‘अनुपमा’ फिल्म और मेरी पिटाई
लेखक – प्रेमचंद सहजवाला
सन् 67-69 में मैं फिरोजाबाद शहर में एम.एस.सी गणित की पढ़ाई कर रहा था. एक तो कक्षा में केवल 16 विद्यार्थी थे सो क्लास एक क्लब जैसी लगती थी. पढ़ाई की तनावपूर्ण बातों के अतिरिक्त ढेर सारी अन्य गपशप भी खूब चलती थी. इस गपशप में एक महत्वपूर्ण विषय था फिल्में. वहाँ एकदम ताज़ा फिल्में तो नहीं लगती थी पर लगभग पिछले साल की फिल्में आ जाती थी. कभी कभी रिक्शे में बैठ कर रिक्शे वालों से भी फ़िल्मी बातें करने का अपना एक रस होता. पर एक दिन एक रिक्शे वाला रिक्शा चलाते चलाते बोला – ‘बाबूजी, विजय टाकीज़ में आग लग गई.’ मैं खूब घबराया. पूछा – ‘अरे कैसे?’ रिक्शे वाला ‘हा हा हा हा’ कर के हँसने लगा – ‘बाबूजी विजय टाकीज़ में फिरोज़ खान की फिल्म ‘आग’ लग गई.’ मतलब कि फिल्म चर्चा उस चूड़ियों वाले शहर में हर किसी को किसी न किसी तरीके से अच्छी ही लगती थी. क्लास में लेकिन मेरे सहपाठी व अन्य कक्षाओं के विद्यार्थी मुझे एक गंभीर पसंद वाला व्यक्ति मानते थे और यह भी कि इसे तो अपनी ऊंची पसंद पर ख़ासा गुरूर सा है. बहरहाल, मैं एक बार एक हफ्ते की छुट्टी ले कर दिल्ली, अपने घर के लोगों से मिलने आया. मेरे भाई ने बताया – ‘तुम्हारी चोइस की एक फिल्म लगी है ‘अनुपमा’. मैं शर्मीला टैगोर – धर्मेन्द्र –शशिकला अभिनीत फिल्म ‘अनुपमा’ देख आया और बेहद चकित था. शर्मीला टैगोर सत्यजित रे की एक बंगाली फिल्म ‘देवी’ में ज़बरदस्त भूमिका कर चुकी थी और संयोग कि ‘देवी’ फिल्म भी मैंने हिंदी में अनुवादित देखी थी. इतनी प्रभावशाली फिल्में हिंदी सिने जगत में कम ही बनती हैं, यह अहसास मुझे बखूबी होता था. ज़्यादातर लोग मारधाड़ वाली फिल्में पसंद करते हैं या हेलेन वेलेन की अर्ध- नग्न डांस वाली फिल्में. पर मैं ‘अनुपमा’ देखने के बाद बेसब्री से इंतज़ार करने लगा कि कब फिरोज़ाबाद पहुंचूं और कब जा कर दोस्तों को झकझोरूं कि ‘अनुपमा’ फिल्म ज़बरदस्त साहित्यिक मनिवैज्ञानिक फिल्म है. फिरोज़ाबाद पहुँचते ही एक बात सोच कर बेहद मायूस भी हुआ कि अभी ‘अनुपमा’ फिल्म फिरोज़ाबाद में लगी कहाँ होगी. वह तो कम से कम छः आठ महीने बाद ही लगेगी. संयोग कि ‘अनुपमा’ फिल्म उसी विजय टाकीज़ में ही तीनेक महीने के अंदर लग गई. मैंने अपने सभी सहपाठियों की जान खानी शुरू कर दी कि सब मिल कर ‘अनुपमा’ फिल्म ज़रूर देखें, बहुत ऊंचे स्तर की फिल्म है. हमारी कक्षा में एक ही छात्रा थी प्रभा और उसने कहा – ‘हाँ, मैंने भी उसकी खूब तारीफ़ सुनी है और इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म समारोह में पुरस्कार भी मिला है, ज़रूर देखनी चाहिए.’ और बातों बातों में एक लड़का विजय टाकीज़ की तरफ साईकिल दौड़ा कर चल भी पड़ा कि आज रात का ही शो बुक कराते हैं. संयोग कि मेरे प्रभाव में सभी सोलह विद्यार्थियों ने सवा सवा रूपया दे दिया क्योंकि उन दिनों टिकट एक चालीस का होता था पर विद्यार्थी का पहचान पत्र दिखाओ तो पन्द्रह पैसे रियायत भी मिलती थी. वह लड़का जब पैसे इकट्ठे कर के बाहर जा रहा था तो कॉलेज के कुछ और लड़कों से भी पैसे लेता गया. और रात को नाईट शो में हम सब पहुँच गए विजय टाकीज़. मैं भी फिल्म दोबारा देख रहा था और सोच रहा था मेरे सहपाठी भी जान लें कि आखिर फिल्म होती क्या चीज़ है. ये लोग तो अगर शेट्टी जैसा गंजा ‘विलेन’ किसी हीरो के हाथों पिट विट जाए या आखिर में प्राण और हीरो की भागमभागी के सीन आ जाएँ तो फिल्म बेहद खुश हो कर देखते हैं. सीटों पर बैठ कर उछलते हैं या तालियाँ बजाते हैं. फिरोज़ाबाद एक क़स्बा था जहाँ आसपास के गांवों के लड़के साईकिलों पर पढ़ने आते. कोई कोई रोज़ बीस बीस किलोमीटर साईकिल चलाता था, सो शारीरिक मज़बूती भी उसमें बेमिसाल होती. प्रभा ने नाईट शो में मुझे सब से पहले देखा था और पास आ कर बोली थी – ‘यहाँ इस कस्बे में जिसमें कि केवल दो डिग्री कॉलेज हैं और बौद्धिक स्तर कुछ नहीं, वहाँ थियेटर का मालिक ‘अनुपमा’ जैसी फिल्म लगा रहा है, यह भी अपने आप में बड़ी बात है.’ मैं उस से सहमत था और बेहद खुश भी. प्रभा बोली – ‘हमें प्रोफेसरों से भी पूछ लेना चाहिए था, वो भी देख लेते...’
फिल्म में बैठे बैठे मुझे एक एक दृश्य बड़ा उत्कृष्ट लग रहा था, विशेषकर जब कुछ भी न बोलने वाली छुई मुई गुड़िया सी शर्मीला टैगोर गीत गाती है – ‘कुछ ऐसी भी बातें होती हैं... कुछ ऐसी भी बातें होती हैं...’ शर्मीला टैगोर तरुण बोस की बेटी बनती है लेकिन जिस दिन उसका जन्म हुआ था उसी दिन उसकी माँ भी चल बसी थी इसलिए तरुण बोस जीवन भर उस बेटी से नफरत करते हैं और शर्मीला टैगोर लगभग एक गूंगी सी लड़की बनी रहती है. पर उसे धर्मेन्द्र का प्यार मिलता है तो वह एक दिन अपने पिता को जिनके सामने पड़ने का वह बचपन से अब तक कभी साहस नहीं कर पाई थी, अपना निर्णय सुना कर धर्मेन्द्र के साथ चल देती है. फिल्म में जिस समय वह छुई मुई सी गुड़िया दुर्गा खोटे के सामने पहली बार मुंह खोल कर केवल इतना कहती है – ‘कुछ तो खा लीजिए,’ तब पार्श्व संगीत में सितार के तार इस तरह झनझनाते हैं जैसे मन का ही सितार बेहद सुखद तरीके से झनझना उठा हो. मैं थियेटर में ही सोच रहा था कि सब के सब सहपाठी इसी कशिश भरी प्रतिक्रिया से गुज़र रहे होंगे और कल मुझे फिर से मेरी ऊंची पसंद पर दाद देंगे. पर अगले दिन तो बात ही कुछ और थी. मैं कॉलेज पहुंचा तो प्रभा जैसे मुझे कॉरीडार में ही ढूंढ रही थी. वह चलती चलती हँसती हुई मेरे करीब आई और बोली – ‘अभी क्लास में मत जाना तुम, सब लोग तुम्हें ढूंढ रहे हैं.’
- ‘क्यों?’ मैं कुछ चकित था.
