'वह एक दिन...'
संस्मरणात्मक कहानी - प्रेमचंद सहजवाला
मुंबई से लोकल पकडो तो लगभग चालीस मिनट बाद एक स्टेशन आता है - उल्हास नगर. आजकल वह एक महानगर जैसा है, जिसमें करोड़पति व्यापारी तक रहते हैं. पर जिस ज़माने की मैं बात कर रहा हूँ उस ज़माने वह सिंध से आए हुए शरणार्थियों का एक शिविर मात्र था. छोटे छोटे, माचिस की डिब्बिया जितने घर, जिनमें दस-दस बीस बीस प्राणी कैसे रहते होंगे, यह सहज ही कल्पना की जा सकती है. गरीबी घर घर में एक सदस्य की तरह रहती थी. औरतें हर समय आंसू बहाती थी और पुरुष हर समय नौकरी के लिए दिन भर धक्के खाते थे. रिफ्यूजी बैरकों में बारह बारह घर होते थे और रात को जब इतने बड़े-बड़े परिवार बैरकों के बाहर चारपाइयाँ डाल सोते थे, तो लगता बाढ़-वाढ़ से पीडितों का एक लावारिस समूह सा है. अलबत्ता कई बार चांदनी का भरपूर मज़ा ले कर आपस में हंसने खुश होने के बहाने सब ढूंढ लेते थे. कभी तो बड़ी बड़ी उम्र की औरतें भी कोई सामूहिक गीत गा कर या कहानी कह कर सोने जाती थी. बच्चे, जब तक माएं काम से फारिग हो कर बाहर चारपाइयों पर आयें, तब तक बिस्तरों पर ऊधम मचाते, कलाबाज़ियां करते और खिलखिलाते.
ऐसे में शिक्षा का क्या हाल होगा, यह भी समझा जा सकता है. मैं एक नगर निगम के स्कूल में पहली में दाखिल हुआ, जहाँ मास्टर दो चार बातें पढ़ा कर दरवाज़े पर बीड़ी पीने बैठ जाता था और रविवार को किसी न किसी क्लास को नज़दीक ही बने अपने घर में बुला लेता था. घर क्या था एक बड़े और फटीचर से हॉल में टाट की बोरियों से पार्टीशन बने होते थे और वह खुश हो कर हमेशा कहता था – ‘मेरे घर में कुल छप्पन लोग हैं.’ यानी सात भाई, उनके के बेटे बहुएं और बेटों के उतने ही बड़े बड़े कुनबे और उन मास्टर जी के पिता. पिता वृद्ध थे सो रोज़ एक रजिस्टर ले कर कोई न कोई टाट हटा कर अन्दर बैठी बहुओं का सिर खाते. किस बच्चे ने नहा लिया, किस ने अभी नहीं नहाया और किस ने नाश्ता कर लिया, किसको अभी करना है, इस सब की अटेंडेंस सी लगाते. हम बच्चे सोचते कि मास्टर जी कुछ मीठा खिलाएंगे और हम सब कुछ खेल कूद कर घर लौटेंगे. पर मास्टर सब बच्चों को सेवा का मूल्य बता कर कुछ प्लेटें या थालियाँ पकड़ा देता. बाहर दो तीन नगर निगम के नल्के दिखा देता और हम उन गंदी प्लेटों को रगड़ रगड़ कर धोते और एक दूसरे से प्रतियोगिता करते. मास्टर शाब्बास देता और आख़िर में जो सेऊ बांटता उसके बहुत कम हिस्से का नमकीनपन मुंह को महसूस होता..
चौथी पास की तो एक और स्कूल में गए. यहाँ एक बड़े से वर्गाकार हॉल में, जिसे लोग 'कांग्रेस ऑफिस' कहते थे, लकड़ी की पार्टीशन लगा कर कई कक्षाएं बनाई गई थी. रिसेस के समय ऐसे लगता जैसे खतरनाक बाढ़ आयी नदी का पानी ज़ोर ज़ोर से बह रहा है. बहुत असहनीय सा शोर होता. सुबह सब से बीच वाले पार्टिशनों के बीच खड़ा वाईस-प्रिंसिपल कर्कश आवाज़ में प्रार्थना करवाता – ‘वंदे.. मा..तरम.’ उस के पीछे तीन सौ बच्चों की आवाज़ गूंजती. ‘वंदे... मा...तरम.’ बाहर साइकलों पर आते जाते लोगों को भी पता चलता, प्रार्थना हो रही है. अंत में वाईस- प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - ज...य हिंद. सब को चिल्ला कर कहना होता - ज...य हिंद. तीन बार यह करना पड़ता. यदि किसी बच्चे ने क्रम तोड़ दिया और बीच में ही बोल पड़ा - जय हिंद, तब वाईस-प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - इस लड़के को मेरे पास भेजो. अन्दर खड़ा मास्टर या मास्टरनी उसे बाहर भेज देती. लड़का क्लास से बाहर ऐसे निकलता जैसे सीमा पर शहीद होने जा रहा हो...
