है
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जब कभी मौजें समुन्दर की करेंगी इन्किलाब
मांग लेंगी सब तेरे आमाल का तुझ से हिसाब
खेलने वाले हुए हैं आज दुनिया के नवाब
पढ़ने-लिखने वाले दिखते हैं ज़माने को खराब
एक लम्हा ज्यों सदी और इक सदी जैसे कि पल
कौन समझेगा यहाँ अब वस्लो- फुरकत के हिसाब
जब कभी माज़ी ने पूछे दिल से कुछ मुश्किल सवाल
तब ज़माने-हाल ने ही दे दिए आसां जवाब
बैठ कर फुर्कत के सिरहाने सुलगती रात में
पढ़ रहे हैं वस्ल के ख्वाबों की इक सुन्दर किताब
(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सब मनाज़िर हैं फज़ा के यूं निखर आए यहाँ
चाँद आ कर सिर्फ अपनी ज़ुल्फ़ बिखराए यहाँ
हर हवा का रुख बताया है यहाँ किस फर्द ने
और रफ्तारे-हवा भी कौन बतलाए यहाँ
शब की तारीकी में आँखें बंद थी बस ख्वाब थे
दिन उगे ताबीर आ कर कौन समझाए यहाँ
ज़िंदागानी की बका पर कौन कर पाया यकीं
जाने कब दस्तक फ़ना की दोस्त आ जाए यहाँ
कारवां में सब अकेले कारवां फिर भी है साथ
दोस्तो अब कौन इस उलझन को सुलझाए यहाँ
चुग गई है खेत जाने कितने चिड़िया वक्त की
फिर भी कितने लोग हैं जो पहले पछताए यहाँ
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कर नहीं पाते हैं क्यों अम्नो-अमां का एहतराम
सरहदों पर है फकत बारूद का क्यों इंतज़ाम
खत नहीं आते मगर खत की बनी रहती उमीद
ज़िन्दगी यूं काश उम्मीदों में हो जाए तमाम
कौन बच पाया यहाँ पर ज़र ज़मीं ज़न से कहो
वो बिरहमन हो कोई या शैख हो या हो इमाम
आग नफरत की लगाई तूने सारे शहृ में
कर रहा है अब शहीदों को सियासतदाँ सलाम
औरतों का हक दिलाने औरतें आगे बढ़ी
चल पड़ी है रास्तों पर इक हवा सी खुश-खिराम
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
राह जब क़दमों ने चुन ली राह की तासीर क्या
धूप हो या हों शजर हाथों लिखी तहरीर क्या
मुफलिसों में भी हैं अव्वल और ज़रदारों में भी
दोस्तो इस मुल्क की दुनिया में हो तस्वीर क्या
ख्वाब आँखों से बुनो तो ख्वाब को अंजाम दो
बिन किये कुछ सोचते हो ख्वाब की ताबीर क्या
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
चलो माज़ी के अंधियारों में थोड़ी रौशनी कर लें
चलो यादों के दीपों से दरख्शां ज़िन्दगी कर लें
मेरे महबूब तेरी दीद होगी फिर न जाने कब
तुम्हारी राह पर बैठे ज़रा हम शायरी कर लें
तुम्हारे हुस्न को माबूद कर के बन गए काफिर
तुम्हारे आस्तां पर रख के सर अब बंदगी कर लें
समुन्दर अपनी जा पर करते रहियो देवताई बस
तेरे क़दमों को अर्पित शहृ जब तक हर नदी कर ले
नदी पर जंग क्यों है किसलिए है आब पर फितना
मुहब्बत की नदी में मिल के आओ खुदकशी कर लें
(माज़ी = अतीत, फरोजाँ = प्रज्वलित, माबूद = पूज्य, आस्तां = चौखट, आब = पानी, फितना = झगड़ा).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलने की रस्म यूं तो हमेशा वही रही
तेरी नज़र न जाने मगर क्यों फिरी रही
नाराज़ रहते हैं मेरे अहबाब किसलिए
उन को सलाम करने में अक्सर कमी रही
जीते हैं और लोग भी अपनी तरह यहाँ
अपनी ही सिर्फ ऐसी नहीं ज़िन्दगी रही
गम को तो कर चले थे निहां दिल में हर जगह
चेहरे पे सिर्फ थोड़ी अयाँ बेबसी रही
बस्ती से भीड़ अपने घरों को हुई रवां
फिर भी फज़ा गुबार से दिन भर सनी रही
मिलते हैं रोज़ उफक पे ज़मीं और आसमाँ
सहरा में ये नज़र भी वहीं पर टिकी रही
गर्दन भले ही भूल से कुछ उठ गई हो पर
दस्तार फिर भी अपनी ज़मीं पर गिरी रही
मकतल से लाश ले गए क़ानूनदाँ मगर
पूरे नगर में छाई हुई सनसनी रही
(अहबाब = दोस्त (plural), मुफलिस = गरीब, निहां = छुपी हुई, जा-ब-जा = जगह जगह, अयाँ = ज़ाहिर).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दो जिस्म एक जान का मंज़र ही हट गया
मिलते थे जिस के साए में वो पेड़ कट गया
वादा किया था बरसूंगा तेरी ही छत पे मैं
आई हवा तो वादे से बादल पलट गया
किरनों से खेल खेल के दिन हो गया तमाम
देखो उफक की गोद में सूरज सिमट गया
रंजिश जो सारी भूल के मिलने को आए वो
तब फासला दिलों का मुहोब्बत से घट गया
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों का एक सहरा है हर सिम्त बेकराँ
ये शहृ है कि तिशनालबों का है कारवां
सैयाद के कफस में है मजबूर सिर्फ वो
परवाज़ तो परिंदे के पंखों में है निहां
धरती को कैसे बाँट दिया है जहान ने
खाता है खौफ कैसे तो यह देख आसमां
रस्ते पे चलने फिरने का उस्लूब और है
बेटी हुई है जब से मेरी दोस्तो जवां
बेटी को खुशनुमा सी हवाएं नसीब कर
पंखों से नाप डालेगी बेटी ये आसमां
कहती है जिंदगानी है इक इम्तिहान माँ
ससुराल का नहीं मगर आसान इम्तिहां
(बेकराँ = असीम, तिशना-लब = प्यासे, सैयाद = पंछी पकड़ने वाले, कफस = पिंजरा, निहां = छुपी हुई, उस्लूब = Style, शैली).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ये खाली खाली दिन तेरे पैगाम के बिना
सागर हो जैसे हाथ में पर जाम के बिना
राधा सकी न नाच कभी श्याम के बिना
होती रुबाई क्या भला खय्याम के बिना
फस्ले-बहार जाने पे आए न क्यों खिज़ां
कैसे किताब हो कोई अंजाम के बिना
पूछा शजर ने तेशे से कटने पे यह सवाल
क्योंकर सज़ा मिली मुझे इलज़ाम के बिना
जिनको किया गया है खिरद की कफस में कैद
दीवारें उन दिलों की हैं असनाम के बिना
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में लो अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रोशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब के ही रौशनी से मरासिम हैं दोस्तो
जलते चराग हों कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र न देख तू
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा कभी तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गई बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इन्तेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फ़ना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जिस्म तो दोनों लिपट कर के सरे आम मिले
खुश्क आँखों से मगर अश्क भी बहते कैसे
सारी खुशबू तो खिज़ां लूट गई कब जाने
गुल यह मेआरे-अदावत भी समझते कैसे
जब भी तूफान समुन्दर से शहर में आया
शहृ के लोग संभलते तो संभलते कैसे
दिल के तालाब में यादों के कँवल खिलते हैं
वर्ना ये कोह से दिन रात गुज़रते कैसे
बाइसे खौफ है धड़कन में बला की तेज़ी
शहृ में लोगों के दिल वर्ना धड़कते कैसे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
गुफ्तगू के सभी दरवाजे खुले हैं फिर भी
आप खामोश बहुत रोज़ रहे हैं फिर भी
बाग के चेहरे पे शिकवा-ए- खिज़ां यूं तो नहीं
दिल में उम्मीदे-बहारां के दिये हैं फिर भी
आसमां यूं तो बुलंदी पे अज़ल से ही है
उस के बादल तो ज़मीं पर ही झुके हैं फिर भी
कोई मरहूम मेरा सानिहे में अपना न था
मेरी आँखों से बहुत अश्क गिरे हैं फिर भी
मैं तो सहरा में भी चलता रहा तनहा तनहा
जेब में दोस्तों-यारों के पते हैं फिर भी
फर्क क्या पड़ता है दुश्मन हो या तुम दोस्त मेरे
हाथ तो मेरे दुआ को ही उठे हैं फिर भी
अपने पांवों से ही हर गाम किया तय हमने
साथ चलने को बहुत लोग चले हैं, फिर भी
(खिजां = पतझड़, बुलंदी = ऊंचाई, मरहूम = मृत, गाम = कदम)
(बहृ – फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
बेगानगी की कौन सी मंज़िल पे आए हैं
खुद अपनी शक्ल से हुए कितने पराए हैं
कहने लगा फलक से समुन्दर गुरूर में
तेरी तरफ ये अब्र तो मैं ने उड़ाए हैं
नदियों से पूछ पाया न सागर कभी ये बात
रस्तों पे किसने कितने खज़ाने लुटाए हैं
खुशबू में आ गया है यह कैसा तो इन्कलाब
बन कर बहार आप चमन में जब आए हैं
वो चंद पल जो आप मुक़ाबिल रहे मेरे
उन्वान मेरी ज़ीस्त का बन कर के आए हैं
बहती हुई नदी के है ये ज़हन में ख़याल
वो इन्तज़ार में मेरे पलकें बिछाए हैं
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जब भी नज़रों के तेरी तीर कमाँ तक आए
तेरे शैदाई शहादत को यहाँ तक आए
इक मसर्रत से चले दर्दे-निहां तक आए
बेवजह इश्क में हम सूदो-ज़ियां तक आए
किस्सा कोताह यही है तेरे दीवानों का
इक हकीकत से चले और गुमाँ तक आए
फस्ले-गुल हो गई रुखसत ये तभी इल्म हुआ
यक-ब-यक पाँव ये जब मेरे खिजां तक आए
आशियाने हुए आतिश के हवाले तब ही
रहनुमा चल के सभी उजड़े जहाँ तक आए
तेरे परवानों की फितरत है कि खामोश रहें
दिल के अरमान भला कब थे ज़बां तक आए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
आने पे तेरे शहृ में दिल को खुशी हुई
आँखों को तेरी दीद की उम्मीद सी हुई
धरती ने भेजा अब्र को सू-ए-फलक मगर
उस के नसीब में तो यही तिश्नगी हुई
मेरे ही खून को मेरा दुश्मन बना दिया
तुम ही कहो ये कैसी भला रहबरी हुई
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
निजात उन के गम से दिला दे हमें
मुदावा कोई अब बता दे हमें
बहुत दूर तक आ चुका कारवां
न अब ऐ गुज़श्ता सदा दे हमें
तेरे आस्तां पर रहेगा ये सर
नज़र से अगरचे गिरा दे हमें
जो गम हों तो करते हो कैसे गलत
ए वाइज़ बस इतना बता दे हमें
फरोजां रहेंगे चरगाने-याद,
भले दिल से अपने भुला दे हमें
(बह्र – फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फऊ)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों को तोड़ कर जो अचानक चले गए
दिल में उन्हीं को पा के मैं हैरां हुआ बहुत
मेहनत के बाद बैठे थे जब इम्तिहान में
मुश्किल सा हर सवाल भी आसां हुआ बहुत
बस्ती में जब धुंआ उठा आई थी इक खबर
सुन कर हरेक शख्स हिरासाँ हुआ बहुत
जब झूठ पर तेरे न यकीं कर सका अवाम
किस दर्जा रहनुमा तू परेशां हुआ बहुत
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सराबों में जो दिन जिये सो जिये
जो तुम ने मुझे ग़म दिये सो दिये
है अब सिर्फ सहरा-नवर्दी मिली
जो जामे-मुहोब्बत पिये सो पिये
ज़रूरी न गंगा में अब गुस्ल हो
हसीं पाप हम ने किये सो किये
न पूछोगे रूदाद उस दर्द की
लगे ज़ख्म जो वो सिये सो सिये
है तिश्ना-लबी में यही सोच अब
जो कल तुमने बोसे दिए सो दिए.
