

हिंदू समाज बनाम मुस्लिम समाज
लेख – प्रेमचंद सहजवाला
दि. 8 फरवरी 2011 को विवाह की आयु से संबंधित एक याचिका के उत्तर में सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पिणी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि सरकारें विवाह के मामले में केवल हिंदू समाज के लिए सुधार लागू करती रही या विधेयक पारित करती रही परन्तु अल्पसंख्यकों के सिलसिले में सरकारों ने कुछ नहीं किया. यह टिप्पिणी सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका के उत्तर में की है जो ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ तथा उसकी दिल्ली शाखा ने इस निवेदन के साथ दी थी कि न्यायपालिका कृपया समस्त देश के लिये विवाह की एक उचित आयु निश्चित कर दे क्योंकि अलग अलग समुदायों के लिए अलग अलग आयुएँ होने के कारण काफी कुछ भ्रम सा पैदा हो रहा है.
यदि एक नज़र देखें तो यह प्रश्न बहुत आसान सा लगता है और ‘समान नागरिक संहिता’ का हल्ला मचाने वालों को एक अच्छा और सुनहला मौका भी मिल जाता है. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि हिंदू समुदाय इन तमाम परिवर्तनों में काफी सहनशील रहा है, परन्तु ऐसा ही अन्य धर्मों के समुदायों में कदाचित नहीं पाया गया जिस से ‘सेकूलारिज्म’ के प्रति देश की प्रतिबद्धता को ठेस पहुँची है. यदि हम इतिहास के पन्नों को खगालें तो यह अवश्य दिखता है कि प्रारंभिक ना नुकुर के बावजूद जब जब कानून में परिवर्तन आए तब तब हिंदू समाज ने नवीनतम कायदे कानूनों को काफी हद तक आत्मसात भी कर लिया, कम से कम शहरी हिंदू जनता को ले कर तो यह अवश्य माना जा सकता है.
सन् 1860 के ‘हिंदू विवाह अधिनियम’ के अनुसार पति पत्नी की ‘न्यूनतम सहमति की आयु’ केवल 10 ही वर्ष थी जिस से 19वीं शताब्दी के कतिपय महापुरुषों यथा गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे व बंकिमचन्द्र आदि को काफी ठेस पहुँची. तब जो धुआंधार अभियान इस न्यूनतम आयु को बढाने के लिए चलाया गया वह हिंदू समाज के इतिहास का एक यादगार अभियान था जो अंततः सन् 1891 के ‘Age of Consent Acct’ में जा कर संपन्न हुआ. इसके लिए देश के असंख्य बुद्धिजीवियों ने ब्रिटिश तक गुहार लगाई थी कि यदि कोई बालिका शादी करती है तो पति द्वारा उसके शारीरिक संभोग के लिए 10 वर्ष की आयु बहुत कम तथा नाज़ुक है. और बंबई में तो सवा दस वर्ष की एक नव-वधु पति द्वारा संभोगित किये जाने पर चल बसी थी, तब पोलिस ने उस के पति पर बलात्कार व हत्या का मुकदमा चलाया पर उस का पति इसी कारण साफ़ छूट गया था कि लड़की की आयु दस वर्ष से अधिक थी. परन्तु एक बात जो यहाँ लक्ष्य करने योग्य है वह यह है कि क्या हिंदू समाज उस नए अधिनियम को तुरंत मान गया था जिस के तहत यह न्यूनतम आयु 10 से बढ़ा कर 12 कर दी गयी थी? जब महापुरुषों ने ब्रिटिश के द्वार पर क़ानून परिवर्तन के लिए दस्तक दी थी तब ब्रिटिश ने साफ़ साफ़ कह दिया था कि पहले आप इस परिवर्तन के लिए अपने हिन्दू समाज को तैयार कीजिये. तब शुरू हो गया था एक आतंरिक युद्ध, समाज सुधारकों तथा शास्त्रांध बुद्धिजीवियों के बीच. दुर्भाग्य कि जो शास्त्रंध बुद्धिजीवी इस परिवर्तन के विरुद्ध थे उनमें लोकमान्य तिलक जैसे देशभक्त नेता