एक मास्टर थे, वह दूसरों की तुलना में इतने जालिम थे की उन का नाम लड़कों-लड़कियों ने रख दिया यमराज. खूब पीटते. हिन्दी और सामाजिक ज्ञान पढाते. बड़ी आयु के थे. नाम था शीतल दास और स्वाभाव से बेहद गरम. क्लास में घूमते तो बच्चों की हालत अच्छी न होती. बेहद भयभीत से रहते. कभी कभी अचानक टेस्ट लेते. कर्कश आवाज़ में प्रश्न पूछते – ‘घोड़ा का बहुवचन?’
लड़का स्त्रीलिंग-पुल्लिंग याद कर के आया होता. फ़ौरन जवाब देता – ‘घोड़ी.’
लड़के की कमीज़ का कॉलर मास्टर के खूंखार पंजे में आ जाता. लड़के का फंसा हुआ चेहरा नीचे, ज़मीन की तरफ़ डूबता जाता, जब तक कि उसकी नाक ज़मीन न सूंघ रही हो. मास्टर की लात उस की कमान की तरह मुड़ी हुई पीठ पर पड़ती.
लड़कियों को वे मास्टर नहीं मारते थे. पर लड़की को सामने खड़ा कर के ऐसी झाड़ पिलाते कि लड़की की घिग्घी बंध जाती. रिसेस या छुट्टी में उस की सहेलियां उससे कुछ ज़बरदस्ती बुलवाती और मूड ठीक करने की कोशिश करती. लड़की फूट फूट कर रो पड़ती. वैसे हाथ तो कमोबेश सभी अध्यापक चलाते थे, कुछ अध्यापिकाएं भी कुछ कम गरम-मिज़ाज नहीं थी, पर इन मास्टर शीतल दास से तो अध्यापकों को भी नफरत थी. कुछ अध्यापिकाओं ने लड़कियों की तरफदारी कर के उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि बहुत घबरा जाती हैं. पर मास्टर बुज़ुर्ग थे और बेहद क्रूर भी तो थे. सलेटी बाल दो असमान हिस्सों में बँटे और आंखों पर मोटे मोटे शीशों वाला उनके जितना ही निर्मम सा चश्मा. चेहरे और नाक की चमड़ी खुरदरी सी. अध्यापिकाओं में से एक दो युवा अध्यापिकाओं को भी ऐसी झाड़ पिला दी की फ़िर उन के सामने कोई न बोल सकी
शीतल दास में किसी भी किस्म का रहमो-करम हो, ऐसा कभी नहीं लगता था. स्कूल में युवा अध्यापक थे, तो सातवीं आठवीं की कुछ सुंदर लड़कियां भी. पर ज़माना इतना आधुनिक नहीं था कि बातचीत की स्वतंत्रता हो या कोई किस्सा सुनने को मिले. पर एक दिन देखें तो क्या होता है. एक नौजवान मास्टर हैं, रिसेस के बाद आते हैं तो देखते हैं कि क्लास में अभी केवल एक ही लड़की आयी है. मास्टर उस सुंदर लड़की को देख अपने चरित्र से गिर जाते हैं. लड़की को किसी बहाने पास बुलाते हैं. और.. बस उस के गाल को चूम लेते हैं, और झट से कुर्सी पर बैठ जाते हैं. लड़की स्तब्ध सी थी. ऐसा कभी हुआ नहीं. बाकी विद्यार्थी आ गए. पर वह किसी से कुछ बोली नहीं. चुपचाप सब पीरियड पढ़ती रही. स्कूल में छुट्टी भी हो गई. मास्टर को उस क्लास में या बाद में अन्य क्लासों को पढ़ाते समय कुछ धुकधुकी सी ज़रूर हुई होगी. पर छुट्टी तक कुछ न हुआ तो उस का डर जाता रहा. प्रिंसिपल और वाईस-प्रिंसिपल वाले पार्टीशन के साथ वाले पार्टीशन में बैठे सभी अध्यापक-अध्यापिकाएं कॉपियाँ चेक करने लग गए. उस से साथ वाली पार्टीशन में गुस्सैल सा पढने का चश्मा लगाये शीतल दास . कुछ देर सन्नाटा सा लगता है. अचानक एक नौजवान आता है. पूछता है – ‘मास्टर गोपाल कौन से हैं?’
सब की गर्दन मास्टर गोपाल की तरफ़ उठ गई.
वह लड़का गोपाल मास्टर को कॉलर से पकड़ कर घसीटना शुरू कर देता है. देखते देखते सात लड़के और आ जाते हैं. गोपाल को बाहर घसीट दिया जाता है. पार्टिशनों के बीच उनकी धुनाई शुरू हो जाती है. सब के सब सकते में आ जाते हैं. मास्टर को खींच कर एक दीवार से उन का सर पटका जाता है. लड़का उसी लड़की का भाई है, जिस लड़की से ये लड़के कह रहे हैं, मास्टर ने बदतमीजी की है. गोपाल हाथ जोड़ते हैं, रोते हैं. उन की नाक से खून बह रहा है. सब को लगता है, कुछ करना चाहिए. अपराध की काफ़ी सज़ा पा गए गोपाल मास्टर. प्रिंसिपल के पास जाते हैं सब. प्रिंसिपल लाचार है. वाईस-प्रिंसिपल जो सुबह प्रार्थना में गलती होने पर खूब हाथ जमाते हैं, वे किसी बहाने बाहर चले गए हैं.