(सराब = रेगिस्तान में जहाँ पानी होने का भ्रम होता है (मृगतृष्णा), सहरा-नवर्दी = रेगिस्तान का सफ़र, गुस्ल = स्नान रूदाद = कहानी, तिश्ना-लबी - होंठों की प्यास, बोसे = चुम्बन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
तेरी रा'नाई ने शब भर दिल को बहलाया भी था
और मेरी ख्वाहिशों ने मुझ को बहकाया भी था
हर कोई ज़ेरे-शजर सिमटा खड़ा था खुद में ही
हर किसी से अजनबी हर कोई घबराया भी था
जब उड़ा पंछी ज़मीं से एक साया था कहीं,
जब गया आकाश में तो गुमशुदा साया भी था
खटखटाया था मुसीबत ने मेरा घर जिस घड़ी
सोचता हूँ तब मेरा क्या कोई हमसाया भी था
रास्ते से आप मंज़िल तक हमें ले जाएंगे
आप ने ये झूठ सब के बीच फ़रमाया भी था
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सफीने के लिए तूफान में वो लोग साहिल थे
बहुत थी रौशनी दिल में मसीहा जब मुक़ाबिल थे
सवाल इस इम्तिहाँ में जो भी आए थे वो मुश्किल थे
मगर अव्वल वही आए कि जो शागिर्द काबिल थे
तुम्हारे गांव घर आए हुई दिल को खुशी हासिल
वो पगडंडी-नुमा रस्ते सभी हरचंद सर्पिल थे
अगरचे देवताओं ने ही आखिर में पिया अमृत
मगर अफ़सोस उस में एक दो शैतां भी शामिल थे
मुबारक हो सियासतदां तेरी तकरीर पर तुझ को
गरीबी भूल सब मुफलिस तेरी ही सिम्त माइल थे
तेरे मैखाने में आ कर के रिन्दों की कतारों में
तेरे हाथों से बस इक जाम के दीवाने साइल थे
बहुत सी गर्दिशों के चलते चलते मुस्कराए हम
मगर सब से अधिक मुश्किल मुहोब्बत के मसाइल थे
(सफीना = नाव, साहिल = किनारा, हरचंद = हालांकि, साइल = सवाली, मसाइल = समस्याएँ, सियासतदां = राजनीतिज्ञ, मुफलिस = गरीब, सिम्त = की तरफ, माइल = झुके हुए, inclined) (बहृ – मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
परवरदिगार से तुझे माँगा किये हैं हम
अशआर तेरे हुस्न पे लिखा किये हैं हम
दिन को तो ज़िंदगी से निभाया है दम-ब-दम
रातों को तेरी यादों में रोया किये हैं हम
इस शहृ में कदम ब कदम चल के रोज़ रोज़
हर शक्ल में तुझे ही तो देखा किये हैं हम
सच के हसीन गुहर को मुट्ठी में ले सकें
नायाब ऐसे ख्वाब भी देखा किये हैं हम
अब वक़्त की रवानगी माज़ी की सिम्त हो
इतनी हसीन बातें भी सोचा किये हैं हम
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रातों को यह नींद उड़ाती तनहाई
टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
नानी दादी सी बतियाती तनहाई
लोरी दे कर रोज़ सुलाती तनहाई
यादों की फेहरिस्त बनाती तनहाई
बीते दुःख को फिर सहलाती तनहाई
रात के पहले पहर में आती तनहाई
सुब्ह का अंतिम पहर दिखाती तनहाई
सन्नाटा रह रह कुत्ते सा भौंक रहा
शब पर अपने दांत गड़ाती तनहाई
यादों के बादल टप टप टप बरस रहे
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई
खुद से हँसना खुद से रोना बतियाना
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहाई
जीवन भर का लेखा जोखा पल भर में
रिश्तों की तारीख बताती तनहाई
सोचों के इस लम्बे सफ़र में रह रह कर
करवट करवट मन बहलाती तनहाई
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
मेरे होंठों पे तेरे ग़म के फ़साने आए
ख्वाब रूदाद तेरी जब भी सुनाने आए
मेरी रोटी का न था शहृ में कोई भी जुगाड़
अपने पुतले वो सनम सब जा लगाने आए
देवता सच के न मुहताज थे फूलों के कभी
यूं बहुत लोग यहाँ रस्म निभाने आए
इतने घर जलने पे कोई जो न रोया तो क्या
फ़र्ज़ ये चंद मगर्मछ जो निभाने आए
दांत हाथी के दो निकले हुए देखे थे मगर
आज वो खाने के सब दांत दिखाने आए
अपनी तकलीफों को अब भूल के यह रौनक देख,
देख संसद में घरानों पे घराने आए
तूने जिन हाथों को अपनी ही वसीयत दी थी
तेरी हस्ती हैं वही लोग मिटाने आए
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
टूटे हैं ज़िंदगी के मेरे ख्वाब किस कदर
अश्कों ने लिख दिया मेरा हर बाब किस कदर
जिन रास्तों से आप के घर का पता मिले
दिल को लगें वो रास्ते नायाब किस कदर
मौसम है खुशगवार मगर आप ही नहीं
ऐसे में दिल हुआ है ये बेताब किस कदर
आंखों से जो बहा तेरी फुर्कत में दफ्-अतन
खारा लगा ज़बान को वो आब किस कदर
रश्के-जनाँ ये नद्दियाँ मसरूर हैं सदा
इन से हुआ है खुशनुमा पंजाब किस कदर
ईमाँ का रास्ता जो किसी को दिखा दिया
उस आदमी का बढ़ गया सीमाब किस कदर
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
आंखों से बह रहे हैं ये जज़्बात किसलिए
ये नागहाँ बदल गए हालात किसलिए
दादा कोई दिखे तो अदब से सलाम कर
हर रोज़ भूल जाता है ये बात किस लिए (This sher is now excluded)
इन्सां हूँ हाथ पैर से तुझ सा मैं हू-ब-हू
मुझ को समझ रहा है तू कमजात किस लिए
इस सिम्त रौशनी है तो उस सिम्त तीरगी
उस सिम्त जा रहे हैं ये हज़रात किस लिए
सच के बिना भी ज़हर यहाँ पी रहे हैं लोग
तू खोजता जहाँ में है सुकरात किसलिए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
खुशियों के जश्न में भी वो आया हुआ तो है
फिलहाल अपने दर्द को भूला हुआ तो है
सीने पे मेरे हाथ रखो धड़कनें सुनो
मैंने भी एक दिल वहां रखा हुआ तो है
तनहा मैं घर में रहता हूँ कोई नहीं है साथ
इक शख्स गरचे शीशे में देखा हुआ तो है
खुल पाएगा नसीब मेरा किस को है खबर
मैंने खुदा से आप को माँगा हुआ तो है
काशाना इक हसीन हो हम तुम रहें जहाँ
इक नक्शा दिल के पन्ने पे खींचा हुआ तो है
कैसे कहें कि दूर है कितना वो कोहसार
तीशे को मैंने काँधे पे रखा हुआ तो है
उम्मीद है उसे कि रुकेगा कहीं ज़रूर
खुशियों के पीछे पीछे वो भागा हुआ तो है
देखूं मेरे हरीफ ज़रा अपनी चाल चल
मैंने भी अपनी चाल को सोचा हुआ तो है
जिस से गुज़र के आए यहाँ खुशनुमा हवा
मैंने उसी दरीचे को खोला हुआ तो है
सदियों का फर्क आ गया कल में और आज में
मौसम अगरचे आज भी भीगा हुआ तो है
मुझ को समझ के दोस्त गले से लगा है तू
अब हो न हो तुझे कोई धोखा हुआ तो है
(बहृ – मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जीवन है या ये सहरा मालूम नहीं
खुशियों पर किस का पहरा मालूम नहीं
इन रस्तों पर कौन गया हम से पहले
कौन गया परचम लहरा मालूम नहीं
दिल का दर्द सुनाएं किसको चीख के हम
सन्नाटा कितना बहरा मालूम नहीं
अचरज में है दीवारों के बीच मकीं
कौन मकां में कल ठहरा मालूम नहीं
नश्तर इक तारीकी में बस देखा था
ज़ख्म हुआ कितना गहरा मालूम नहीं
अपने तखय्युल पर ही मैं हैरान सा हूँ
जलवागर किस का चहरा मालूम नहीं
(परचम = झंडा, यास = निराशा, मकीं = मकां निवासी, नश्तर = चक्कू, तखय्युल = कल्पना, जलवागर = नज़र आता)
बहृ = (फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा : 22 22 22 22 22 2)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कैसी तहज़ीब की ये चौखट है
सब की बातों में इक बनावट है
कहकहों की अजीब फितरत है
इन में अब खौफ की मिलावट है
रास्तों पर ये कैसे मंज़र हैं
बेलिबासी में ही सजावट है
गम न कर आंसुओं के आने पर
यह तो बस दर्द की लिखावट है
खुशनुमा हो उठी है खामोशी
रात ने ली हसीन करवट है
एक परछाईं सी हिली है वहां
हाय खामोश किस की आहट है
चाँद उतरा ज़मीन पर है और
उस पे नायाब एक घूँघट है
इस से नायाब बात क्या होगी
मेरा घर और तेरी चौखट है
(तहज़ीब = सभ्यता, फितरत = प्रकृति, मंज़र = दृश्य नायाब = अनमोल)
(बहृ – फाइलातुन मफाइलुन फेलुन : 2122 1212 22)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
आएँगे जश्न और भी दिल में यकीन रख
आँखों पे एक अच्छी सी तू दूरबीन रख
खुशियों में और ग़मों में रहे दिल सदाबहार
दिल की जगह पे दोस्त न तू आबगीन रख
दिन का पता चले न खबर रात की रहे
तू खुद को अपने यार में इतना विलीन रख
रस्ते में धूप छांव तो होंगी ज़रूर यार
सिरदर्द हो तो जेब में इक डिस्पिरीन रख
बागों की सैर कर के ही मिल जाता है सुकून
नोटों की तू न ज़हन में अपने मशीन रख
((बहृ – मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जिस शहृ में मैं खुद से भी वाकिफ लगूं कभी
नक़्शे पे ऐस शहृ मैं बस खोजता रहा
ज़रदार से तो रोज़ तेरी गुफ्तगू रही
भगवन इक गरीब तुझे ढूँढता रहा
नज़्म - प्रेमचंद सहजवाला
दुनिया में यूँ तो हर किसी का साथ संग मिला
अफ़सोस सब के चेहरे पे इक ज़र्द रंग मिला
मज़हब की रौशनी से था रौशन हुआ जहाँ
मज़हब के रहनुमाओं से पर शहृ तंग मिला
सच की उड़ान जिसने भरी और उड़ चला
वो शख़्स शहादत की लिए इक उमंग मिला
कल तक गले लगा के जो करता था जाँ निसार
बातों में उसकी आज अनोखा या ढंग मिला
जिसने लिबास ओढ़ रखा था उसूल का
वो फर्द सियासत की उड़ाता पतंग मिला
सूली पे चढ़ गया कोई सच बोलकर यहाँ
तारीख़ के सफों पे इक ऐसा प्रसंग मिला
शीशे में शक्ल देख के हैराँ हुआ हूँ मैं
शीशा भी मुझे देख के किस दर्जा दंग मिला
मजनू जहाँ गया वहाँ इक भीड़ थी जमा
हाथों में सबके एक नुकीला सा संग मिला
मिलकर चले थे सबके कदम सुब्ह की तरफ
क्यों आज विरासत में ये मैदाने जंग मिला
मुंबई - प्रेमचंद सहजवाला
आंख के ख़्वाब सब बुरे हैं यहाँ,
लोग किस दर्जा सिरफिरे हैं यहाँ
ये किनारा तो समुन्दर का है पर
दिल के कुछ तंग दायरे हैं यहाँ
सिर्फ़ मरकज़ पे रौशनी क्यों है
क्योंकि गायब सभी सिरे हैं यहाँ
यह जगह इसलिए मुझे हैं पसंद
मेरे कुछ अश्क भी गिरे हैं यहाँ
एक शीशे में हैं बहुत चेहरे
दोस्त शीशे भी खुरदरे हैं यहाँ
सुब्ह तक दोनों साथ आए थे
सिर्फ़ तेरे ही दिन फिरे हैं यहाँ
ढूंढ़ते हो यहाँ पे राज कपूर
आजकल राज ठाकरे हैं यहाँ
सब सितारे हैं यहाँ ज़मानत पर
हथकड़ी में हैं ज़र्रे ज़र्रे हैं यहाँ
मौत का खेल सब ने ही खेला
चंद मुलजिम मगर घिरे हैं यहाँ
(मरकज़ – केन्द्र).