स्वयं अग्रणी थे. दूसरी ओर थे गोपालकृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे व गोपाल गणेश अगरकर जैसे. इधर मीडिया की अपनी रोचक भूमिका रही. आयु बढ़ाने के लिये बंगाल की कई मासिक पत्रिकाएँ साप्ताहिक पत्रिकाओं में बदल गई और इस अभियान में प्रखर बुद्धिजीवी वर्ग, नाटककार. लेखक सब कूद पड़े. नाटकों में अच्छे भले घर की बहुओं बेटियों के प्रेम संबंध दिखा कर नारी की अपनी आकांक्षाओं इच्छाओं को उजागर किया गया. आखिर ब्रिटिश मान गई और 1891 का प्रसिद्ध ‘Age of Consent Act’ पारित हो गया जिसके तहत पति पत्नी के बीच शारीरिक संभोग की सहमति की आयु 12 वर्ष कर दी गई. परन्तु इस अधिनियम के पारित होते ही विरोधियों का हंगामा इस कदर उग्र हो गया कि जो पत्र पत्रिकाएँ अब तक इस बिल की प्रशंसा में कसीदे काढती रही थी, वे ही सहसा इस नई और उल्टी आंधी के तहत पैसा कमाने की होड़ में अधिनियम का विरोध भी करने लगी. कहना न होगा कि तिलक और गोखले, जिन के मतभदों से इतिहास के पोथे भरे पड़े हैं, के बीच का वाकयुद्ध बढ़ गया. तिलक कहने लगे – ‘जो शास्त्र पढते ही नहीं उन्हें शास्त्रों के बारे में बोलने का हक क्या है?’ इस अधिनियम के पारित होते ही एक बड़ी घटना तो यह घटी कि गोखले पक्ष के एक प्रसिद्ध समाज सुधारक गोपाल गणेश अगरकर का एक पुतला बनाया गया और पुतले के एक हाथ में उबला हुआ अंडा व दूसरे में व्हिस्की की बोतल थमा कर पुतले को पूरे पूना शहर में घुमाया गया और अंततः पुतले का अंतिम संस्कार कर दिया गया. हिन्दू समाज ही इस अधिनियम के पारित होने के बावजूद इस का विरोधी हो गया था. कलकत्ता में तो दो लाख लोगों की एक रैली निकली जिसमें इस अधिनियम के विरुद्ध गला फाड़ फाड़ कर नारे लगाए गए. कई महत्वपूर्ण लोग जहाज़ के रास्ते महारानी विक्टोरिया के पास जाने की योजनाएं बनाने लगे जहाँ वे जा कर हाथ पसारेंगे कि हे महारानी हमारी सभ्यता बचाओ, हमारी संस्कृति बचाओ! वहीं नारे भी लगे – ‘महारानी हमारे शास्त्र बचाओ, हमारी संकृति बचाओ...’ अधिनियम के पारित होने के बावजूद समाज ज्यों का त्यों रहा और उतने ही बड़े पैमाने पर बाल विवाह भी जारी रहे और बारह वर्ष से कम आयु की बाल वधुएँ पतियों की दानवीय हवस के नीचे पिसती रही. फिर आखिर हिन्दू समाज ही परिवर्तित क्योंकर हुआ? कदाचित देश में लॉर्ड मैकाले की नई अंग्रेज़ी शिक्षा से ही समाज में समुचित गति से परिवर्तन आए. शहरी समाज धीरे धीरे शिक्षित होने लगा और भारत की नारी व्यक्ति-स्वातंत्र्य या नारी पुरुष समानता जैसे मुहावरों को आत्मसात करने लगी. परन्तु उस समय भी जहाँ तक गांवों का प्रश्न था, वे बाबा साहेब आंबेडकर के उस वक्तव्य को तब भी अक्षरशः लागू करते रहे जो बाबा साहब ने देश की ‘संविधान सभा’ में तब दिया था जब वे आजाद भारत के नए संविधान का मसौदा ‘संविधान सभा’ में प्रस्तुत कर रहे थे. बाबा साहब ने यह मसौदा प्रस्तुत करते हुए पूरी संसद से पूछा था: ‘क्या भारत के गाँव तथा ग्रामीण समुदाय देश के साथ चल रहे हैं? वे तो मात्र अशिक्षा के अड्डे हैं या स्थानीयता के खड्डे!...’ इसलिए दरअसल यह कहना कि हिन्दू समाज ने बहुत आसानी से ज्यों का त्यों इन परिवर्तनों को स्वीकार कर लिया, शायद तथ्य की सटीकता से दूर जाना होगा.