सब का ध्यान शीतल दास वाले कमरे में जाता है. सब से तेज़ हैं, बोलने में भी कर्कश. लड़कों को झाड़ भी देंगे, समझा भी देंगे. सब उन के सामने बेबस से खड़े हो जाते हैं – ‘कुछ कीजिये. गोपाल बहुत पिट गए हैं.’
शीतल दास निस्पंद से सब पर अपनी नज़र टिकाते हैं. धीमे धीमे कहते हैं, जैसे ख़ुद से कह रहे हों – ‘गोपाल ने बदमाशी की है, तो भुगते न?’
समय बदलते देर नहीं लगती. मास्टर शीतल दास बुज़ुर्ग थे. सिंध से विभाजन के समय आए थे. लड़कियां और अध्यापिकाएं कभी कभी उन के बारे में बातें करते हुए कहती थी – ‘तीन बहुएं हैं, एक तो मायके भाग गई है.’
-‘क्यों क्यों?’
- ‘क्यों कि ससुर जो यमराज है ऐ नादान लड़की.’
बहरहाल. एक दिन सब कुछ बदल सा जाता है. हम सब बाहर मैदान में प्रार्थना कर रहे थे उस दिन. कभी कभी प्रिंसिपल अच्छे मौसम में बाहर बने एक ऊबड़-खाबड़ से मैदान में प्रार्थना करने भेज देते थे. वाईस-प्रिंसिपल उस दिन आए नहीं थे. एक मास्टर दयालदास प्रार्थना करवा रहे थे. प्रार्थना पूरी होती है. प्रार्थना के दौरान ही हम ने देखा, एक बाहर का व्यक्ति जिस ने कमीज़ और मैला सा पजामा पहन रखा था, उसने मास्टर दयालदास के कान में न जाने क्या कहा था. प्रार्थना पूरी हुई. हम आदेश का इंतज़ार कर रहे थे कि लाइनों में अपनी अपनी कक्षा में जाएं. पर मास्टर दयालदास जिन के पाजामे का नाला कई बार कुर्ते से बाहर लटक कर नज़र आने लगता था, उस ने सब को रोक कर कहा – ‘बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि...’ और उस की बात आगे आ कर एक अध्यापिका ने पूरी की – ‘कि मास्टर शीतलदास का...’
और बात पूरी करते करते उस अध्यापिका के चेहरे पर रंग-ढंग इतनी तेज़ी से बदले मानो उसे समझ ही न आ रहा हो कि अब ऐसे क्षण उसे अपना चेहरा कैसा बनाना चाहिए. पल भर में उस मैदान का दृश्य ही बदल गया. मास्टर लोग आपस में कुछ सलाह-मशविरा करने लग गए और लड़कों की तो हालत ही ख़राब थी. एक लड़का अचानक दोनों बाहें खोल कर हवाई जहाज़ सा बना कर खुशी में मारे उड़ने सा लगा – ‘हा हा हा हा हा .. मर गया मास्ट ...र्रर्र.’
कई लड़के भयभीत थे. पर एक दूसरे के कन्धों के गिर्द बाहें डाल कर टहलते हुए मानो आज की घटना का अर्थ समझने लगे. कई एक दूसरे के कानों में मुंह ले जा कर कानाफूसी करने लगे – ‘बहुत मारता था. कह रहे हैं आज ख़ुद मर गया. हा हा...’
-‘चुप बे, क्या भरोसा...’
लड़कियों की हालत विचित्र थी. वे झुंड के झुंड बना कर सोचने लगी कि अब हम सब को करना क्या होगा. क्या उस मास्टर को ज़िंदा करने की योजनाएं बन रही हैं?...
...इस बीच मास्टर दयालदास ने क्या किया कि अपनी दाईं हथेली खोल कर सब के मुंह में खल्ला दिखा कर चिल्ला पड़े- ‘लानत है तुम सब पर. मास्टर शीतल दास गुज़र गए हैं और तुम सब लट्टू भी खेलने लग गए...’ उस मास्टर के गुस्सा करने पर अक्सर अध्यापिकाओं को जी भर कर हँसी आ जाती थी. आज भी न जाने क्या हुआ कि एक अध्यापिका हँसी को पल्लू में दबाती हुई दूसरी को कंधे पर टोहका मार कर आगे खिसक गई... एक सीनियर अध्यापिका ने घोषणा की- ‘सब बच्चे क्लास में जाएं. आज पढ़ाई नहीं होगी. जिस समय रिसेस होगी. हम सब मास्टर शीतल दास के घर जायेंगे...’
