Thursday, May 6, 2010

कुछ गजलें कुछ शेर


गज़ल - प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार
तनहाइयों ने बांहों में ले कर लिया उबार
चलती है दिल पे कैसी तो इक तेज़ सी कटार
डोली उठा के जाते हैं जब भी कोई कहार
दिन भर चले तो रात को आ कर के सो गए
फिर नींद की पनाहों में सपने सजे हज़ार
कितनी कशिश भरी है ये अनजान सी डगर
मिलता है हर दरख़्त के साए से तेरा प्यार
मौसम बदल बदल के ही आते हैं बाग में
आई है अब खिजां को बताने यही बहार
वादों पे जीते जीते हुई उम्र अब तमाम
अब कौन कर सकेगा हसीनों का एतबार
साकी की दीद करने को हम भी चले गए
रिन्दों की मैकदे में लगी जिस घड़ी कतार


साधू भी रंग गए हैं सियासत के रंग में
वादों से मोक्ष होगा ओ तक़रीर की जुनार

दिल को लगाने वाले मनाज़िर चले गए *
अब तो फकत बचे हैं ये उजड़े हुए दयार

नासेह दे गए हैं दीवानों को ये सबक
अब कोई चारासाज़ है कोई न गमगुसार **
(* ज़फर के प्रति श्रद्धांजलि सहित ** ग़ालिब के प्रति श्रद्धांजलि सहित)
(मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन)









गज़ल प्रेमचंद सहजवाला
हो गए हैं आप की बातों के सब मुफलिस शिकार
है खिजां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रौशनी दे कर मसीहा ने चुनी हंस कर सलीब
रौशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िन्दगी की सुब्हो-शाम
ज़िन्दगी पर फिर रहा कोई न अपना अख्तियार
मिल नहीं पाते शहर की तेज सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में कभी रूदादे-उल्फत थी लिखी
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)






गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जब कभी मौजें समुन्दर की करेंगी इन्किलाब
मांग लेंगी सब तेरे आमाल का तुझ से हिसाब

खेलने वाले हुए हैं आज दुनिया के नवाब
पढ़ने-लिखने वाले दिखते हैं ज़माने को खराब

एक लम्हा ज्यों सदी और इक सदी जैसे कि पल
कौन समझेगा यहाँ अब वस्लो- फुरकत के हिसाब

जब कभी माज़ी ने पूछे दिल से कुछ मुश्किल सवाल
तब ज़माने-हाल ने ही दे दिए आसां जवाब

बैठ कर फुर्कत के सिरहाने सुलगती रात में
पढ़ रहे हैं वस्ल के ख्वाबों की इक सुन्दर किताब

(फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन)


गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफर आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खुद को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी नज़र आती है रुख पर उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ रखो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
(फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन)




गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे

गरचे मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ
पर समुन्दर में सभी नदियों के शामिल आब थे

सुबह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे

कुछ कदम चलना तुझे था कुछ कदम फिर मैं चला
सामने फिर डूबने को इश्क के गिर्दाब थे

शहृ जब पहुंचे तो खुश थे फिर अचानक क्या हुआ
हादसों के सिलसिलों में हम सभी गरकाब थे
मंजिलों के सब मसीहा मील पत्थर बन गए
वो शहादत के सुनहले खूबसूरत बाब थे

ईद पर जब चाँद निकला सब सितारे खुश हुए
कर रहे फिर एक दूजे को सभी आदाब थे



















गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सब मनाज़िर हैं फज़ा के यूं निखर आए यहाँ
चाँद आ कर सिर्फ अपनी ज़ुल्फ़ बिखराए यहाँ

हर हवा का रुख बताया है यहाँ किस फर्द ने
और रफ्तारे-हवा भी कौन बतलाए यहाँ

शब की तारीकी में आँखें बंद थी, बस ख्वाब थे
दिन उगे ताबीर आ कर कौन समझाए यहाँ

जिंदगानी की बका पर कौन कर पाया यकीं
जाने किस लम्हे पे यारो मौत आ जाए यहाँ

कारवां में सब अकेले कारवां फिर भी है साथ
दोस्तो अब कौन इस उलझन को सुलझाए यहाँ

चुग गई है खेत जाने कितने चिड़िया वक्त की
फिर भी कितने लोग हैं जो पहले पछताए यहाँ

गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
कर नहीं पाते हैं क्यों अम्नो-अमां का एहतराम
सरहदों पर है फकत बारूद का क्यों इंतज़ाम