तरही ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
(नज़र में सभी की खुदा कर चले)
वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले
जब आए तुम्हारी गली से सनम
तुम्हारा तसव्वुर छुपा कर चले
यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले
किये नज्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले
बहुत बाद मुद्दत के जब तुम मिले
ये जाँ लम्से-जाँ पर लुटा कर चले
सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले
मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले
तरही ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला (incomplete)
दिखा दो आज जलवा बख्श दो दीदार चुटकी में
वगरना हैं शहादत के मेरे आसार चुटकी में
बहुत मिल जाएंगे गर ज़र के सिक्के होंगे अंटी में
बना लेंगे जहाँ भी जाएंगे हम यार चुटकी में
खरीदेंगे तुम्हारे पास हैं जो बेचने को खाब
भले तुम आँख खुलते ही पलटना यार चुटकी में
अगरचे कैस से नाता है जाने कितने जन्मों से
मोहब्बत को बना लेंगे ये सब बाज़ार चुटकी में
मुहोब्बत के फ़रिश्ते हैं यहाँ कितने बताओ तो
बना दें इश्क पर जो सैंकड़ों अशआर चुटकी में
इमारत खूबसूरत थी हसद काबिल था नक्शा पर
इमारत गिर गई तो गुम था ठेकेदार चुटकी में
मुकदमा जीतने वाला था मैं ऐलान बाकी था
अदालत में उसी दिन बम फटा था यार चुटकी में
तरही गज़ल
(अहमद फ़राज़ – दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां)
हर घड़ी आँखों में कुछ ख्वाब हैं रक्सां जानां
‘दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां’
देख ता-हद्दे-नज़र एक खला की वुसअत
हम हैं मलबूस नज़ारे हुए उरियाँ जानां
मुश्किलें लाख तेरे कूचे में आने की मगर
रास्ता तेरे तसव्वुर से है आसां जानां
गरचे तारीकियाँ अब रख्ते सफर हैं अपना
फिर भी इक शम्मा सी दिल में है दरख्शां जानां
मैकदे में हैं तेरे रिंद कतारों में खड़े
अब तो वाइज़ के भी आने के हैं इम्काँ जाना
हर तरफ सूखे शजर और ये वीरान फज़ा
मेरे गुलशन पे खिज़ां का है ये एहसां जानां
गरचे हर सिम्त खिले फूल हैं गुलशन गुलशन
इस फज़ा में हैं मेरे ज़ख्म भी पिन्हां जानां
(रक्सां = नाचता हुआ, खला = शून्य, मलबूस = वस्त्रों में, मनाज़िर = दृश्य, उरियाँ = नंगे, शजर = पेड़, तसव्वुर = काल्पनिक छवि, तारीकियाँ = अँधेरे, रख्ते-सफर = सफर का सामान, दरख्शां = प्रज्वलित, सिम्त = तरफ, पिन्हां = छुपे हुए, मैकदा = शराबखाना, रिंद – शराबी, वाइज़ = उपदेशक).
हर इक शय किस कदर लगती नई थी
हवाले जब तेरे यह ज़िंदगी थी
ज़रा सी गुफ्तगू तुम से हुई जब
मेरी राहों में मंज़िल आ बिछी थी
अँधेरा पार कर आए कदम जब
बहुत मसरूर मुझ से रौशनी थी
मैं सहरा में चला आया था जब जब
सुराबों में मची क्या खलबली थी
मैं सज धज कर वहाँ से हट गया था
मगर शीशे में परछाईं खड़ी थी
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो चाहते हैं तेरा हर गुमान छुप जाए
जहाँ में दोस्त तेरी दास्तान छुप जाए
यहाँ तो सच पे ही ऐलान कर दो बंदिश का
कहीं पे जा के तो यह बेज़ुबान छुप जाए
हमें तलाश है उस छाँव की जहाँ पर हम
जब आँख मूंदें तो सारा जहान छुप जाए
सजाया किसने है यह कायनात का गुलशन
कुछ इस तरह से कि खुद बागबान छुप जाए
जहाँ पे ज़लज़ले हों चल वहीं पे चलते हैं
ज़मीं के टुकड़ों में यह आसमान छुप जाए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कितनी करीबियों से गुज़र कर जुदा हुए
तकदीर से हम ऐसे में कितने खफा हुए
उन चीड़ के दरख्तों के साये में बैठ कर
यादों से अश्कबार भी हम बारहा हुए
थे गमज़दा धुंधलकों में तनहाइयों के पर
खुश भी तेरे ख़याल से बे-इन्तहा हुए
ऐ दिल वफ़ा के रस्मो-रिवाजों का गम न कर
रस्मो रिवाज उनकी जफा के रवा हुए
फस्ले बहार बन के जो गुलशन में आए तुम
मंज़र तुम्हारे हुस्न पे कितने फ़िदा हुए
जिन के लिये ये जान भी हाज़िर थी दम-ब-दम
वो हम-नशीन आज हैं सब नारसा हुए
कूचे में उनके पहुंचेंगे कब जाने ये कदम
तब तक तो रास्ते ही मेरे हमनवा हुए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो वादा कर के भी मिलने मुझे अक्सर नहीं आया
यकीं मुझको भी जाने क्यों कभी उस पर नहीं आया
कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया
परिंदा कोई भी ऐसा फलक छू कर नहीं आया
अदालत में गए थे ईश्वर पर फैसला सुनने
मगर अफ़सोस सब आए फकत ईश्वर नहीं आया
बहुत आई सदाएं शहृ की मेरे दरीचे से
मगर मैं हादसों के खौफ से बाहर नहीं आया
मेरी मजबूर बस्ती में सुबह सूरज उगा तो था
वो अपनी मुट्ठियों में रौशनी ले कर नहीं आया
बहुत आए हमारे गांव में सपनों के ताजिर पर
गरीबी दूर करने वाला बाज़ीगर नहीं आया
करोड़ों देवताओं के करोड़ों रूप हैं लोगो
बदल दे ज़िंदगानीजो वो मुरलीधार नहीं आया
मकानों की कतारों में गए हम दूर तक साथी
चले भी थे मुसलसल पर तुम्हारा घर नहीं आया
बहुत आवाज़ दी तुझको तेरे ही घर के बाहर से
मगर अफ़सोस तू इतनी सदाओं पर नहीं आया
गए शागिर्द सब पढ़ने मदरसा बंद था लेकिन
पढ़ाने कम पगारों पर कोई टीचर नहीं आया
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दीवाने तेरे हुस्न के मारों में खड़े हैं
तपते हुए पैरों से शरारों में खड़े हैं
तारों से फरोज़ां किये दुल्हन तेरी चूनर
हम डोली उठाए हैं कहारों में खड़े हैं
तालीम पे इस अह्द में इक आप का हक है
इस मुल्क में हम कब से गंवारों में खड़े हैं
मंदिर हो कि मस्जिद हो वहाँ जंग छिड़ी है
हिंदू ओ’ मुसलमान कतारों में खड़े हैं
सूरज लिये फिरते हैं हथेली पे जो पैहम
हम आज उन्हीं रंगे सियारों में खड़े हैं
चल चल के कदम रुकते हैं अचरज में अचानक
ये सूखे शजर कैसे बहारों में खड़े हैं
सहरा में नहीं होती किसे अब्र की चाहत
यह सोच के प्यासों की कतारों में खड़े हैं
मज़हब के सबब आप की हम से है अदावत
हम जी के भी अल्लाह के प्यारों में खड़े हैं
जिन लोगों ने राहों से बनाए थे मरासिम
मंज़िल पे वही लोग सितारों में खड़े हैं
महसूस जिन्होंने भी किया दर्द हमारा
वो आज तेरे मेरे सहारों में खड़े हैं
(शरारों = अंगारों, तालीम = शिक्षा, अहद = युग, फ़ारोज़ां = जगमगाती, पैहम = हमेशा, शजर = पेड़, सहरा = रेगिस्तान,अब्र = बादल, अदावत = दुश्मनी, मरासिम = संबंध,
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सदा दी थी बहारों को मगर आई खिज़ां क्यों है
दीवानों के लिये ये इश्क आखिर इम्तेहां क्यों है
फ़रोज़ाँ रौशनी बेइन्तहा थी जश्न जब आया
अंधेरों की तरफ ये काफिला फिर से रवां क्यों है
हमारे नाम आकाओं ने इक परवाज़ लिखी थी
मगर इस अहद में ताइर हुआ बे-आसमां क्यों है
मैं सहरा में मुसलसल चल के भी मसरूर कैसे हूँ
सराबों से मुहब्बत दोस्ती में आसमां क्यों है
कसम खा कर के सच की मैं गवाही देने आया था
मेरे माथे पे लेकिन झूठ कहने का निशाँ क्यों है
तुझे तो भूख सहने में महारत कब से हासिल है
मेरी तक़रीर सुन कर इस कदर तू बदगुमाँ क्यों है
तुम्हारी बरखिलाफी के बहुत आसार जागे हैं
मगर ला-गर्ज़ चेहरे पर तबस्सुम हुक्मरां क्यों है
उठा कर संग हाथों में निकल आए घरों से सब
हुआ कश्मीर फौजों के मुक़ाबिल नातवां क्यों है
(सदा = पुकार, खिज़ां = पतझड़, फ़ारोज़ां = जगमगाती, बेकरां = असीम, परवाज़ = उड़ान, सहरा = रेगिस्तान, मुसलसल = लगातार, मसरूर = खुश, तक़रीर = भाषण, महारत = विशेषज्ञता, बर्खिलाफी = विरोध, लगार्ज़ = बेपरवाह, तबस्सुम = मुस्कराहट, संग = पत्थर, नातवां = कमज़ोर)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
न हिन्दू की न मुस्लिम की किसी ग़लती से होता है
यहाँ दंगा सियासतदान की मर्ज़ी से होता है
ज़मीं सरमाएदारों की है या है हम किसानों की
हमारे मुल्क में ये फैसला गोली से होता है
नज़र मज़लूम ज़ालिम से मिला सकते नहीं अक्सर
शुरू ये सिलसिला शायद किसी बागी से होता है
तरक्की-याफ़्ता इस मुल्क में खुशियाँ मनाएं क्या
हमारा वास्ता तो आज भी रोज़ी से होता है
गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो वापस तो नहीं आते
मगर अहसास अश्कों का किसी चिट्ठी से होता है
कहाँ तक रौशनी जाए फलक से चाँद तारों की
ये बटवारा जहाँ में आप की मर्ज़ी से होता है
न देखा कर तू हसरत से इन ऊंचे आस्तनों को
वहां तक पहुंचना पहचान की सीढ़ी से होता है
(सियासतदान = राजनीतिज्ञ, सरमाएदार = पूंजीपति, मज़लूम = अत्याचार पीड़ित).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
किसानों को ज़मींदारों के जब ऐलां बता देंगे,
वो अपनी जान दे कर आप के कर्ज़े चुका देंगे.