शीतल दास के घर के बाहर का नज़ारा ही अजीब था. बहुत विद्यार्थी उस स्क्वेयर में जमा हो गए जिस के तीन तरफ़ बैरकें थी और एक तरफ़ पथरीली सी सड़क. एक घर के बरामदे में शीतल दास जो यमराज माने जाते थे, का पार्थिव शरीर और उनके रिश्तेदारों की भीड़. बरामदे के प्रवेश पर लड़कियों का झुंड सा इकठ्ठा हो कर अन्दर झाँकने की कोशिश करता है. वही सीनियर अध्यापिका आती है. एक बड़ी कक्षा की लड़की उस के कान में फुसफुसाती है- ‘लोग कह रहे हैं कि वो.. वो जो जवान सी औरत इधर आ रही है, वही उनकी बहू है जो मायके भाग गई थी.’ अध्यापिका अपने चेहरे पर एक ठोस और गंभीर सी भंगिमा समय की नज़ाकत को पहचान कर बना लेती है और एक सहेली की तरह अपनी उस विद्यार्थी को चुप रहने का इशारा भी करती है. सब को कई कदम पीछे हट कर कहीं और झुंड बनाने को भी कहती है. लड़कियां सोचती हैं कि हमें तो रोना भी चाहिए, पर गुपचुप फुसफुसाती हैं – ‘रोना आए तब न! जान बूझ कर आंखों में मिर्ची डाल दें क्या...’
कोई लडकी कहती है – ‘जिस को सब से ज्यादा झाड़ पडी हो उस की, ऐसी कोई ढूंढ लाओ. मास्टर की झाड़ याद करके फूट फूट कर रोएगी...’
लड़के अपनी दुनिया में गुम हैं. कुछ सूझ नहीं रहा किसी को, कि हमें क्या करना चाहिए. कोई कोई लड़का झटपट बस्ता ले कर घर पहुँच गया और माँ को बता दिया, एक मास्टर गुज़र गया है.
माँ ज़बरदस्ती बीच में ही घर आए बेटे के मुंह में रोटी-सब्जी के टुकड़े ठूंसती पूछती है – ‘कौन सा मास्टर मर गया?’
लड़का अपना महत्व सा जताता कहता है – ‘है कोई.’ और फ़टाफ़ट दौड़ कर अपने झुंड में पहुंचना चाहता है.
एक लड़का दूसरों का ध्यान खींच कर सब को चकित कर देता है – ‘वो देखो, लोग कह रहे हैं कि डॉक्टर है. पर वह अपनी दवाइयों का बक्सा साथ क्यों ले जा रहा है????’
-‘अबे लोग बता रहे हैं मास साहब की बीबी बेहोश हो गई है, इसलिए.’
कुछ लड़के एक बैरक के पीछे लट्टू खेलने लग जाते हैं. कोई कोई लड़का दूर से ही घबराता सा ऐसे समय लट्टू खेलने वालों को देखता है, फ़िर मुस्कराहट आने पर हथेली से वह मुस्कराहट छुपा देता है. लट्टू खेलने वाला लड़का उसकी तरफ़ देख आँख मारता है तो वह बैठा हुआ लड़का उससे मज़ाक करता है – ‘मास सा’ब आ रहे हैं!...’
और एक लड़का अचानक तेज़-तेज़ और धुक्धुकाती साँस के साथ इधर क्यों आ रहा है? क्या कोई और बड़ी ख़बर सुनाने आ रहा है? लड़का यहाँ, लट्टू खेलने वाले ग्रुप के पास पहुँचता है और कुछ देर उसकी साँस फूल रही होती है, हांफता ही रहता है. कुछ बोल नहीं पाता.
- अबे बोल कुच्छ ..
वो हाँफते हाँफते कहता है – ‘वो जो.. वो जो.. डॉक्टर आया है न... एक लड़का कह रहा है कि वो डॉक्टर मास्टर को जिंदा कर सकता है...’
लट्टू खेलने वाले हाथ सहसा रुक जाते हैं. एक अजीब से भय की झुरझुरी सब के बदन में दौड़ जाती है. एक तेज़ सा लड़का चिल्लाता है – ‘तेरा दिमाग ख़राब है क्या? मरने वाला कभी जिंदा होता है?..’
हम बच्चे थे. क्या जानें कि ऐसा हो सकता है या नहीं. पर वो लड़का दावे के साथ कह कर मानो अपने भीतर का डर भी ज़ाहिर करना चाहता है, अपने करीबी मित्रों के बीच. उसी की दो तीन बार पिटाई भी की थी मास्टर ने जिसे लोग यमराज कहते थे. उस के पिता झगड़ा भी करने आए थे, पर मास्टर को तेज़ देख कर प्रिंसिपल से झगड़ कर चले गए थे.
न जाने किस ने यह भ्रम फैला दिया. किसी ने ऐसी कल्पना भर की होगी. वो लड़का कहने लगा – ‘पर एक बात है, वो डॉक्टर कह रहा है कि पाँच हज़ार दे दो, तो ज़िंदा कर दूँगा...’
सब चकरा जाते हैं. शरीर सुन्न से हो गए हैं. एक अजीब भ्रम सा...और किसी को सूझ ही नहीं रहा कि क्या करना चाहिए हम सब को. क्या जैसे क्लास में बैठते थे, वैसे ही यहाँ मैदान में पलथी मार कर बैठ जाएँ?...
सब को चारों तरफ एक उलझन का सा माहौल लगने लगा था...