सन् 1929 में महात्मा गाँधी ने एक तत्कालीन विधायक रायसाहेब हरबिलास सारदा को सुझाव दिया कि वे असेम्बली में एक बिल प्रस्तुत करें जिस में लड़के की शादी की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़की की 15 वर्ष निश्चित हो. इस बिल के समय मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि के रूप में मुस्लिम लीगी नेता मौलाना मुहम्मद अली ने अडंगी लगा दी थी. वे किसी दौरे पर इंग्लैण्ड गए हुए थे और जब लौटे तब उन्हें बताया गया कि ‘सारदा बिल’ के ज़रिये असेम्बली में लड़कों लड़कियों की न्यूनतम विवाह आयुएं क्रमशः 18 व 15 निश्चित की जाने वाली हैं. मौलाना मुहम्मद अली की नींद हराम हो गई और नींद और भोजन दोनों का त्याग कर के उन्होंने 24 घंटे में वाईसरॉय के लिए एक 25-पृष्ठीय ज्ञापन तैयार किया जिसमें उन्होंने वाईसरॉय को सख्त ताकीद की थी कि यह विधेयक मुस्लिम समाज पर कतई लागू नहीं होगा. नतीजतन ‘सारदा अधिनियम’ तो 28 सितंबर 1929 को पारित हो गया पर वह केवल हिंदुओं तक ही सीमित रहा. मुस्लिम लीगी नेता प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इकबाल की ‘टू नेशन थ्योरी’ में यह स्पष्ट था कि मुस्लिम समाज केवल शरिया को ही मान सकता है, किसी अन्य संविधान को नहीं. मुस्लिम लीग की असंख्य संगोष्ठियों का ही नतीजा था कि ब्रिटिश ने सन् ’35 में ‘मुस्लिम पर्सनल ला’ पारित किया. आज़ादी के बाद विवाह की आयुएँ 21 व 18 वर्ष कर दी गयी थी, परन्तु मुस्लिम समाज तब भी उस से अछूता ही रहा था.
मुस्लिम समाज ने ऐसे ही सन 80 के दशक में अपनी ही एक बेबस लाचार वृद्धा 75 वर्षीय शाह बानू के मुंह से देश की न्यायपालिका द्वारा बख्शा हुआ मामूली सा निवाला भी छीन लिया था. तब उच्च न्यालायाय ने इस महिला को, जो 50 वर्ष पति के साथ रही थी और 75 वर्ष की आयु में उसके पति ने उसे परित्यक्त कर के दूसरा विवाह कर लिया था, मात्र 179 रूपए 20 पैसे का मासिक खर्चा मंज़ूर किया था और देश भर में मुस्लिम समाज की हिंसक सी दिखती रैलियां होने लगी. ‘शरिया बचाओ सप्ताह’ मना कर इस लाचार औरत से वह नगण्य राशि भी छीन ली गई, जिसके लिए राजीव गाँधी जैसे आधुनिक शिक्षा प्राप्त हवाई कंपनी के पायलट प्रधानमंत्री ने पिछली तारीख में संविधान में संशोधन कर दिया था!