परिंदे सब तुम्हारे क़ैदखाने के कफ़स में हैं,
मगर इक दिन ये तूफाँ बन के ज़िन्दाँ को उड़ा देंगे.
तुम्हारी हर हक़ीक़त राज़ के पर्दे में पिन्हाँ है
मगर कुछ सरफिरे आ कर कभी पर्दा उठा देंगे
गिरफ्तः-लब हैं हम गरचे तुम्हारे खौफ़ से अब तक
ज़बां खुलने पे इक नग्मा बगावत का भी गा देंगे.
सियासतदान नावाकिफ़ हैं सब इखलाक़ से लेकिन
कभी नेहरु कभी गाँधी सी तक़रीरें सुना देंगे
कोई मुजरिम शहर में कल ज़मानत पर नज़र आया
वो इक आला घराने का था उस को क्या सज़ा देंगे!
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जगमगाते शहृ का हर इक मकाँ ऐवाँ लगा
गरचे दिल से हर बशर बे-इन्तहा वीराँ लगा
झूठ के रस्ते रवाँ था आज सारा काफिला
सच के रस्ते जा रहा इक आदमी नादाँ लगा
सच खड़ा था कटघरे में और मुन्सिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीज़ां लगा
जिन सवालों का पता था इम्तिहाँ से पेशतर
इम्तिहाँ में बस उन्हीं का हल मुझे आसाँ लगा
इक मुलम्मा ओढ़ कर मिलते यहाँ अहबाब हैं,
मुस्कराना भी किसी का जाने क्यों एहसाँ लगा
इक बड़ा बाज़ार दुनिया बन गई है दोस्तो
दह्र के बाज़ार में इन्सां बहुत अर्ज़ां लगा
ज़िन्दगी के क़र्ज़ से था डर रहा जो बेपनाह
मौत से बेखौफ मुझ को अब वही दहकाँ लगा
दोस्त के सीने में खंजर घोंपना आसान था
दर्द सा इक बेवजह दिल में फ़कत पिन्हाँ लगा
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
शहृ में चलते हुए सब को यही लगता है क्या
कू ब कू दुश्मन कोई फिर घात में बैठा है क्या
हाथ फैला कर यहाँ पर हर कोई करता सवाल
देखना मेरी लकीरों में लिखा पैसा है क्या
कह रहा था इक सियासतदान कल तक़रीर में
मुझ से भी ज़्यादा कहो चेहरा कोई उजला है क्या
रास्तों से कह रहा था कल समुन्दर कुछ उदास
मेरी नदियों को कहीं पर आप ने देखा है क्या
पूछते थे एक दूजे से ये कुछ ख़ास आदमी
यार बतलाओ कि यह आम आदमी होता है क्या
ईश्वर भी इक बशर को देख कर हैरान था
सोचता था यह बशर खाता है क्या पीता है क्या
रूह सी कोई भटकती आज भी इंजील में
फिर कोई तालीम देना चाहता ईसा है क्या
हो गया है यह वतन भी मिस्र के बाज़ार सा
आदमी से और ज़्यादा कुछ कहो सस्ता है क्या
इश्क में बह्रे-रमल क्या और क्या बह्रे हज़ज़ ,
दर्द में कोई कहे मक़तअ है क्या मतला है क्या.
(कू ब कू = आसपास, सियासतदान = राजनीतिज्ञ, तक़रीर = भाषण, इंजील = बाईबल, बहरे-रमल, बहरे-हज़ज़ = गज़ल की बह्रें, मक़तअ = गज़ल का अंतिम शेर, मतला = गज़ल का पहला शेर).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मगरूर ये चराग दीवाने हुए हैं सब
गरचे ये आँधियों के निशाने हुए हैं सब
इक कारवां है बच्चों का पीछे पतंग के
उड़ती हुई खुशी के दीवाने हुए हैं सब
पंछी घरों की सिम्त उड़े जा रहे हैं देख
कल फिर उड़ान भरने की ठाने हुए हैं सब
फुटपाथ हों या बाग-बगीचे हों शहृ के
लावारिसों के आज ठिकाने हुए हैं सब
मत कर हिरासाँ कश्मकश-ए-इश्क यूं मुझे
मुश्किल किताबों के वो फ़साने हुए हैं सब
लुक छुप सी छत पे कर रहा है चाँद बार बार
बादल भी ढीठ कितने न जाने हुए हैं सब
(सिम्त = तरफ, हिरासाँ = भयभीत)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार
तनहाइयों ने बांहों में ले कर लिया उबार
चलती है दिल पे कैसी तो इक तेज़ सी कटार
डोली उठा के जाते हैं जब भी कोई कहार
दिन भर चले तो रात को आ कर के सो गए
फिर नींद की पनाहों में सपने सजे हज़ार
कितनी कशिश भरी है ये अनजान सी डगर
मिलता है हर दरख़्त के साए से तेरा प्यार
मौसम बदल बदल के ही आते हैं बाग में
आई है अब खिजां को बताने यही बहार
वादों पे जीते जीते हुई उम्र अब तमाम
अब कौन कर सकेगा हसीनों का एतबार
साकी की दीद करने को हम भी चले गए
रिन्दों की मैकदे में लगी जिस घड़ी कतार
साधू भी रंग गए हैं सियासत के रंग में
वादों से मोक्ष होगा ओ तक़रीर की जुनार
दिल को लगाने वाले मनाज़िर चले गए *
अब तो फकत बचे हैं ये उजड़े हुए दयार
नासेह दे गए हैं दीवानों को ये सबक
अब कोई चारासाज़ है कोई न गमगुसार **
(* ज़फर के प्रति श्रद्धांजलि सहित ** ग़ालिब के प्रति श्रद्धांजलि सहित)
(मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफर आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खुद को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी नज़र आती है रुख पर उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ रखो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
(फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ज़रा सी बात पे हो जाते हैं खफा कुछ लोग
कभी जो होते थे अपने भी हमनवा कुछ लोग
शजर की छांव में बैठे तो गुफ्तगू कर ली
अगरचे धूप में रखते हैं फासला कुछ लोग
वो कोई शैख़ हो या बिरहमन कि हो नासेह
न जाने इश्क को कहते हैं ‘क्या बला’ कुछ लोग
ये रास्ते हैं दरख्तों की छांव से भरपूर
इन्हीं से लेते हैं मंज़िल का भी पता कुछ लोग
न कोई अपनी खुशी और न कोई गम अपना
वतन की राह पे हो जाते हैं फ़ना कुछ लोग
हम उनकी बज़्म में जाने के ख्वाब देखते हैं
हमें दिखाते हैं तब आ के आईना कुछ लोग
हमारे शहृ में सब लोग बेमुरव्वत हैं
अगरचे देते हैं पैगाम प्यार का कुछ लोग
कभी तो करते हैं वो जां निसार की बातें
मुलम्मा रुख पे चढाते हैं बारहा कुछ लोग
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा
कामयाबी का कहीं पर तो शिखर आएगा
इस समुन्दर में कभी दिल का नगर आएगा
मेरी मुट्ठी में भी उल्फत का गुहर आएगा
अपने पंखों को ज़रा तोल के देखो ताइर
आस्माँ गुफ्तगू करने को उतर आएगा
चमचमा देता है आईने को किस दर्जा तू
जैसे इस तर्ह तेरा चेहरा निखर आएगा
आज इस शहृ में पहुंचे हैं तो रुक जाते हैं
होंगे रुख्सत तो नया एक सफ़र आएगा
चिलचिलाहट भरी इस धूप में चलते चलते
जाने कब छांव घनी देता शजर आएगा
अपना सर सजदे में उस दर पे मुसलसल रख दे
इक न इक तो इबादत में असर आएगा
(गुहर = मोती, ताइर = पंछी, रुख्सत = विदा, शजर = वृक्ष मुसलसल = लगातार)
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं
शजर काँटों से रहता है भरा यह किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं
ज़बाँ तक आते आते सच, निकलता झूठ है आखिर
ख़याल ऐसे समय इखलाक के झिंझोड़ जाते हैं
मरासिम तोड़ना तो दोस्त फितरत है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
सियासत के परिंदे हैं ये दहशतगर्द दीवाने
इशारे पर किसी के शह्र में बम छोड़ जाते हैं
ए कान्हां जी बिगाड़ा आप का मैंने है क्या आखिर
जो आकर रोज़ मेरी आप मटकी फोड़ जाते हैं.
(सराब = रेगिस्तान में जहाँ पानी का भ्रम होता है, शजर = पेड़, इखलाक = नैतिकता, मरासिम = रिश्ता, फितरत = स्वाभाव, सियासत = राजनीति, दहशतगर्द = आतंकवादी).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सरहद के पार से थी इधर आई दूर तक
दहशत से ये फज़ा थी सिहर आई दूर तक
खुशहाल से थे यूं तो मनाज़िर वतन के फिर
अफसुर्दगी सी कैसी नज़र आई दूर तक
ज़ुल्मतज़दः सी शब में थे गल्तान पर तभी
हर सिम्त कैसे सुब्ह निखर आई दूर तक
हैं अब्र आसमाँ में बरसते अभी अभी
फिर नागहाँ है धूप पसर आई दूर तक
मंज़िल का कुछ ख़याल न था ख़्वाब ही कोई
पर पांव गुदगुदाती डगर आई दूर तक
गर्दिश में जब भी दीद मसीहा ने दी मुझे
इक रौशनी सी कैसी बिखर आई दूर तक
जिस लम्हा बाम पर हुए महबूब जलवागर
तब चांदनी ज़मीं पे उतर आई दूर तक
गरकाब दो दीवाने थे गिर्दाबे-इश्क़ में
साहिल पे एक भीड़ उभर आई दूर तक
(अफसुर्दगी = उदासी, मनाज़िर = नज़ारे , ज़ुल्मतज़दा = अँधेरी, शब = रात, सिम्त = तरफ, अब्र = बादल, नागहाँ = अचानक, बाम = छत, गरकाब = गुम, गिर्दाब = भंवर)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मैं अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से कितना रहा पशेमाँ हूँ
कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब बताते हैं सब यह कि मैं मुसलमाँ हूँ
जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ
शहर में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ
हरेक शख्स के मज़हब से मुझ को उल्फत है
अगरचे खिर्दमंद कहते हैं मैं नादाँ हूँ
धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस दर्जा तो परेशाँ हूँ
लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे सदियों से मैं तो हैराँ हूँ
खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दिल ने तन्हाई के लम्हात चुगे थे दिन भर
और आँखों में मेरी अश्क छुपे थे दिन भर
मौलवी थे वो तपस्या में रहे थे दिन भर
उन की चौखट पे कई लोग रुके थे दिन भर
प्यार इस शहृ में इक शख्स था कल बाँट रहा
उस के क़दमों में बहुत लोग गिरे थे दिन भर
शब के आगोश में बेसुध से गिरे जिस लम्हा
सिर्फ इस बात पे खुश थे कि चले थे दिन भर
कोई सीने से लगा और कोई बेगानावार
थी तसल्ली कि कुछ अफराद मिले थे दिन भर
जश्न तो आया मगर दिल को दरीदः कर के
सब इसी बात पे अफ़सोस किये थे दिन भर
उन को मज़हब का जुनूँ था कि सियासत की लगन
हमने जलते वे मकानात गिने थे दिन भर
हम सुखनवर तो नहीं थे कोई ग़ालिब जैसे
बस खयालात ही कागज़ पे लिखे थे दिन भर
(अफराद= लोग, दरीदः कर के = चीर कर) (बह्र = फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
दुनिया में जो भी आए, तारीख़ को बनाने
अब गुमशुदा हैं लोगो, उनके पते ठिकाने
साज़िश से बेख़बर थे, सब शहर के मसीहा
घर जल गया तो सारे, निकले कुएँ बनाने
अनजान सो रहे हैं, सब वारिसे-वसीयत
बहरूपिये चले हैं, अब मिल्क़ियत भुनाने
साहिल पे भीड़ थी और, था डूबने को कोई
मैं भी चला गया फ़िर, उस भीड़ को बढ़ाने
हैराँ थे लोग सारे, क़ातिल की देख जुर्रत
क़ातिल वहीं खड़ा था, मकतूल के सिरहाने
लो इंतेखाब आए, अपने वतन में लोगो
कुछ लोग आ रहे हैं सपने नए दिखाने
(मकतूल = जिस का क़त्ल हुआ हो, इंतेखाब = चुनाव, वारिसे-वसीयत = वसीयत के उत्तराधिकारी).