संस्मरणात्मक कहानी - प्रेमचंद सहजवाला
मुंबई से लोकल पकडो तो लगभग चालीस मिनट बाद एक स्टेशन आता है - उल्हास नगर. आजकल वह एक महानगर जैसा है, जिसमें करोड़पति व्यापारी तक रहते हैं. पर जिस ज़माने की मैं बात कर रहा हूँ उस ज़माने वह सिंध से आए हुए शरणार्थियों का एक शिविर मात्र था. छोटे छोटे, माचिस की डिब्बिया जितने घर, जिनमें दस-दस बीस बीस प्राणी कैसे रहते होंगे, यह सहज ही कल्पना की जा सकती है. गरीबी घर घर में एक सदस्य की तरह रहती थी. औरतें हर समय आंसू बहाती थी और पुरुष हर समय नौकरी के लिए दिन भर धक्के खाते थे. रिफ्यूजी बैरकों में बारह बारह घर होते थे और रात को जब इतने बड़े-बड़े परिवार बैरकों के बाहर चारपाइयाँ डाल सोते थे, तो लगता बाढ़-वाढ़ से पीडितों का एक लावारिस समूह सा है. अलबत्ता कई बार चांदनी का भरपूर मज़ा ले कर आपस में हंसने खुश होने के बहाने सब ढूंढ लेते थे. कभी तो बड़ी बड़ी उम्र की औरतें भी कोई सामूहिक गीत गा कर या कहानी कह कर सोने जाती थी. बच्चे, जब तक माएं काम से फारिग हो कर बाहर चारपाइयों पर आयें, तब तक बिस्तरों पर ऊधम मचाते, कलाबाज़ियां करते और खिलखिलाते.
ऐसे में शिक्षा का क्या हाल होगा, यह भी समझा जा सकता है. मैं एक नगर निगम के स्कूल में पहली में दाखिल हुआ, जहाँ मास्टर दो चार बातें पढ़ा कर दरवाज़े पर बीड़ी पीने बैठ जाता था और रविवार को किसी न किसी क्लास को नज़दीक ही बने अपने घर में बुला लेता था. घर क्या था एक बड़े और फटीचर से हॉल में टाट की बोरियों से पार्टीशन बने होते थे और वह खुश हो कर हमेशा कहता था – ‘मेरे घर में कुल छप्पन लोग हैं.’ यानी सात भाई, उनके के बेटे बहुएं और बेटों के उतने ही बड़े बड़े कुनबे और उन मास्टर जी के पिता. पिता वृद्ध थे सो रोज़ एक रजिस्टर ले कर कोई न कोई टाट हटा कर अन्दर बैठी बहुओं का सिर खाते. किस बच्चे ने नहा लिया, किस ने अभी नहीं नहाया और किस ने नाश्ता कर लिया, किसको अभी करना है, इस सब की अटेंडेंस सी लगाते. हम बच्चे सोचते कि मास्टर जी कुछ मीठा खिलाएंगे और हम सब कुछ खेल कूद कर घर लौटेंगे. पर मास्टर सब बच्चों को सेवा का मूल्य बता कर कुछ प्लेटें या थालियाँ पकड़ा देता. बाहर दो तीन नगर निगम के नल्के दिखा देता और हम उन गंदी प्लेटों को रगड़ रगड़ कर धोते और एक दूसरे से प्रतियोगिता करते. मास्टर शाब्बास देता और आख़िर में जो सेऊ बांटता उसके बहुत कम हिस्से का नमकीनपन मुंह को महसूस होता..
चौथी पास की तो एक और स्कूल में गए. यहाँ एक बड़े से वर्गाकार हॉल में, जिसे लोग 'कांग्रेस ऑफिस' कहते थे, लकड़ी की पार्टीशन लगा कर कई कक्षाएं बनाई गई थी. रिसेस के समय ऐसे लगता जैसे खतरनाक बाढ़ आयी नदी का पानी ज़ोर ज़ोर से बह रहा है. बहुत असहनीय सा शोर होता. सुबह सब से बीच वाले पार्टिशनों के बीच खड़ा वाईस-प्रिंसिपल कर्कश आवाज़ में प्रार्थना करवाता – ‘वंदे.. मा..तरम.’ उस के पीछे तीन सौ बच्चों की आवाज़ गूंजती. ‘वंदे... मा...तरम.’ बाहर साइकलों पर आते जाते लोगों को भी पता चलता, प्रार्थना हो रही है. अंत में वाईस- प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - ज...य हिंद. सब को चिल्ला कर कहना होता - ज...य हिंद. तीन बार यह करना पड़ता. यदि किसी बच्चे ने क्रम तोड़ दिया और बीच में ही बोल पड़ा - जय हिंद, तब वाईस-प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - इस लड़के को मेरे पास भेजो. अन्दर खड़ा मास्टर या मास्टरनी उसे बाहर भेज देती. लड़का क्लास से बाहर ऐसे निकलता जैसे सीमा पर शहीद होने जा रहा हो...