खत नहीं आते मगर खत की बनी रहती उमीद,
ज़िन्दगी यूं काश उम्मीदों में हो जाए तमाम

कौन बच पाया यहाँ पर ज़र ज़मीं ज़न से कहो
वो बिरहमन हो कोई या शैख हो या हो इमाम

आग नफरत की लगाई पहले सारे शहृ में
कर रहा है अब शहीदों को सियासतदाँ सलाम

औरतों का हक दिलाने औरतें आगे बढ़ी
चल पड़ी है रास्तों पर इक हवा सी खुश-खिराम




गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
शहृ से गर गांव तक कोई सड़क तामीर हो
गांव में और शहृ में फिर फासला शायद न हो

जिस तरह लिख कर गए जांबाज़ तारीखे-वतन,
उस तरह का फिर किसी में हौसला शायद न हो














गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला

रिश्तों को तोड़ कर जो अचानक चले गए
दिल में उन्हीं को पा के मैं हैरां हुआ बहुत

मेहनत के बाद बैठे थे जब इम्तिहान में
मुश्किल सा हर सवाल भी आसां हुआ बहुत

बस्ती में जब धुंआ उठा आई थी इक खबर
सुन कर हरेक शख्स हिरासाँ हुआ बहुत

जब झूठ पर तेरे न यकीं कर सका अवाम
किस दर्जा रहनुमा तू परेशां हुआ बहुत







गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला

चलो माज़ी के अंधियारों में थोड़ी रौशनी कर लें
वहां यादों के दीपों से फरोजां जिंदगी कर लें

मेरे महबूब तेरी दीद कब होगी ये क्या मालूम
तुम्हारी इंतज़ारी में ज़रा हम शायरी कर लें

तुम्हारे हुस्न को माबूद कर के बन गए काफिर
तुम्हारे आस्तां पर रख के सर अब बंदगी कर लें

समुन्दर अपनी जा पर करते रहियो देवताई बस
तेरे क़दमों को अर्पित शहर जब तक हर नदी कर लें

नदी पर जंग क्यों है किसलिए है आब पर फितना
मुहब्बत की नदी में मिल के आओ खुदकशी कर लें
(माज़ी = अतीत, फरोजाँ = प्रज्वलित, माबूद = पूज्य, आस्तां = चौखट, आब = पानी, फितना = झगड़ा).
Self Rating – Fair.

गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलने की रस्म यूं तो हमेशा वही रही
तेरी नज़र न जाने मगर क्यों फिरी रही

नाराज़ रहते हैं मेरे अहबाब किसलिए
उन को सलाम करने में अक्सर कमी रही

जीते हैं लोग और भी अपनी तरह यहाँ
अपनी ही सिर्फ ऐसी नहीं जिंदगी रही

गम को तो कर चले थे निहां दिल में हर जगह
चेहरे पे सिर्फ थोड़ी अयाँ बेबसी रही

बस्ती से भीड़ अपने घरों को हुई रवां
फिर भी फज़ा गुबार से दिन भर अटी रही

मिलते हैं रोज उफक पे ज़मीं और आसमाँ
सहरा में ये नज़र भी वहीं पर टिकी रही


गर्दन भले ही भूल से कुछ उठ गई हो पर
दस्तार फिर भी अपनी ज़मीं पर गिरी रही

मकतल से लाश ले गए क़ानून-दाँ मगर
पूरे नगर में छाई हुई सनसनी रही

(अहबाब = दोस्त (plural), मुफलिस = गरीब, निहां = छुपी हुई, जा-ब-जा = जगह जगह, अयाँ = ज़ाहिर).

self-rating – Fair.









गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
दो जिस्म एक जान का मंज़र ही हट गया
मिलते थे जिस के साए में वो पेड़ कट गया

वादा किया था बरसूंगा तेरी ही छत पे मैं
आई हवा तो वादे से बादल पलट गया

किरनों से खेल खेल के दिन हो गया तमाम
देखो उफक की गोद में सूरज सिमट गया

रंजिश जो सारी भूल के मिलने को आए वो
तब फासला दिलों का मुहोब्बत से घट गया








गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मगरूर ये चराग दीवाने हुए हैं सब
गरचे ये आँधियों के निशाने हुए हैं सब

इक कारवां है बच्चों का पीछे पतंग के
उड़ती हुई खुशी के दीवाने हुए हैं सब

पंछी घरों की सिम्त उड़े जा रहे हैं देख
कल फिर उड़ान भरने की ठाने हुए हैं सब

फुटपाथ हों या बाग-बगीचे हों शहृ के
लावारिसों के आज ठिकाने हुए हैं सब

मुझ को न कर हिरासाँ यूं ऐ कशमकश-ए-इश्क
मुश्किल किताबों के वो फ़साने हुए हैं सब

लुक छुप सी छत पे कर रहा है चाँद बार बार
बादल भी ढीठ कितने न जाने हुए हैं सब
(सिम्त = तरफ, हिरासाँ = भयभीत
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों का एक सहरा है चौतर्फ बेकराँ
ये शहृ है कि तिशनालबों का है कारवां
सैयाद के कफस में है मजबूर सिर्फ वो
परवाज़ तो परिंदे के पंखों में है निहां
धरती को कैसे बाँट दिया है जहान ने
खाता है खौफ कैसा तो यह देख आसमां
रस्ते पे चलने फिरने का उस्लूब और है
बेटी हुई है जब से मेरी दोस्तो जवां
बेटी को खुशनुमा सी हवाएं नसीब कर
पंखों से नाप डालेगी बेटी ये आसमां
कहती है जिंदगानी है इक इम्तिहान माँ
ससुराल का नहीं है पर आसान इम्तिहां
(बेकराँ = असीम, तिशना-लब = प्यासे, सैयाद = पंछी पकड़ने वाले, कफस = पिंजरा, निहां = छुपी हुई, उस्लूब = Style, शैली).




गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
ये खाली खाली दिन तेरे पैगाम के बिना
जैसे कि हो गिलास कोई जाम के बिना

राधा सकी न नाच कभी शाम के बिना
होती रुबाई क्या भला खैयाम के बिना

फस्ले-बहार जाने पे आए न क्यों खिजां
कैसे कोई किताब हो अंजाम के बिना

पूछा शजर ने तेशे से कटने पे यह सवाल
क्योंकर सज़ा मिली मुझे इलज़ाम के बिना

जिनको किया गया है खिरद की कफस में कैद
दीवारें उन दिलों की हैं असनाम के बिना




गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में अब अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रोशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब का ही रौशनी से मरासिम है दोस्तो
जलता चराग हो कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र कभी न देख
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा तुझे तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गयी बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इन्तेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).


गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
जिस्म तो दोनों लिपट कर के सरे-आम मिले
खुश्क आँखों से मगर अशक भी बहते कैसे

सारी खुशबू तो खिजां लूट गई जाने कब
गुल यह मेआरे-अदावत भी समझते कैसे

जब भी तूफान समुन्दर से शहर में आया
शहर के लोग संभलते तो संभलते कैसे

दिल के तालाब में यादों के कँवल खिलते हैं
वर्ना ये कोह से दिन रात गुज़रते कैसे

बाइसे खौफ है धड़कन में बला की तेज़ी
शहर के लोगों के दिल वर्ना धड़कते कैसे




गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला

इस बेबका जहान में है कौन मुस्तकिल
जब वक्त आ गया तो चले जाएंगे कभी

पूछेगा जब अवाम सवाल अपने, आप से
क्या आप सच ज़बान से फरमाएंगे कभी

1 comment:

Shanno Aggarwal said...

कुछ गजलें पढ़ पायी हूँ अब तक..बहुत खूबसूरत और सधे अहसास हैं...बाकी गजलें भी पढ़ रही हूँ धीरे-धीरे समय निकाल कर...