पर यहाँ भी क्या यह पूछना गलत होगा कि क्या हिन्दू समाज ने ही चुपचाप सारदा जैसे अधिनियमों को नमन कर के माथे टेक दिए थे? ऐसा कदापि नहीं है. यदि ऐसा होता तो आज़ादी के बाद देश के दो प्रसिद्ध बैरिस्टरों बाबा साहेब और पंडित जवाहरलाल नेहरू को अपनी ही भारी बहुतमत वाली हिंदू बाहुल्य संसद के आगे नाकों चने न चबाने पड़ते. उस बिल में हिन्दू समाज के लिए सुधार के स्वर्णिम अवसर थे. जैसे यदि कोई नारी किसी कारण पति से अलग रहती है तो उसे अपने लिए मासिक खर्चा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है. परन्तु ज्यों ही बाबा साहेब ने यह विधेयक संविधान सभा में प्रस्तुत किया था त्यों ही शास्त्रांध हिन्दू समाज के प्रतिनिधि हिंदू सांसदों को शायद ऐसा लगने लगा कि शास्त्रों में बैठे देवी देवता सहसा खून के आंसू बहाने लगे हैं. तब भी रैलियों से देश भर गया और लोग रामायण की उस सीता को याद करने लगे जो शाह बानू से भी अधिक बेबस और लाचार नारी थी. उसका निवाला किसी संसद ने नहीं छीना था वरन समाज के ही एक साधारण धोबी ने छीन लिया था. बाबा साहब ने क़ानून मंत्री का पद छोड़ दिया पर पंडित नेहरु ने ज़िद न छोड़ी और अलग अलग किस्तों में सही आखिर वही ‘हिंदू कोड बिल’ पारित हो कर रहा. परन्तु ‘समान नागरिक संहिता’ के वकील कृपया एक नज़र पूरे समाज पर डालें तो आज भी खाप पंचायतें ‘हिंदू विवाह अधिनियम 1955’ को नहीं मानती और उनके निजी कायदे कानूनों का जो उल्लंघन करे उसे जिंदा जलाने तक से बाज़ नहीं आती. वे खाप पंचायतें तो यहाँ तक कह चुकी हैं कि यदि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में परिवर्तन संभव न हो तो हमें कृपया किसी और धर्म में माना जाए!
परन्तु जहाँ शहरी हिन्दू समाज भी शास्त्रांध होने के बावजूद आधुनिक शिक्षा की छाँव में काफी कुछ नई आंधी को स्वीकार कर चुका है, वहीं मुस्लिम समाज सचमुच उतनी तेज़ी से नहीं बदला. हिंदू समाज के पास कई शास्त्र हैं पर मुस्लिम समाज पवित्र कुरआन को ईश्वर द्वारा लिखवाए गए आदेश के रूप में लेता है, इसलिए न तो तलाक संबंधी नियमों में परिवर्तन चाहता है न कि विवाह की आयु से संबंधित कोई प्रावधान आत्मसात करना चाहता है. उसके लिए शरिया ही एक मात्र जीने का अटूट संविधान है जिस से मुस्लिम समाज को ही अधिकाधिक नुकसान हुआ है. मुस्लिम समाज में तो कभी कभी हास्यास्पद घटनाएँ तक सुनने को मिलती हैं जिन के अंतर्गत यदि किसी मुस्लिम महिला का बलात्कार उस का ससुर कर दे तो वह मुस्लिम महिला पंचायत के आदेशानुसार रातोंरात पति की माँ बन जाती है और ससुर की बीबी! एक पति ने पत्नी को उसकी अनुपस्थिति में ही, जब कि वह मायके गयी हुई थी, तीन बार तलाक का उच्चारण कर के तलाक दे दिया था. पत्नी को पता ही नहीं और वह कुछ दिन बाद आ कर पति के साथ रहने भी लगी! परन्तु जिन लोगों की उपस्थिति में उस व्यक्ति ने पत्नी को तलाक दिया उन्होंने आ कर पत्नी को निकाल दिया और पत्नी ने यह पता चलने पर कि उसकी अनुपस्थिति में उसे तलाक दिया गया है, जा कर थाणे में पति के विरुद्ध बलात्कार का एफ.आई.आर दर्ज करा दिया!