एक मास्टर थे, वह दूसरों की तुलना में इतने जालिम थे की उन का नाम लड़कों-लड़कियों ने रख दिया यमराज. खूब पीटते. हिन्दी और सामाजिक ज्ञान पढाते. बड़ी आयु के थे. नाम था शीतल दास और स्वाभाव से बेहद गरम. क्लास में घूमते तो बच्चों की हालत अच्छी न होती. बेहद भयभीत से रहते. कभी कभी अचानक टेस्ट लेते. कर्कश आवाज़ में प्रश्न पूछते – ‘घोड़ा का बहुवचन?’
लड़का स्त्रीलिंग-पुल्लिंग याद कर के आया होता. फ़ौरन जवाब देता – ‘घोड़ी.’
लड़के की कमीज़ का कॉलर मास्टर के खूंखार पंजे में आ जाता. लड़के का फंसा हुआ चेहरा नीचे, ज़मीन की तरफ़ डूबता जाता, जब तक कि उसकी नाक ज़मीन न सूंघ रही हो. मास्टर की लात उस की कमान की तरह मुड़ी हुई पीठ पर पड़ती.
लड़कियों को वे मास्टर नहीं मारते थे. पर लड़की को सामने खड़ा कर के ऐसी झाड़ पिलाते कि लड़की की घिग्घी बंध जाती. रिसेस या छुट्टी में उस की सहेलियां उससे कुछ ज़बरदस्ती बुलवाती और मूड ठीक करने की कोशिश करती. लड़की फूट फूट कर रो पड़ती. वैसे हाथ तो कमोबेश सभी अध्यापक चलाते थे, कुछ अध्यापिकाएं भी कुछ कम गरम-मिज़ाज नहीं थी, पर इन मास्टर शीतल दास से तो अध्यापकों को भी नफरत थी. कुछ अध्यापिकाओं ने लड़कियों की तरफदारी कर के उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि बहुत घबरा जाती हैं. पर मास्टर बुज़ुर्ग थे और बेहद क्रूर भी तो थे. सलेटी बाल दो असमान हिस्सों में बँटे और आंखों पर मोटे मोटे शीशों वाला उनके जितना ही निर्मम सा चश्मा. चेहरे और नाक की चमड़ी खुरदरी सी. अध्यापिकाओं में से एक दो युवा अध्यापिकाओं को भी ऐसी झाड़ पिला दी की फ़िर उन के सामने कोई न बोल सकी
शीतल दास में किसी भी किस्म का रहमो-करम हो, ऐसा कभी नहीं लगता था. स्कूल में युवा अध्यापक थे, तो सातवीं आठवीं की कुछ सुंदर लड़कियां भी. पर ज़माना इतना आधुनिक नहीं था कि बातचीत की स्वतंत्रता हो या कोई किस्सा सुनने को मिले. पर एक दिन देखें तो क्या होता है. एक नौजवान मास्टर हैं, रिसेस के बाद आते हैं तो देखते हैं कि क्लास में अभी केवल एक ही लड़की आयी है. मास्टर उस सुंदर लड़की को देख अपने चरित्र से गिर जाते हैं. लड़की को किसी बहाने पास बुलाते हैं. और.. बस उस के गाल को चूम लेते हैं, और झट से कुर्सी पर बैठ जाते हैं. लड़की स्तब्ध सी थी. ऐसा कभी हुआ नहीं. बाकी विद्यार्थी आ गए. पर वह किसी से कुछ बोली नहीं. चुपचाप सब पीरियड पढ़ती रही. स्कूल में छुट्टी भी हो गई. मास्टर को उस क्लास में या बाद में अन्य क्लासों को पढ़ाते समय कुछ धुकधुकी सी ज़रूर हुई होगी. पर छुट्टी तक कुछ न हुआ तो उस का डर जाता रहा. प्रिंसिपल और वाईस-प्रिंसिपल वाले पार्टीशन के साथ वाले पार्टीशन में बैठे सभी अध्यापक-अध्यापिकाएं कॉपियाँ चेक करने लग गए. उस से साथ वाली पार्टीशन में गुस्सैल सा पढने का चश्मा लगाये शीतल दास . कुछ देर सन्नाटा सा लगता है. अचानक एक नौजवान आता है. पूछता है – ‘मास्टर गोपाल कौन से हैं?’
सब की गर्दन मास्टर गोपाल की तरफ़ उठ गई.
वह लड़का गोपाल मास्टर को कॉलर से पकड़ कर घसीटना शुरू कर देता है. देखते देखते सात लड़के और आ जाते हैं. गोपाल को बाहर घसीट दिया जाता है. पार्टिशनों के बीच उनकी धुनाई शुरू हो जाती है. सब के सब सकते में आ जाते हैं. मास्टर को खींच कर एक दीवार से उन का सर पटका जाता है. लड़का उसी लड़की का भाई है, जिस लड़की से ये लड़के कह रहे हैं, मास्टर ने बदतमीजी की है. गोपाल हाथ जोड़ते हैं, रोते हैं. उन की नाक से खून बह रहा है. सब को लगता है, कुछ करना चाहिए. अपराध की काफ़ी सज़ा पा गए गोपाल मास्टर. प्रिंसिपल के पास जाते हैं सब. प्रिंसिपल लाचार है. वाईस-प्रिंसिपल जो सुबह प्रार्थना में गलती होने पर खूब हाथ जमाते हैं, वे किसी बहाने बाहर चले गए हैं.