बह्र - मफ़ऊल फाइलातुन मफ़ऊल फाइलातुन
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलोगे जब भी तुम होंठों पे शिकवे और गिले होंगे
इन आँखों में मुसलसल आंसुओं के सिलसिले होंगे
हवाएं जिस तरफ से खुशनुमा आ जा रही होंगी
वहीं मंज़िल तरफ जाते हुए कुछ काफिले होंगे
पता था क्या तुम्हारी बज़्म में आएँगे हम जब भी
तुम्हारे हुस्न के चौगिर्द पहरों के किले होंगे
खिज़ां गम की चली जाएगी इक दिन वक्त आने दे
इसी गुलशन में अनगिन फूल खुशियों के खिले होंगे
खुदा का शुक्र है अब रहनुमा जाएंगे दौरे पर
जहाँ सैलाब में डूबे हुए अनगिन ज़िले होंगे
जहाँ पर कोहकन शीरीं की उल्फत में गया था कल
वहीं पर देखना अब भी हज़ारों दिल मिले होंगे
(मुसलसल = लगातार, खिज़ां = पतझड़, सैलाब = बाढ़ , कोहकन = फरहाद).(बहृ – मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
तुम्हारे और मेरे बीच फासले तो हैं
मगर खुशी है कि मिलने के सिलसिले तो हैं
चलोगे साथ तो हम भी कदम बढ़ाएंगे
ये और बात है उल्फत में मरहले तो हैं
अगरचे गाहे-ब-गाहे कहीं गिरेंगे ज़रूर
ज़हन में थोड़े से मज़बूत फैसले तो हैं
गुरूर कर न फलक-बोस आशियाने का
ज़मीं की कोख में थोड़े से ज़लज़ले तो हैं
शजर हूँ तनहा मगर ये खुशी भी क्या कम है
मेरे वजूद पे थोड़े से घोंसले तो हैं
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
किसी को अम्न की थोड़ी सी इल्तिजा है क्या
तुम्हारे पास मेरे दर्द की दवा है क्या
तुम्हारे शहृ की परछाईयाँ फज़ा में हैं
तुम्हारे शहृ कोई हादसा हुआ है क्या
जवां के काँधे पे मज़हब का इक तमंचा है
वो जानता नहीं भगवान क्या खुदा है क्या
धुआँ उड़ा तो मैं हैराँ था देख तसवीरें
हलाक लोगों में चेहरा मेरा छुपा है क्या
अदू की जीत हुई जंग में न जाने क्यों
कमर न कसना भी कोई बड़ी खता है क्या
ख़बर सुनी तो बहुत लोग हड़बड़ाने लगे
ये देखना कोई अपना हुआ फ़ना है क्या
(अर्थ - अम्न = शान्ति, हलाक = मृत, उदू = दुश्मन, फ़ना = मृत)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
हो गए हैं आप की बातों के सब मुफलिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रौशनी दे कर मसीहा ने चुनी हंस कर सलीब
रौशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िंदगी की सुब्हो-शाम
ज़िंदगी पर फिर रहा कोई न अपना अख्तियार
मिल नहीं पाते शहर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में कभी रूदादे-उल्फत थी लिखी
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे
सारी मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ
और समुन्दर में सभी नदियों के शामिल आब थे
कुछ कदम चलना था तुझ को कुछ कदम फिर मैं चला
सामने फिर डूबने को इश्क के गिर्दाब थे
सुब्ह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे
शहृ जब पहुंचे तो खुश थे फिर अचानक क्या हुआ
हादसों के सिलसिलों में हम सभी गरकाब थे
मंज़िलों के सब मसीहा मील पत्थर बन गए
वो शहादत के फलक पर जलवागर महताब थे
ईद पर जब चाँद निकला सब सितारे खुश हुए
कर रहे फिर एक दूजे को सभी आदाब थे
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गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में लो अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रौशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब का ही रौशनी से मरासिम है दोस्तो
जलते चराग हों कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र न देख तू
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब?
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा तुझे तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गई बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इंतेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सुब्ह तक तो हमकदम हो कर सभी चलते रहे
ख्वाब तेरी और मेरी आँखों में पलते रहे
एक परचम ता-फ़लक लहरा गया जब शान से
दीप खुशियों के करोड़ों रात भर जलते रहे
जब मसीहा को मिली सूली बहाए अश्क तब
सच नहीं यह बात कह कर ख़ुद को ख़ुद छलते रहे
मज़हबों में भी न जाने बात क्या है दोस्तो
पत्थरों की छांव में सब फूलते फलते रहे
ये न सोचो राह कितनी दूर तक आए हैं हम
रोज़ सूरज सुब्ह आकर शाम को ढलते रहे
शहृ सा ये शोर कैसा आ गया है गांव में
खेत और खलिहान उनकी आँखों में खलते रहे
कैस अब लैला के आगे इस लिए है शर्मसार
चाँद तारे तोड़ने के फैसले टलते रहे
देवता मुझ को बचाने जब तलक आए कोई
कारवां लुटने लगा और हाथ सब मलते रहे
खून था या ये पसीना कुछ पता चलता नहीं
यार इंसानों के पैकर किस कदर गलते रहे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
एक छोटी बात कोई आ के समझाना मुझे
मुल्क और दर्दे-चमन में फर्क बतलाना मुझे
दर्द मेरा जानने मोटर में आए मेहरबाँ
आज उन के घर तलक पैदल पड़ा आना मुझे
जब कड़ी सी धूप के दिन अलविदा देने लगे
दोस्तो अच्छा लगा बादल का तब छाना मुझे
कह रहा था कल नुमाइंदा ये मेरे शहृ का
खूब आता है सितारे तोड़ कर लाना मुझे
मुल्क की हालत पे लिख डाली उन्होंने इक किताब
उस के पन्नों पर कहीं सच हो तो पढ़वाना मुझे
आस्मां को छू रहे हैं दाम हर इक शय के अब
कोई ला कर दे कहीं से सिर्फ़ इक दाना मुझे
हर घड़ी नगमे खिजां के गा रहा हूँ आजकल
फस्ले-गुल का भी सिखा दो गीत तुम गाना मुझे
क्यों करोड़ों लोग आए हैं वहाँ मैदान में
मेरी हस्ती चाहता है कौन बतलाना मुझे
सनसनी बिकती है दुनिया के बड़े बाज़ार में
मेरी भी जब हो शहादत दोस्त बिकवाना मुझे
ग़ज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो खुदा से भी न डरता था वो इक फौलाद था
लोग कहते हैं कि वो हिटलर की इक औलाद था
ईश्वर चौराहे पर कल कर रहा तक़रीर था
मेरी तकलीफों को ले कर जाने क्यों नाशाद था
जो पहाडों की तरफ़ जाता मिला था सैर को
वो नहीं था यार ये तो और कोई फरहाद था
इश्क के बारे में उस को कुछ पता तो था नहीं
शायरों से बोलता बस लफ्ज़ इक इरशाद था
मिलकियत घर में करोड़ों क्यों न रक्खे हुक्मरां
मुफलिसी की मुल्क में करता रहा इमदाद था
प्यार करने की तो उसको छूट पहले ही से थी
कत्ल महबूबा का करने को भी वो आज़ाद था
खेलने में खूब है वो मस्त सुंदर बालिका
चुस्त कपडों पर छिड़ा क्यों उस के वाद विवाद था
खूब किस्से और कहानी लिखने में माहिर है वो
सिर्फ़ लिख पाता नहीं तेरी मेरी रूदाद था
कामयाबी मिल गयी आख़िर उसी दह्कान को
रोज़ मरने के तरीके कर रहा ईजाद था
देवता लाखों करोड़ों देख कर हैरां था वो
गिन नहीं पाता कभी इन की मगर तादाद था
घर जला सकता था सब के एक ही आवाज़ में
अपने मज़हब का वो इक माना हुआ जल्लाद था
भूख से बेहाल हो कर जब मैं बुतखाने गया
पत्थरों के पांव में रक्खा हुआ परसाद था
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ख्वाब देखो किस कदर थे तेरे मेरे मिल रहे
रौशनी बोई मगर क्यों हैं अंधेरे मिल रहे
चल पड़े थे चांदनी ले कर के झोली में सभी
राह में किस दर्जा सब को हैं लुटेरे मिल रहे
बाँट ली थी ठोकरें और रास्ते की धूप तक
अब मगर तनहाइयों में हैं बसेरे मिल रहे
रात भर ये सोचते थे सुब्ह आएगी ज़रूर
कालिमा की कैद में हैं अब सवेरे मिल रहे
देवता ने दे दिये वरदान बिन मांगे सभी
आज लेकिन देवता को दुःख घनेरे मिल रहे
देख कर तपती ज़मीं रह रह के आता है ख़याल
आसमाँ की गोद में बादल घनेरे मिल रहे
इक सुरीली तान के वश में हुए हैं क्यों सभी
बीन सी कोई बजाते हैं सपेरे मिल रहे
एक शीशे में सभी ने अक्स देखा खुश हुए
कांच के टुकड़े ज़मीं पर अब बिखेरे मिल रहे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
हरेक राह नज़र आते राह्बर क्यों हैं
ज़मीं पे इतने गरीबों के मोतबर क्यों हैं
तुम्हारे शहृ का हर बाग़ लहलहाता है
हमारे गांव के सूखे हुए शजर क्यों हैं
उड़ान तय हुई थी आसमाँ तलक लेकिन
यहाँ परिंदों के कटते हुए ये पर क्यों हैं
तुम्हीं से हम को खुदा बेपनाह मुहब्बत है
हमारी आहें भला फिर भी बे असर क्यों हैं
नहीं थे ख्वाब कभी दह्शतों के आँखों में
वतन के नक्शे पे उजड़े हुए नगर क्यों हैं
हुई है रात जवाँ पांव थरथराने लगे
ये लोग नाचते यूँ रात रात भर क्यों हैं
कोई चमकता सा मंज़र नज़र नहीं आता
ये मेरी ऑंखें हुई ऐसी कमनज़र क्यों हैं
(राहबर = मार्गदर्शक, मोतबर = विश्वसनीय, शजर = पेड़, दहशत = आतंक, मंज़र = दृश्य)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
इस शहृ में कहाँ रहूँ लोगो बताओ तो
दीवारो दर वो तोड़ गए हैं मकान के
दे कर ज़मीन घूम रहा कार में वो अब
इस गांव में बदल गए हैं दिन किसान के
हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के
मनसूबे किस को हैं यहाँ हाकिम बनाने के
दरवाज़े बंद कर दिए सब ने दुकान के
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
गज़ल – (गुजरात 2002 में हुई नृशंस मुस्लिम हत्याओं पर)
हुई है दोस्तो तकरार मज़हबों में अब
घरौंदे देख लो उन के इन्हें जलाने तक
गिरा हुआ है बहुत खून अब भी मकतल पर
खुली है आँख ये मेरे गवाह आने तक
कफस में कैद है बुलबुल बहुत से हैं सैय्याद
कोई न आएगा अब छटपटाते जाने तक
मिली है जिंदगी रिश्वत में हुक्मरां से मुझे
रहेंगे जिंदा कभी मौत के बुलाने तक
जला के जिस्म मेरा मुस्करा रहा है कोई
रुका हुआ है मेरी रूह को मिटाने तक
चमक है चेहरे पे जल्लाद के गुरूर भरी
सुनहले वर्क में तारिख को बनाने तक
लगा है ज़ख्म मसीहा को आज सूली पर
सदी भी कम है किसी घाव को भुलाने तक
(तकरार = लड़ाई, मज़हब = धर्म, मकतल = वधस्थल, कफस = पिंजरा, सैय्याद = पंछी पकड़ने वाले, रूह = आत्मा, वर्क = पृष्ठ, तारीख = इतिहास..