-
बोली – ‘सब कह रहे हैं किस रद्दी फिल्म पर ले गए तुम. फिल्म में न तो मार धाड़, न कोई कामोत्तेजक डांस. साले ने बोर कर के रख दिया सबको. हा हा हा...’ प्रभा को हंसी आती जा रही थी. फिर बोली – ‘ये लड़के उसी प्रकार के रहेंगे, जैसे हैं. गाँव के हैं, सो इन्हें टाईम पास हिंसात्मक फिल्में चाहियें, या कामोत्तेजक दृश्यों वाली. कह रहे हैं कहाँ है वह ‘स्कॉलर’ महाशय, ‘हाई टेस्ट’ का गुरूर रखने वाला. हम सब मिल कर उसे पीटेंगे. यह भी कोई फिल्म होती है. हमारा पैसा और टाईम दोनों खराब.’ मैं क्लास में तो प्रभा के साथ ही पहुँच गया, पर सब के सब मेरी तरफ देख दबी दबी हंसी हँसने लगे. प्रोफ़ेसर क्लास में आ कर पढाने लगा तब भी एक जना बीच में इशारे से अपना मुक्का दिखा कर मानो दोस्ताना धमकी दे रहा था. सब ने बाद में भी यही शिकायत की – ‘ले चलना था तो किसी तड़कती भड़कती फिल्म पर ले चलते, यह क्या फिल्म थी.’ मुझे लगा कि सच्मुच, यहाँ मेरी पसंद वाला कोई एकाध ही होगा. मैं जब कुछ वर्ष बाद फिरोज़ाबाद यूं ही एक इंटरव्यू पर गया तो विजय टाकीज़ के साथ वाली अमर टाकीज़ में शर्मीला टैगोर की ‘ईवनिंग इन पेरिस’ लगी हुई थी और टाकीज़ के ऊंचे से पोस्टर में वह स्विमिंग सूट में अधनंगी सी एक मोटर बोट में उड़ सी रही थी. उस समय मुझे अपने उन दोस्तों की खूब याद आई कि अगर वे अब भी यहाँ पढ रहे होते और मैं उनको इस फिल्म में लाता तो सब के सब अगले दिन मुझ से गले भी मिलते और बलाएं भी ले रहे होते. कहते – ‘वाह स्कॉलर सा’ब, बहुत बढ़िया फिल्म दिखाई. और कौन सी दिखा रहे हो अगली बार?’
लेखक – प्रेमचंद सहजवाला
सन् 67-69 में मैं फिरोजाबाद शहर में एम.एस.सी गणित की पढ़ाई कर रहा था. एक तो कक्षा में केवल 16 विद्यार्थी थे सो क्लास एक क्लब जैसी लगती थी. पढ़ाई की तनावपूर्ण बातों के अतिरिक्त ढेर सारी अन्य गपशप भी खूब चलती थी. इस गपशप में एक महत्वपूर्ण विषय था फिल्में. वहाँ एकदम ताज़ा फिल्में तो नहीं लगती थी पर लगभग पिछले साल की फिल्में आ जाती थी. कभी कभी रिक्शे में बैठ कर रिक्शे वालों से भी फ़िल्मी बातें करने का अपना एक रस होता. पर एक दिन एक रिक्शे वाला रिक्शा चलाते चलाते बोला – ‘बाबूजी, विजय टाकीज़ में आग लग गई.’ मैं खूब घबराया. पूछा – ‘अरे कैसे?’ रिक्शे वाला ‘हा हा हा हा’ कर के हँसने लगा – ‘बाबूजी विजय टाकीज़ में फिरोज़ खान की फिल्म ‘आग’ लग गई.’ मतलब कि फिल्म चर्चा उस चूड़ियों वाले शहर में हर किसी को किसी न किसी तरीके से अच्छी ही लगती थी. क्लास में लेकिन मेरे सहपाठी व अन्य कक्षाओं के विद्यार्थी मुझे एक गंभीर पसंद वाला व्यक्ति मानते थे और यह भी कि इसे तो अपनी ऊंची पसंद पर ख़ासा गुरूर सा है. बहरहाल, मैं एक बार एक हफ्ते की छुट्टी ले कर दिल्ली, अपने घर के लोगों से मिलने आया. मेरे भाई ने बताया – ‘तुम्हारी चोइस की एक फिल्म लगी है ‘अनुपमा’. मैं शर्मीला टैगोर – धर्मेन्द्र –शशिकला अभिनीत फिल्म ‘अनुपमा’ देख आया और बेहद चकित था. शर्मीला टैगोर सत्यजित रे की एक बंगाली फिल्म ‘देवी’ में ज़बरदस्त भूमिका कर चुकी थी और संयोग कि ‘देवी’ फिल्म भी मैंने हिंदी में अनुवादित देखी थी. इतनी प्रभावशाली फिल्में हिंदी सिने जगत में कम ही बनती हैं, यह अहसास मुझे बखूबी होता था. ज़्यादातर लोग मारधाड़ वाली फिल्में पसंद करते हैं या हेलेन वेलेन की अर्ध- नग्न डांस वाली फिल्में. पर मैं ‘अनुपमा’ देखने के बाद बेसब्री से इंतज़ार करने लगा कि कब फिरोज़ाबाद पहुंचूं और कब जा कर दोस्तों को झकझोरूं कि ‘अनुपमा’ फिल्म ज़बरदस्त साहित्यिक मनिवैज्ञानिक फिल्म है. फिरोज़ाबाद पहुँचते ही एक बात सोच कर बेहद मायूस भी हुआ कि अभी ‘अनुपमा’ फिल्म फिरोज़ाबाद में लगी कहाँ होगी. वह तो कम से कम छः आठ महीने बाद ही लगेगी. संयोग कि ‘अनुपमा’ फिल्म उसी विजय टाकीज़ में ही तीनेक महीने के अंदर लग गई. मैंने अपने सभी सहपाठियों की जान खानी शुरू कर दी कि सब मिल कर ‘अनुपमा’ फिल्म ज़रूर देखें, बहुत ऊंचे स्तर की फिल्म है. हमारी कक्षा में एक ही छात्रा थी प्रभा और उसने कहा – ‘हाँ, मैंने भी उसकी खूब तारीफ़ सुनी है और इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म समारोह में पुरस्कार भी मिला है, ज़रूर देखनी चाहिए.’ और बातों बातों में एक लड़का विजय टाकीज़ की तरफ साईकिल दौड़ा कर चल भी पड़ा कि आज रात का ही शो बुक कराते हैं. संयोग कि मेरे प्रभाव में सभी सोलह विद्यार्थियों ने सवा सवा रूपया दे दिया क्योंकि उन दिनों टिकट एक चालीस का होता था पर विद्यार्थी का पहचान पत्र दिखाओ तो पन्द्रह पैसे रियायत भी मिलती थी. वह लड़का जब पैसे इकट्ठे कर के बाहर जा रहा था तो कॉलेज के कुछ और लड़कों से भी पैसे लेता गया. और रात को नाईट शो में हम सब पहुँच गए विजय टाकीज़. मैं भी फिल्म दोबारा देख रहा था और सोच रहा था मेरे सहपाठी भी जान लें कि आखिर फिल्म होती क्या चीज़ है. ये लोग तो अगर शेट्टी जैसा गंजा ‘विलेन’ किसी हीरो के हाथों पिट विट जाए या आखिर में प्राण और हीरो की भागमभागी के सीन आ जाएँ तो फिल्म बेहद खुश हो कर देखते हैं. सीटों पर बैठ कर उछलते हैं या तालियाँ बजाते हैं. फिरोज़ाबाद एक क़स्बा था जहाँ आसपास के गांवों के लड़के साईकिलों पर पढ़ने आते. कोई कोई रोज़ बीस बीस किलोमीटर साईकिल चलाता था, सो शारीरिक मज़बूती भी उसमें बेमिसाल होती. प्रभा ने नाईट शो में मुझे सब से पहले देखा था और पास आ कर बोली थी – ‘यहाँ इस कस्बे में जिसमें कि केवल दो डिग्री कॉलेज हैं और बौद्धिक स्तर कुछ नहीं, वहाँ थियेटर का मालिक ‘अनुपमा’ जैसी फिल्म लगा रहा है, यह भी अपने आप में बड़ी बात है.’ मैं उस से सहमत था और बेहद खुश भी. प्रभा बोली – ‘हमें प्रोफेसरों से भी पूछ लेना चाहिए था, वो भी देख लेते...’