सब का ध्यान शीतल दास वाले कमरे में जाता है. सब से तेज़ हैं, बोलने में भी कर्कश. लड़कों को झाड़ भी देंगे, समझा भी देंगे. सब उन के सामने बेबस से खड़े हो जाते हैं – ‘कुछ कीजिये. गोपाल बहुत पिट गए हैं.’
शीतल दास निस्पंद से सब पर अपनी नज़र टिकाते हैं. धीमे धीमे कहते हैं, जैसे ख़ुद से कह रहे हों – ‘गोपाल ने बदमाशी की है, तो भुगते न?’
समय बदलते देर नहीं लगती. मास्टर शीतल दास बुज़ुर्ग थे. सिंध से विभाजन के समय आए थे. लड़कियां और अध्यापिकाएं कभी कभी उन के बारे में बातें करते हुए कहती थी – ‘तीन बहुएं हैं, एक तो मायके भाग गई है.’
-‘क्यों क्यों?’
- ‘क्यों कि ससुर जो यमराज है ऐ नादान लड़की.’
बहरहाल. एक दिन सब कुछ बदल सा जाता है. हम सब बाहर मैदान में प्रार्थना कर रहे थे उस दिन. कभी कभी प्रिंसिपल अच्छे मौसम में बाहर बने एक ऊबड़-खाबड़ से मैदान में प्रार्थना करने भेज देते थे. वाईस-प्रिंसिपल उस दिन आए नहीं थे. एक मास्टर दयालदास प्रार्थना करवा रहे थे. प्रार्थना पूरी होती है. प्रार्थना के दौरान ही हम ने देखा, एक बाहर का व्यक्ति जिस ने कमीज़ और मैला सा पजामा पहन रखा था, उसने मास्टर दयालदास के कान में न जाने क्या कहा था. प्रार्थना पूरी हुई. हम आदेश का इंतज़ार कर रहे थे कि लाइनों में अपनी अपनी कक्षा में जाएं. पर मास्टर दयालदास जिन के पाजामे का नाला कई बार कुर्ते से बाहर लटक कर नज़र आने लगता था, उस ने सब को रोक कर कहा – ‘बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि...’ और उस की बात आगे आ कर एक अध्यापिका ने पूरी की – ‘कि मास्टर शीतलदास का...’
और बात पूरी करते करते उस अध्यापिका के चेहरे पर रंग-ढंग इतनी तेज़ी से बदले मानो उसे समझ ही न आ रहा हो कि अब ऐसे क्षण उसे अपना चेहरा कैसा बनाना चाहिए. पल भर में उस मैदान का दृश्य ही बदल गया. मास्टर लोग आपस में कुछ सलाह-मशविरा करने लग गए और लड़कों की तो हालत ही ख़राब थी. एक लड़का अचानक दोनों बाहें खोल कर हवाई जहाज़ सा बना कर खुशी में मारे उड़ने सा लगा – ‘हा हा हा हा हा .. मर गया मास्ट ...र्रर्र.’
कई लड़के भयभीत थे. पर एक दूसरे के कन्धों के गिर्द बाहें डाल कर टहलते हुए मानो आज की घटना का अर्थ समझने लगे. कई एक दूसरे के कानों में मुंह ले जा कर कानाफूसी करने लगे – ‘बहुत मारता था. कह रहे हैं आज ख़ुद मर गया. हा हा...’
-‘चुप बे, क्या भरोसा...’
लड़कियों की हालत विचित्र थी. वे झुंड के झुंड बना कर सोचने लगी कि अब हम सब को करना क्या होगा. क्या उस मास्टर को ज़िंदा करने की योजनाएं बन रही हैं?...
...इस बीच मास्टर दयालदास ने क्या किया कि अपनी दाईं हथेली खोल कर सब के मुंह में खल्ला दिखा कर चिल्ला पड़े- ‘लानत है तुम सब पर. मास्टर शीतल दास गुज़र गए हैं और तुम सब लट्टू भी खेलने लग गए...’ उस मास्टर के गुस्सा करने पर अक्सर अध्यापिकाओं को जी भर कर हँसी आ जाती थी. आज भी न जाने क्या हुआ कि एक अध्यापिका हँसी को पल्लू में दबाती हुई दूसरी को कंधे पर टोहका मार कर आगे खिसक गई... एक सीनियर अध्यापिका ने घोषणा की- ‘सब बच्चे क्लास में जाएं. आज पढ़ाई नहीं होगी. जिस समय रिसेस होगी. हम सब मास्टर शीतल दास के घर जायेंगे...’