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रास्तों से गपगपाते चल दिये
बारहा ठोकर भी खाते चल दिये
हमसफ़र कोई मिला तो खुश हुए
राग उल्फत के सुनाते चल दिये
वक़्त जब बोला कि मंज़िल दूर है
बेवजह हम खिलखिलाते चल दिये
गर्मियों में छांव में बैठे कहीं
सर्द रुत में थरथराते चल दिये
हर हकीक़त से गले मिलते रहे
ख़्वाब से भी तो निभाते चल दिये
हाथ में परचम तमन्ना के लिए
ये कदम आगे बढाते चल दिये
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कल हुई दहशत ने मारे थे बहुत
जो गए, वो लोग प्यारे थे बहुत
जिस जगह पर कल धुआँ उठने लगा
घर वहाँ मेरे तुम्हारे थे बहुत
दोस्तों के और अज़ीज़ों के लिए
लोग वो सच्चे सहारे थे बहुत
धूप मीठा खिलखिलाती थी मगर
छा गए फिर मेघ कारे थे बहुत
यक-ब-यक बस्ती धुएँ से भर गई
लोग कितना डर के मारे थे बहुत
कुछ नहीं मेरा तुम्हारा ये कुसूर
अश्क तो सदियों से खारे थे बहुत
(अर्थ: दहशत = आतंक , यक-ब-यक = अचानक).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
किस के दिल में दर्द कितना है निहाँ
दे सके तो दे कोई ये इम्तिहाँ
हम मसीहा हो गए सब नातवाँ
मिट गए हैं तेरे क़दमों के निशाँ
ज़लज़लों की हो गई है इन्तिहा
ये हवा किस तर्फ होगी अब रवाँ
सब रसूलों में बहुत तकरार है,
टूट जाएगा किसी दिन ये मकाँ
आँख मेरी क्या हुआ यह यक-ब-यक
बर्क़ सी दिखने लगी है कहकशाँ
बो रहे थे कल तलक जो खुशबुएँ
आज वो तामीर करते है धुआँ
मुझ पे रंजीदा हुआ भगवान क्यों
पूछता है अपने रब से मुस्लिमाँ
(अर्थ - निहाँ = छुपा हुआ, नातवाँ = कमज़ोर, ज़लज़ला = भूकंप, इन्तिहा = हद, रवाँ = प्रवाहित, रसूल = अवतार पैगम्बर, यक-ब-यक = अचानक, बर्क़ = बिजली, कहकशाँ = आकाश में सितारों भरा रास्ता, तामीर = निर्माण, रंजीदा- नाराज़).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
शहर में मौत पे अफ़सोस करने आया था,
वो कौन शख्स था जो दर्द पढ़ने आया था.
जहाँ पे आज धमाका हुआ था शाम ढले
वहीं पे कल ही तो मैं सैर करने आया था.
यहीं पे पहली मुलाक़ात में मिला था मुझे
यहीं पे आज वो सब से बिछड़ने आया था.
बहुत हसीन था वो लाजवाब सूरत थी
कफ़न के कपड़ों में वो अब सँवरने आया था.
बहुत बयान दिए हुक्मराँ ने मकतल पर
वो इक विमान से तफ्तीश करने आया था.
तुम इस तरह मुझे मुजरिम समझ के मत देखो,
मैं अपने दीन पे ही जीने मरने आया था.
(पैरहन = वस्त्र, मकतल = वधस्थल, तफ्तीश = जांच
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ख्वाब मेरी आँखों को बस खुशनुमा देते रहें,
रोज़ तकरीरें मुझे ऐ मेहरबाँ देते रहें
सारी खुशबू आपकी और खार हों मेरे सभी
और कितने इश्क के हम इम्तिहाँ देते रहें
मुजरिमों में नाम कितना भी हो शामिल आपका
आप अपनी बेगुनाही के बयां देते रहें
देनदारों के न कर्जे अब चुका पाएंगे हम
बा-खुशी कुर्बानियां अपनी किसाँ देते रहें
आ गयी है सल्तनत फौलाद की अब गांव में
या ज़मीं दे दें इन्हें या अपनी जाँ देते रहें
कायदों का मैं नहीं हों कायदे मेरे गुलाम
फलसफा ये मुन्सिफों को हुक्मराँ देते रहें
(फलसफा = दर्शन, philosopy, मुंसिफ = जज तकरीरें = वक्तव्य, speeches
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
मेरे हिस्से में ये टूटा हुआ अंजुम क्यों है
मेरी सब रौशनी तरीकियों में गुम क्यों है
बेरुख़ी तेरी बुरी क्यों नहीं लगती हमको
पुरकशिश दर्द में इस दर्जा तरन्नुम क्यों है
यूँ तो रौनक़ है बहुत चार सू मेरे लेकिन
हाले-दिल हो गया इतना मेरा गुमसुम क्यों है
तुम से उम्मीदे-मुहब्बत तो नहीं है मुझ को
फिर भी यह दिल में उमड़ता सा तलातुम क्यों है
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जब कभी मौजें समुन्दर की करेंगी इन्किलाब
मांग लेंगी सब तेरे आमाल का तुझ से हिसाब
खेलने वाले हुए हैं आज दुनिया के नवाब
पढ़ने-लिखने वाले दिखते हैं ज़माने को खराब
एक लम्हा ज्यों सदी और इक सदी जैसे कि पल
कौन समझेगा यहाँ अब वस्लो- फुरकत के हिसाब
जब कभी माज़ी ने पूछे दिल से कुछ मुश्किल सवाल
तब ज़माने-हाल ने ही दे दिए आसां जवाब
बैठ कर फुर्कत के सिरहाने सुलगती रात में
पढ़ रहे हैं वस्ल के ख्वाबों की इक सुन्दर किताब
(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सब मनाज़िर हैं फज़ा के यूं निखर आए यहाँ
चाँद आ कर सिर्फ अपनी ज़ुल्फ़ बिखराए यहाँ
हर हवा का रुख बताया है यहाँ किस फर्द ने
और रफ्तारे-हवा भी कौन बतलाए यहाँ
शब की तारीकी में आँखें बंद थी बस ख्वाब थे
दिन उगे ताबीर आ कर कौन समझाए यहाँ
ज़िंदागानी की बका पर कौन कर पाया यकीं
जाने कब दस्तक फ़ना की दोस्त आ जाए यहाँ
कारवां में सब अकेले कारवां फिर भी है साथ
दोस्तो अब कौन इस उलझन को सुलझाए यहाँ
चुग गई है खेत जाने कितने चिड़िया वक्त की
फिर भी कितने लोग हैं जो पहले पछताए यहाँ
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कर नहीं पाते हैं क्यों अम्नो-अमां का एहतराम
सरहदों पर है फकत बारूद का क्यों इंतज़ाम
खत नहीं आते मगर खत की बनी रहती उमीद
ज़िन्दगी यूं काश उम्मीदों में हो जाए तमाम
कौन बच पाया यहाँ पर ज़र ज़मीं ज़न से कहो
वो बिरहमन हो कोई या शैख हो या हो इमाम
आग नफरत की लगाई तूने सारे शहृ में
कर रहा है अब शहीदों को सियासतदाँ सलाम
औरतों का हक दिलाने औरतें आगे बढ़ी
चल पड़ी है रास्तों पर इक हवा सी खुश-खिराम
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
राह जब क़दमों ने चुन ली राह की तासीर क्या
धूप हो या हों शजर हाथों लिखी तहरीर क्या
मुफलिसों में भी हैं अव्वल और ज़रदारों में भी
दोस्तो इस मुल्क की दुनिया में हो तस्वीर क्या
ख्वाब आँखों से बुनो तो ख्वाब को अंजाम दो
बिन किये कुछ सोचते हो ख्वाब की ताबीर क्या
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
चलो माज़ी के अंधियारों में थोड़ी रौशनी कर लें
चलो यादों के दीपों से दरख्शां ज़िन्दगी कर लें
मेरे महबूब तेरी दीद होगी फिर न जाने कब
तुम्हारी राह पर बैठे ज़रा हम शायरी कर लें
तुम्हारे हुस्न को माबूद कर के बन गए काफिर
तुम्हारे आस्तां पर रख के सर अब बंदगी कर लें
समुन्दर अपनी जा पर करते रहियो देवताई बस
तेरे क़दमों को अर्पित शहृ जब तक हर नदी कर ले
नदी पर जंग क्यों है किसलिए है आब पर फितना
मुहब्बत की नदी में मिल के आओ खुदकशी कर लें
(माज़ी = अतीत, फरोजाँ = प्रज्वलित, माबूद = पूज्य, आस्तां = चौखट, आब = पानी, फितना = झगड़ा).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलने की रस्म यूं तो हमेशा वही रही
तेरी नज़र न जाने मगर क्यों फिरी रही
नाराज़ रहते हैं मेरे अहबाब किसलिए
उन को सलाम करने में अक्सर कमी रही
जीते हैं और लोग भी अपनी तरह यहाँ
अपनी ही सिर्फ ऐसी नहीं ज़िन्दगी रही
गम को तो कर चले थे निहां दिल में हर जगह
चेहरे पे सिर्फ थोड़ी अयाँ बेबसी रही
बस्ती से भीड़ अपने घरों को हुई रवां
फिर भी फज़ा गुबार से दिन भर सनी रही
मिलते हैं रोज़ उफक पे ज़मीं और आसमाँ
सहरा में ये नज़र भी वहीं पर टिकी रही
गर्दन भले ही भूल से कुछ उठ गई हो पर
दस्तार फिर भी अपनी ज़मीं पर गिरी रही
मकतल से लाश ले गए क़ानूनदाँ मगर
पूरे नगर में छाई हुई सनसनी रही
(अहबाब = दोस्त (plural), मुफलिस = गरीब, निहां = छुपी हुई, जा-ब-जा = जगह जगह, अयाँ = ज़ाहिर).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दो जिस्म एक जान का मंज़र ही हट गया
मिलते थे जिस के साए में वो पेड़ कट गया
वादा किया था बरसूंगा तेरी ही छत पे मैं
आई हवा तो वादे से बादल पलट गया
किरनों से खेल खेल के दिन हो गया तमाम
देखो उफक की गोद में सूरज सिमट गया
रंजिश जो सारी भूल के मिलने को आए वो
तब फासला दिलों का मुहोब्बत से घट गया
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों का एक सहरा है हर सिम्त बेकराँ
ये शहृ है कि तिशनालबों का है कारवां
सैयाद के कफस में है मजबूर सिर्फ वो
परवाज़ तो परिंदे के पंखों में है निहां
धरती को कैसे बाँट दिया है जहान ने
खाता है खौफ कैसे तो यह देख आसमां
रस्ते पे चलने फिरने का उस्लूब और है
बेटी हुई है जब से मेरी दोस्तो जवां
बेटी को खुशनुमा सी हवाएं नसीब कर
पंखों से नाप डालेगी बेटी ये आसमां
कहती है जिंदगानी है इक इम्तिहान माँ
ससुराल का नहीं मगर आसान इम्तिहां
(बेकराँ = असीम, तिशना-लब = प्यासे, सैयाद = पंछी पकड़ने वाले, कफस = पिंजरा, निहां = छुपी हुई, उस्लूब = Style, शैली).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ये खाली खाली दिन तेरे पैगाम के बिना
सागर हो जैसे हाथ में पर जाम के बिना
राधा सकी न नाच कभी श्याम के बिना