फिल्म में बैठे बैठे मुझे एक एक दृश्य बड़ा उत्कृष्ट लग रहा था, विशेषकर जब कुछ भी न बोलने वाली छुई मुई गुड़िया सी शर्मीला टैगोर गीत गाती है – ‘कुछ ऐसी भी बातें होती हैं... कुछ ऐसी भी बातें होती हैं...’ शर्मीला टैगोर तरुण बोस की बेटी बनती है लेकिन जिस दिन उसका जन्म हुआ था उसी दिन उसकी माँ भी चल बसी थी इसलिए तरुण बोस जीवन भर उस बेटी से नफरत करते हैं और शर्मीला टैगोर लगभग एक गूंगी सी लड़की बनी रहती है. पर उसे धर्मेन्द्र का प्यार मिलता है तो वह एक दिन अपने पिता को जिनके सामने पड़ने का वह बचपन से अब तक कभी साहस नहीं कर पाई थी, अपना निर्णय सुना कर धर्मेन्द्र के साथ चल देती है. फिल्म में जिस समय वह छुई मुई सी गुड़िया दुर्गा खोटे के सामने पहली बार मुंह खोल कर केवल इतना कहती है – ‘कुछ तो खा लीजिए,’ तब पार्श्व संगीत में सितार के तार इस तरह झनझनाते हैं जैसे मन का ही सितार बेहद सुखद तरीके से झनझना उठा हो. मैं थियेटर में ही सोच रहा था कि सब के सब सहपाठी इसी कशिश भरी प्रतिक्रिया से गुज़र रहे होंगे और कल मुझे फिर से मेरी ऊंची पसंद पर दाद देंगे. पर अगले दिन तो बात ही कुछ और थी. मैं कॉलेज पहुंचा तो प्रभा जैसे मुझे कॉरीडार में ही ढूंढ रही थी. वह चलती चलती हँसती हुई मेरे करीब आई और बोली – ‘अभी क्लास में मत जाना तुम, सब लोग तुम्हें ढूंढ रहे हैं.’
- ‘क्यों?’ मैं कुछ चकित था.
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बोली – ‘सब कह रहे हैं किस रद्दी फिल्म पर ले गए तुम. फिल्म में न तो मार धाड़, न कोई कामोत्तेजक डांस. साले ने बोर कर के रख दिया सबको. हा हा हा...’ प्रभा को हंसी आती जा रही थी. फिर बोली – ‘ये लड़के उसी प्रकार के रहेंगे, जैसे हैं. गाँव के हैं, सो इन्हें टाईम पास हिंसात्मक फिल्में चाहियें, या कामोत्तेजक दृश्यों वाली. कह रहे हैं कहाँ है वह ‘स्कॉलर’ महाशय, ‘हाई टेस्ट’ का गुरूर रखने वाला. हम सब मिल कर उसे पीटेंगे. यह भी कोई फिल्म होती है. हमारा पैसा और टाईम दोनों खराब.’ मैं क्लास में तो प्रभा के साथ ही पहुँच गया, पर सब के सब मेरी तरफ देख दबी दबी हंसी हँसने लगे. प्रोफ़ेसर क्लास में आ कर पढाने लगा तब भी एक जना बीच में इशारे से अपना मुक्का दिखा कर मानो दोस्ताना धमकी दे रहा था. सब ने बाद में भी यही शिकायत की – ‘ले चलना था तो किसी तड़कती भड़कती फिल्म पर ले चलते, यह क्या फिल्म थी.’ मुझे लगा कि सच्मुच, यहाँ मेरी पसंद वाला कोई एकाध ही होगा. मैं जब कुछ वर्ष बाद फिरोज़ाबाद यूं ही एक इंटरव्यू पर गया तो विजय टाकीज़ के साथ वाली अमर टाकीज़ में शर्मीला टैगोर की ‘ईवनिंग इन पेरिस’ लगी हुई थी और टाकीज़ के ऊंचे से पोस्टर में वह स्विमिंग सूट में अधनंगी सी एक मोटर बोट में उड़ सी रही थी. उस समय मुझे अपने उन दोस्तों की खूब याद आई कि अगर वे अब भी यहाँ पढ रहे होते और मैं उनको इस फिल्म में लाता तो सब के सब अगले दिन मुझ से गले भी मिलते और बलाएं भी ले रहे होते. कहते – ‘वाह स्कॉलर सा’ब, बहुत बढ़िया फिल्म दिखाई. और कौन सी दिखा रहे हो अगली बार?’
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