आज कट्टर मुस्लिम समाज अपनी हर असामन्य और विद्रूपता भरी बात को अल्लाह द्वारा बनाया गया क़ानून मान कर स्वयं अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहा है. उन्नीसवीं सदी में मुस्लिम समाज के सब से पहले और धुरंधर नेता सर सैय्यद अहमद खान को यह शिकायत थी कि मुस्लिम समाज अनपढ़ है, इसीलिये हिन्दू समाज से पिछड़ गया है. उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि मुस्लिम समाज को शिक्षा मिलनी चाहिये पर उन्हें हिंदुओं से अलग कक्षाओं में पढाना चाहिए वर्ना हिन्दू जो अधिक शातिर हैं, वे पढाई में आगे बढ़ जाएंगे! परन्तु क्या सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम समाज के लिए उस शिक्षा का अभियान चलाया था जिसे ले कर उनकी मृत्यु के बाद ‘द आगा खान’ जैसे हैंडसम मुस्लिम नेता लड़े थे? ‘द आगा खान’ जैसे नेताओं ने तो ब्रिटिश वाईसरॉय को शिमला में जा कर हिन्दू जजों की एक बड़ी फेहरिस्त थमा दी थी कि हिन्दू समाज में इतने सारे जज हैं जब कि मुस्लिम समाज में केवल कुछ वकील मात्र ही हैं! यानी सर सैय्यद अहमद खान की मुस्लिम समाज को शिक्षित करने की उत्कट कामना की विरासत को उनके परवर्ती मुस्लिम समाज ने केवल राजनीतिक अधिकारों व बड़ी बड़ी नौकरशाही कुर्सियों को हथियाने तक सीमित रखा. शास्त्र से मुक्ति पाने का साहस शायद मुस्लिम समाज आज भी नहीं कर पाया जिसका सबूत है देवबंद के नए कुलपति मौलाना गुलाम वास्तान्वी के विरुद्ध उठी आंधी जिन के विषय में यह प्रसिद्ध हो गया कि वे मुस्लिम समाज में न केवल चिकत्सा या इंजिनीयरिंग की शिक्षा लाना चाहते हैं, वरन् मुस्लिम समाज को काफी हद तक आधुनिक भी बनाना चाहते हैं. आज मुस्लिम समाज को यदि ईमानदारी से हिन्दू समाज से कोई प्रेरणा लेनी ही है तो वह उस शहरी हिंदू समाज से प्रेरणा ले और स्वयं अपने लिए पहल करे, जिस हिंदू समाज ने न तो नवरात्रियों की नौ देवियाँ छोड़ी हैं, न राम या कृष्ण का त्याग किया है, और न ही महाशिवरात्रि के व्रत रखने छोड़े हैं , उनका मंदिरों में जाना आज भी बरकरार है और पंडितों से तिथियाँ निकलवाने की पगबाधा आज भी उनके पांवों में है, पर जो अपने व्यावहारिक जीवन को समुचित तरीके से ‘सेकूलर’ बनाए हुए है. ‘सेकूलर’ शब्द का सब से मौलिक अर्थ है किसी भी व्यावहारिक उलझन का समाधान शास्त्रों में न खोज कर व्यावहारिक जीवन में ही खोजना, न कि बिल्ली मर जाने पर पंडित से पूछ कर उतने ही वज़न की सोने की बिल्ली दान कर देने जैसी मूर्खताएं करना. जब शबाना आज़मी बुर्के के खिलाफ बोलती हैं तब उन्हें धमकियाँ मिलती हैं और जब जावेद अख्तर यह कहते हैं कि मुस्लिम महिला का दफ्तर जा कर नौकरी करना कहीं भी गलत नहीं है तब उन्हें भी धमकी भरे ई-मेल मिलते हैं. पर यदि मुस्लिम समाज को सचमुच इस देश के हिन्दू समाज के समकक्ष खड़ा होना है तो उन्हें शबाना और जावेद अख्तर जैसी आधुनिक शख्सियतों का अनुसरण करना पड़ेगा, न कि कठमुल्लों मौलवियों का जो स्टॉक एक्सचेंज में पैसा लगाना भी इस्लाम विरोधी मानते हैं! अपने कदम किस ओर मोडें , यह फैसला स्वयं मुस्लिम समाज के हाथ में है.
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