होती रुबाई क्या भला खय्याम के बिना
फस्ले-बहार जाने पे आए न क्यों खिज़ां
कैसे किताब हो कोई अंजाम के बिना
पूछा शजर ने तेशे से कटने पे यह सवाल
क्योंकर सज़ा मिली मुझे इलज़ाम के बिना
जिनको किया गया है खिरद की कफस में कैद
दीवारें उन दिलों की हैं असनाम के बिना
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में लो अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रोशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब के ही रौशनी से मरासिम हैं दोस्तो
जलते चराग हों कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र न देख तू
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा कभी तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गई बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इन्तेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फ़ना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जिस्म तो दोनों लिपट कर के सरे आम मिले
खुश्क आँखों से मगर अश्क भी बहते कैसे
सारी खुशबू तो खिज़ां लूट गई कब जाने
गुल यह मेआरे-अदावत भी समझते कैसे
जब भी तूफान समुन्दर से शहर में आया
शहृ के लोग संभलते तो संभलते कैसे
दिल के तालाब में यादों के कँवल खिलते हैं
वर्ना ये कोह से दिन रात गुज़रते कैसे
बाइसे खौफ है धड़कन में बला की तेज़ी
शहृ में लोगों के दिल वर्ना धड़कते कैसे
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
गुफ्तगू के सभी दरवाजे खुले हैं फिर भी
आप खामोश बहुत रोज़ रहे हैं फिर भी
बाग के चेहरे पे शिकवा-ए- खिज़ां यूं तो नहीं
दिल में उम्मीदे-बहारां के दिये हैं फिर भी
आसमां यूं तो बुलंदी पे अज़ल से ही है
उस के बादल तो ज़मीं पर ही झुके हैं फिर भी
कोई मरहूम मेरा सानिहे में अपना न था
मेरी आँखों से बहुत अश्क गिरे हैं फिर भी
मैं तो सहरा में भी चलता रहा तनहा तनहा
जेब में दोस्तों-यारों के पते हैं फिर भी
फर्क क्या पड़ता है दुश्मन हो या तुम दोस्त मेरे
हाथ तो मेरे दुआ को ही उठे हैं फिर भी
अपने पांवों से ही हर गाम किया तय हमने
साथ चलने को बहुत लोग चले हैं, फिर भी
(खिजां = पतझड़, बुलंदी = ऊंचाई, मरहूम = मृत, गाम = कदम)
(बहृ – फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
बेगानगी की कौन सी मंज़िल पे आए हैं
खुद अपनी शक्ल से हुए कितने पराए हैं
कहने लगा फलक से समुन्दर गुरूर में
तेरी तरफ ये अब्र तो मैं ने उड़ाए हैं
नदियों से पूछ पाया न सागर कभी ये बात
रस्तों पे किसने कितने खज़ाने लुटाए हैं
खुशबू में आ गया है यह कैसा तो इन्कलाब
बन कर बहार आप चमन में जब आए हैं
वो चंद पल जो आप मुक़ाबिल रहे मेरे
उन्वान मेरी ज़ीस्त का बन कर के आए हैं
बहती हुई नदी के है ये ज़हन में ख़याल
वो इन्तज़ार में मेरे पलकें बिछाए हैं
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जब भी नज़रों के तेरी तीर कमाँ तक आए
तेरे शैदाई शहादत को यहाँ तक आए
इक मसर्रत से चले दर्दे-निहां तक आए
बेवजह इश्क में हम सूदो-ज़ियां तक आए
किस्सा कोताह यही है तेरे दीवानों का
इक हकीकत से चले और गुमाँ तक आए
फस्ले-गुल हो गई रुखसत ये तभी इल्म हुआ
यक-ब-यक पाँव ये जब मेरे खिजां तक आए
आशियाने हुए आतिश के हवाले तब ही
रहनुमा चल के सभी उजड़े जहाँ तक आए
तेरे परवानों की फितरत है कि खामोश रहें
दिल के अरमान भला कब थे ज़बां तक आए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
आने पे तेरे शहृ में दिल को खुशी हुई
आँखों को तेरी दीद की उम्मीद सी हुई
धरती ने भेजा अब्र को सू-ए-फलक मगर
उस के नसीब में तो यही तिश्नगी हुई
मेरे ही खून को मेरा दुश्मन बना दिया
तुम ही कहो ये कैसी भला रहबरी हुई
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
निजात उन के गम से दिला दे हमें
मुदावा कोई अब बता दे हमें
बहुत दूर तक आ चुका कारवां
न अब ऐ गुज़श्ता सदा दे हमें
तेरे आस्तां पर रहेगा ये सर
नज़र से अगरचे गिरा दे हमें
जो गम हों तो करते हो कैसे गलत
ए वाइज़ बस इतना बता दे हमें
फरोजां रहेंगे चरगाने-याद,
भले दिल से अपने भुला दे हमें
(बह्र – फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फऊ)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों को तोड़ कर जो अचानक चले गए
दिल में उन्हीं को पा के मैं हैरां हुआ बहुत
मेहनत के बाद बैठे थे जब इम्तिहान में
मुश्किल सा हर सवाल भी आसां हुआ बहुत
बस्ती में जब धुंआ उठा आई थी इक खबर
सुन कर हरेक शख्स हिरासाँ हुआ बहुत
जब झूठ पर तेरे न यकीं कर सका अवाम
किस दर्जा रहनुमा तू परेशां हुआ बहुत
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
सराबों में जो दिन जिये सो जिये
जो तुम ने मुझे ग़म दिये सो दिये
है अब सिर्फ सहरा-नवर्दी मिली
जो जामे-मुहोब्बत पिये सो पिये
ज़रूरी न गंगा में अब गुस्ल हो
हसीं पाप हम ने किये सो किये
न पूछोगे रूदाद उस दर्द की
लगे ज़ख्म जो वो सिये सो सिये
है तिश्ना-लबी में यही सोच अब
जो कल तुमने बोसे दिए सो दिए.
(सराब = रेगिस्तान में जहाँ पानी होने का भ्रम होता है (मृगतृष्णा), सहरा-नवर्दी = रेगिस्तान का सफ़र, गुस्ल = स्नान रूदाद = कहानी, तिश्ना-लबी - होंठों की प्यास, बोसे = चुम्बन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
तेरी रा'नाई ने शब भर दिल को बहलाया भी था
और मेरी ख्वाहिशों ने मुझ को बहकाया भी था
हर कोई ज़ेरे-शजर सिमटा खड़ा था खुद में ही
हर किसी से अजनबी हर कोई घबराया भी था
जब उड़ा पंछी ज़मीं से एक साया था कहीं,
जब गया आकाश में तो गुमशुदा साया भी था
खटखटाया था मुसीबत ने मेरा घर जिस घड़ी
सोचता हूँ तब मेरा क्या कोई हमसाया भी था
रास्ते से आप मंज़िल तक हमें ले जाएंगे
आप ने ये झूठ सब के बीच फ़रमाया भी था
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सफीने के लिए तूफान में वो लोग साहिल थे
बहुत थी रौशनी दिल में मसीहा जब मुक़ाबिल थे
सवाल इस इम्तिहाँ में जो भी आए थे वो मुश्किल थे
मगर अव्वल वही आए कि जो शागिर्द काबिल थे
तुम्हारे गांव घर आए हुई दिल को खुशी हासिल
वो पगडंडी-नुमा रस्ते सभी हरचंद सर्पिल थे
अगरचे देवताओं ने ही आखिर में पिया अमृत
मगर अफ़सोस उस में एक दो शैतां भी शामिल थे
मुबारक हो सियासतदां तेरी तकरीर पर तुझ को
गरीबी भूल सब मुफलिस तेरी ही सिम्त माइल थे
तेरे मैखाने में आ कर के रिन्दों की कतारों में
तेरे हाथों से बस इक जाम के दीवाने साइल थे
बहुत सी गर्दिशों के चलते चलते मुस्कराए हम
मगर सब से अधिक मुश्किल मुहोब्बत के मसाइल थे
(सफीना = नाव, साहिल = किनारा, हरचंद = हालांकि, साइल = सवाली, मसाइल = समस्याएँ, सियासतदां = राजनीतिज्ञ, मुफलिस = गरीब, सिम्त = की तरफ, माइल = झुके हुए, inclined) (बहृ – मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन)
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
परवरदिगार से तुझे माँगा किये हैं हम
अशआर तेरे हुस्न पे लिखा किये हैं हम
दिन को तो ज़िंदगी से निभाया है दम-ब-दम
रातों को तेरी यादों में रोया किये हैं हम
इस शहृ में कदम ब कदम चल के रोज़ रोज़
हर शक्ल में तुझे ही तो देखा किये हैं हम
सच के हसीन गुहर को मुट्ठी में ले सकें
नायाब ऐसे ख्वाब भी देखा किये हैं हम
अब वक़्त की रवानगी माज़ी की सिम्त हो
इतनी हसीन बातें भी सोचा किये हैं हम
ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रातों को यह नींद उड़ाती तनहाई
टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
नानी दादी सी बतियाती तनहाई
लोरी दे कर रोज़ सुलाती तनहाई
यादों की फेहरिस्त बनाती तनहाई
बीते दुःख को फिर सहलाती तनहाई
रात के पहले पहर में आती तनहाई
सुब्ह का अंतिम पहर दिखाती तनहाई
सन्नाटा रह रह कुत्ते सा भौंक रहा
शब पर अपने दांत गड़ाती तनहाई
यादों के बादल टप टप टप बरस रहे
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई
खुद से हँसना खुद से रोना बतियाना
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहाई
जीवन भर का लेखा जोखा पल भर में
रिश्तों की तारीख बताती तनहाई
सोचों के इस लम्बे सफ़र में रह रह कर
करवट करवट मन बहलाती तनहाई
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
मेरे होंठों पे तेरे ग़म के फ़साने आए
ख्वाब रूदाद तेरी जब भी सुनाने आए
मेरी रोटी का न था शहृ में कोई भी जुगाड़
अपने पुतले वो सनम सब जा लगाने आए
देवता सच के न मुहताज थे फूलों के कभी
यूं बहुत लोग यहाँ रस्म निभाने आए
इतने घर जलने पे कोई जो न रोया तो क्या
फ़र्ज़ ये चंद मगर्मछ जो निभाने आए
दांत हाथी के दो निकले हुए देखे थे मगर