शीतल दास के घर के बाहर का नज़ारा ही अजीब था. बहुत विद्यार्थी उस स्क्वेयर में जमा हो गए जिस के तीन तरफ़ बैरकें थी और एक तरफ़ पथरीली सी सड़क. एक घर के बरामदे में शीतल दास जो यमराज माने जाते थे, का पार्थिव शरीर और उनके रिश्तेदारों की भीड़. बरामदे के प्रवेश पर लड़कियों का झुंड सा इकठ्ठा हो कर अन्दर झाँकने की कोशिश करता है. वही सीनियर अध्यापिका आती है. एक बड़ी कक्षा की लड़की उस के कान में फुसफुसाती है- ‘लोग कह रहे हैं कि वो.. वो जो जवान सी औरत इधर आ रही है, वही उनकी बहू है जो मायके भाग गई थी.’ अध्यापिका अपने चेहरे पर एक ठोस और गंभीर सी भंगिमा समय की नज़ाकत को पहचान कर बना लेती है और एक सहेली की तरह अपनी उस विद्यार्थी को चुप रहने का इशारा भी करती है. सब को कई कदम पीछे हट कर कहीं और झुंड बनाने को भी कहती है. लड़कियां सोचती हैं कि हमें तो रोना भी चाहिए, पर गुपचुप फुसफुसाती हैं – ‘रोना आए तब न! जान बूझ कर आंखों में मिर्ची डाल दें क्या...’
कोई लडकी कहती है – ‘जिस को सब से ज्यादा झाड़ पडी हो उस की, ऐसी कोई ढूंढ लाओ. मास्टर की झाड़ याद करके फूट फूट कर रोएगी...’
लड़के अपनी दुनिया में गुम हैं. कुछ सूझ नहीं रहा किसी को, कि हमें क्या करना चाहिए. कोई कोई लड़का झटपट बस्ता ले कर घर पहुँच गया और माँ को बता दिया, एक मास्टर गुज़र गया है.
माँ ज़बरदस्ती बीच में ही घर आए बेटे के मुंह में रोटी-सब्जी के टुकड़े ठूंसती पूछती है – ‘कौन सा मास्टर मर गया?’
लड़का अपना महत्व सा जताता कहता है – ‘है कोई.’ और फ़टाफ़ट दौड़ कर अपने झुंड में पहुंचना चाहता है.
एक लड़का दूसरों का ध्यान खींच कर सब को चकित कर देता है – ‘वो देखो, लोग कह रहे हैं कि डॉक्टर है. पर वह अपनी दवाइयों का बक्सा साथ क्यों ले जा रहा है????’
-‘अबे लोग बता रहे हैं मास साहब की बीबी बेहोश हो गई है, इसलिए.’
कुछ लड़के एक बैरक के पीछे लट्टू खेलने लग जाते हैं. कोई कोई लड़का दूर से ही घबराता सा ऐसे समय लट्टू खेलने वालों को देखता है, फ़िर मुस्कराहट आने पर हथेली से वह मुस्कराहट छुपा देता है. लट्टू खेलने वाला लड़का उसकी तरफ़ देख आँख मारता है तो वह बैठा हुआ लड़का उससे मज़ाक करता है – ‘मास सा’ब आ रहे हैं!...’
और एक लड़का अचानक तेज़-तेज़ और धुक्धुकाती साँस के साथ इधर क्यों आ रहा है? क्या कोई और बड़ी ख़बर सुनाने आ रहा है? लड़का यहाँ, लट्टू खेलने वाले ग्रुप के पास पहुँचता है और कुछ देर उसकी साँस फूल रही होती है, हांफता ही रहता है. कुछ बोल नहीं पाता.
- अबे बोल कुच्छ ..
वो हाँफते हाँफते कहता है – ‘वो जो.. वो जो.. डॉक्टर आया है न... एक लड़का कह रहा है कि वो डॉक्टर मास्टर को जिंदा कर सकता है...’
लट्टू खेलने वाले हाथ सहसा रुक जाते हैं. एक अजीब से भय की झुरझुरी सब के बदन में दौड़ जाती है. एक तेज़ सा लड़का चिल्लाता है – ‘तेरा दिमाग ख़राब है क्या? मरने वाला कभी जिंदा होता है?..’
हम बच्चे थे. क्या जानें कि ऐसा हो सकता है या नहीं. पर वो लड़का दावे के साथ कह कर मानो अपने भीतर का डर भी ज़ाहिर करना चाहता है, अपने करीबी मित्रों के बीच. उसी की दो तीन बार पिटाई भी की थी मास्टर ने जिसे लोग यमराज कहते थे. उस के पिता झगड़ा भी करने आए थे, पर मास्टर को तेज़ देख कर प्रिंसिपल से झगड़ कर चले गए थे.
न जाने किस ने यह भ्रम फैला दिया. किसी ने ऐसी कल्पना भर की होगी. वो लड़का कहने लगा – ‘पर एक बात है, वो डॉक्टर कह रहा है कि पाँच हज़ार दे दो, तो ज़िंदा कर दूँगा...’
सब चकरा जाते हैं. शरीर सुन्न से हो गए हैं. एक अजीब भ्रम सा...और किसी को सूझ ही नहीं रहा कि क्या करना चाहिए हम सब को. क्या जैसे क्लास में बैठते थे, वैसे ही यहाँ मैदान में पलथी मार कर बैठ जाएँ?...
सब को चारों तरफ एक उलझन का सा माहौल लगने लगा था...
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