आज वो खाने के सब दांत दिखाने आए
अपनी तकलीफों को अब भूल के यह रौनक देख,
देख संसद में घरानों पे घराने आए
तूने जिन हाथों को अपनी ही वसीयत दी थी
तेरी हस्ती हैं वही लोग मिटाने आए
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
टूटे हैं ज़िंदगी के मेरे ख्वाब किस कदर
अश्कों ने लिख दिया मेरा हर बाब किस कदर
जिन रास्तों से आप के घर का पता मिले
दिल को लगें वो रास्ते नायाब किस कदर
मौसम है खुशगवार मगर आप ही नहीं
ऐसे में दिल हुआ है ये बेताब किस कदर
आंखों से जो बहा तेरी फुर्कत में दफ्-अतन
खारा लगा ज़बान को वो आब किस कदर
रश्के-जनाँ ये नद्दियाँ मसरूर हैं सदा
इन से हुआ है खुशनुमा पंजाब किस कदर
ईमाँ का रास्ता जो किसी को दिखा दिया
उस आदमी का बढ़ गया सीमाब किस कदर
गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
आंखों से बह रहे हैं ये जज़्बात किसलिए
ये नागहाँ बदल गए हालात किसलिए
दादा कोई दिखे तो अदब से सलाम कर
हर रोज़ भूल जाता है ये बात किस लिए (This sher is now excluded)
इन्सां हूँ हाथ पैर से तुझ सा मैं हू-ब-हू
मुझ को समझ रहा है तू कमजात किस लिए
इस सिम्त रौशनी है तो उस सिम्त तीरगी
उस सिम्त जा रहे हैं ये हज़रात किस लिए
सच के बिना भी ज़हर यहाँ पी रहे हैं लोग
तू खोजता जहाँ में है सुकरात किसलिए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
खुशियों के जश्न में भी वो आया हुआ तो है
फिलहाल अपने दर्द को भूला हुआ तो है
सीने पे मेरे हाथ रखो धड़कनें सुनो
मैंने भी एक दिल वहां रखा हुआ तो है
तनहा मैं घर में रहता हूँ कोई नहीं है साथ
इक शख्स गरचे शीशे में देखा हुआ तो है
खुल पाएगा नसीब मेरा किस को है खबर
मैंने खुदा से आप को माँगा हुआ तो है
काशाना इक हसीन हो हम तुम रहें जहाँ
इक नक्शा दिल के पन्ने पे खींचा हुआ तो है
कैसे कहें कि दूर है कितना वो कोहसार
तीशे को मैंने काँधे पे रखा हुआ तो है
उम्मीद है उसे कि रुकेगा कहीं ज़रूर
खुशियों के पीछे पीछे वो भागा हुआ तो है
देखूं मेरे हरीफ ज़रा अपनी चाल चल
मैंने भी अपनी चाल को सोचा हुआ तो है
जिस से गुज़र के आए यहाँ खुशनुमा हवा
मैंने उसी दरीचे को खोला हुआ तो है
सदियों का फर्क आ गया कल में और आज में
मौसम अगरचे आज भी भीगा हुआ तो है
मुझ को समझ के दोस्त गले से लगा है तू
अब हो न हो तुझे कोई धोखा हुआ तो है
(बहृ – मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जीवन है या ये सहरा मालूम नहीं
खुशियों पर किस का पहरा मालूम नहीं
इन रस्तों पर कौन गया हम से पहले
कौन गया परचम लहरा मालूम नहीं
दिल का दर्द सुनाएं किसको चीख के हम
सन्नाटा कितना बहरा मालूम नहीं
अचरज में है दीवारों के बीच मकीं
कौन मकां में कल ठहरा मालूम नहीं
नश्तर इक तारीकी में बस देखा था
ज़ख्म हुआ कितना गहरा मालूम नहीं
अपने तखय्युल पर ही मैं हैरान सा हूँ
जलवागर किस का चहरा मालूम नहीं
(परचम = झंडा, यास = निराशा, मकीं = मकां निवासी, नश्तर = चक्कू, तखय्युल = कल्पना, जलवागर = नज़र आता)
बहृ = (फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा : 22 22 22 22 22 2)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कैसी तहज़ीब की ये चौखट है
सब की बातों में इक बनावट है
कहकहों की अजीब फितरत है
इन में अब खौफ की मिलावट है
रास्तों पर ये कैसे मंज़र हैं
बेलिबासी में ही सजावट है
गम न कर आंसुओं के आने पर
यह तो बस दर्द की लिखावट है
खुशनुमा हो उठी है खामोशी
रात ने ली हसीन करवट है
एक परछाईं सी हिली है वहां
हाय खामोश किस की आहट है
चाँद उतरा ज़मीन पर है और
उस पे नायाब एक घूँघट है
इस से नायाब बात क्या होगी
मेरा घर और तेरी चौखट है
(तहज़ीब = सभ्यता, फितरत = प्रकृति, मंज़र = दृश्य नायाब = अनमोल)
(बहृ – फाइलातुन मफाइलुन फेलुन : 2122 1212 22)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
आएँगे जश्न और भी दिल में यकीन रख
आँखों पे एक अच्छी सी तू दूरबीन रख
खुशियों में और ग़मों में रहे दिल सदाबहार
दिल की जगह पे दोस्त न तू आबगीन रख
दिन का पता चले न खबर रात की रहे
तू खुद को अपने यार में इतना विलीन रख
रस्ते में धूप छांव तो होंगी ज़रूर यार
सिरदर्द हो तो जेब में इक डिस्पिरीन रख
बागों की सैर कर के ही मिल जाता है सुकून
नोटों की तू न ज़हन में अपने मशीन रख
((बहृ – मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जिस शहृ में मैं खुद से भी वाकिफ लगूं कभी
नक़्शे पे ऐस शहृ मैं बस खोजता रहा
ज़रदार से तो रोज़ तेरी गुफ्तगू रही
भगवन इक गरीब तुझे ढूँढता रहा
नज़्म - प्रेमचंद सहजवाला
दुनिया में यूँ तो हर किसी का साथ संग मिला
अफ़सोस सब के चेहरे पे इक ज़र्द रंग मिला
मज़हब की रौशनी से था रौशन हुआ जहाँ
मज़हब के रहनुमाओं से पर शहृ तंग मिला
सच की उड़ान जिसने भरी और उड़ चला
वो शख़्स शहादत की लिए इक उमंग मिला
कल तक गले लगा के जो करता था जाँ निसार
बातों में उसकी आज अनोखा या ढंग मिला
जिसने लिबास ओढ़ रखा था उसूल का
वो फर्द सियासत की उड़ाता पतंग मिला
सूली पे चढ़ गया कोई सच बोलकर यहाँ
तारीख़ के सफों पे इक ऐसा प्रसंग मिला
शीशे में शक्ल देख के हैराँ हुआ हूँ मैं
शीशा भी मुझे देख के किस दर्जा दंग मिला
मजनू जहाँ गया वहाँ इक भीड़ थी जमा
हाथों में सबके एक नुकीला सा संग मिला
मिलकर चले थे सबके कदम सुब्ह की तरफ
क्यों आज विरासत में ये मैदाने जंग मिला
मुंबई - प्रेमचंद सहजवाला
आंख के ख़्वाब सब बुरे हैं यहाँ,
लोग किस दर्जा सिरफिरे हैं यहाँ
ये किनारा तो समुन्दर का है पर
दिल के कुछ तंग दायरे हैं यहाँ
सिर्फ़ मरकज़ पे रौशनी क्यों है
क्योंकि गायब सभी सिरे हैं यहाँ
यह जगह इसलिए मुझे हैं पसंद
मेरे कुछ अश्क भी गिरे हैं यहाँ
एक शीशे में हैं बहुत चेहरे
दोस्त शीशे भी खुरदरे हैं यहाँ
सुब्ह तक दोनों साथ आए थे
सिर्फ़ तेरे ही दिन फिरे हैं यहाँ
ढूंढ़ते हो यहाँ पे राज कपूर
आजकल राज ठाकरे हैं यहाँ
सब सितारे हैं यहाँ ज़मानत पर
हथकड़ी में हैं ज़र्रे ज़र्रे हैं यहाँ
मौत का खेल सब ने ही खेला
चंद मुलजिम मगर घिरे हैं यहाँ
(मरकज़ – केन्द्र).
तरही ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
(नज़र में सभी की खुदा कर चले)
वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले
जब आए तुम्हारी गली से सनम
तुम्हारा तसव्वुर छुपा कर चले
यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले
किये नज्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले
बहुत बाद मुद्दत के जब तुम मिले
ये जाँ लम्से-जाँ पर लुटा कर चले
सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले
मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले
तरही ग़ज़ल - प्रेमचंद सहजवाला (incomplete)
दिखा दो आज जलवा बख्श दो दीदार चुटकी में
वगरना हैं शहादत के मेरे आसार चुटकी में
बहुत मिल जाएंगे गर ज़र के सिक्के होंगे अंटी में
बना लेंगे जहाँ भी जाएंगे हम यार चुटकी में
खरीदेंगे तुम्हारे पास हैं जो बेचने को खाब
भले तुम आँख खुलते ही पलटना यार चुटकी में
अगरचे कैस से नाता है जाने कितने जन्मों से
मोहब्बत को बना लेंगे ये सब बाज़ार चुटकी में
मुहोब्बत के फ़रिश्ते हैं यहाँ कितने बताओ तो
बना दें इश्क पर जो सैंकड़ों अशआर चुटकी में
इमारत खूबसूरत थी हसद काबिल था नक्शा पर
इमारत गिर गई तो गुम था ठेकेदार चुटकी में
मुकदमा जीतने वाला था मैं ऐलान बाकी था
अदालत में उसी दिन बम फटा था यार चुटकी में
तरही गज़ल
(अहमद फ़राज़ – दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां)
हर घड़ी आँखों में कुछ ख्वाब हैं रक्सां जानां
‘दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां’
देख ता-हद्दे-नज़र एक खला की वुसअत
हम हैं मलबूस नज़ारे हुए उरियाँ जानां
मुश्किलें लाख तेरे कूचे में आने की मगर
रास्ता तेरे तसव्वुर से है आसां जानां
गरचे तारीकियाँ अब रख्ते सफर हैं अपना
फिर भी इक शम्मा सी दिल में है दरख्शां जानां
मैकदे में हैं तेरे रिंद कतारों में खड़े
अब तो वाइज़ के भी आने के हैं इम्काँ जाना
हर तरफ सूखे शजर और ये वीरान फज़ा
मेरे गुलशन पे खिज़ां का है ये एहसां जानां
गरचे हर सिम्त खिले फूल हैं गुलशन गुलशन
इस फज़ा में हैं मेरे ज़ख्म भी पिन्हां जानां
(रक्सां = नाचता हुआ, खला = शून्य, मलबूस = वस्त्रों में, मनाज़िर = दृश्य, उरियाँ = नंगे, शजर = पेड़, तसव्वुर = काल्पनिक छवि, तारीकियाँ = अँधेरे, रख्ते-सफर = सफर का सामान, दरख्शां = प्रज्वलित, सिम्त = तरफ, पिन्हां = छुपे हुए, मैकदा = शराबखाना, रिंद – शराबी, वाइज़ = उपदेशक).
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