Saturday, March 12, 2011

कन्हैयालाल नंदन – एक रोचक प्रसंग


कन्हैयालाल नंदन – एक रोचक प्रसंग
प्रेमचंद सहजवाला
दि. 25 सितम्बर 2010 की दुखद प्रातः हिंदी पत्रकारिता व साहित्य जगत के एक सशक्त हस्ताक्षर कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे. उन्हें ले कर मेरी भी कुछ व्यक्तिगत स्मृतियाँ हैं, जिन में से एक रोचक प्रसंग मैं पाठक से बांटने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा. सन् 70-80 के दशक में मैं कहानी लेखन में खूब सक्रिय था. उस दशक में मेरी तैनाती लगभर चार वर्ष सोनीपत में भी रही और मैं हर सप्ताह दिल्ली अपने माता पिता व भाई बहनों से मिलने भी आता रहता. दिल्ली के साहित्यकारों से मिलने का सौभाग्य प्रायः प्राप्त होता और कहानी लेखन को ले कर कई वरिष्ठ साहित्यकारों से चर्चा परिचर्चा भी होती रहती.
दिल्ली में जिन सुपरिचित कथाकारों से मैं व्यक्तिगत रूप से परिचित था, उनमें कथाकार मणिका मोहिनी भी थी जो साऊथ पटेल नगर में रहती थी. उनके निवास पर कई साहित्यिक सरगर्मियां चलती रहती जिन में डॉ. रामदरस मिश्र, डॉ. महीप सिंह डॉ. नरेंद्र मोहन आदि भी अक्सर आते रहते. सोनीपत से मणिका मोहिनी जी से सहित्य चर्चा पत्र-व्यवहार द्वारा भी अक्सर चलती रहती. एक दिन मणिका मोहिनी का पत्र आया कि उनकी एक कहानी ‘सारिका’ में छपने वाली है और कि नंदन जी का पत्र उन्हें कल ही मिला है. शायद अगले अंक में छप जाए. नंदन जी तब ‘सारिका’ में नए संपादक बने थे क्यों कि कुछ अरसा पूर्व ‘सारिका’ कार्यालय मुंबई से शिफ्ट हो कर दिल्ली आ गया था.
उन दिनों सोनीपत जैसे छोटे स्टेशन पर पत्रिकाओं की प्रतीक्षा मैं बेताबी से करता था. स्टेशन की आधी छत वाले प्लेटफोर्म में प्रवेश करते ही बाईं तरफ एक पत्रिका स्टाल था जिसे एक वृद्ध व्यक्ति चलाता था. हाथ कांपते थे और बोलते समय आवाज़ भी. मैं एक दिन रात आठ बजे के लगभग इस स्टाल पर पहुंचा और पूछा – ‘सारिका’ आ गई? ‘धर्मयुग’ आ गया’?
वृद्ध बोला – ‘अभी जो गाड़ी आएगी, उस में से शायद कुछ पत्रिकाएँ बाहर प्लेटफोर्म पर फेंकी जाएँ. एकदम इंजन के पीछे वाले डिब्बे से’. मैं तत्परता से वहाँ तैनात हो गया जहाँ इंजन के होने की सम्भावना थी और कुछ ही देर बाद गाड़ी आई तो उस में से सचमुच, कैलेण्डर की तरह रोल किये पांच सात पत्रिकाओं के बण्डल फेंके गए और गाड़ी चली गई. मैंने झुक कर उस सरे बण्डल समूह को अपनी गोद में उठा लिया और तेज़ तेज़ भागता हुआ पत्रिका स्टाल तक पहुंचा. हांफता हुआ बोला – ‘ये लो, ‘सारिका’ भी आ गई, ‘धर्मयुग’ भी’. पत्रिका स्टाल का जो छोकरा पत्रिकाएँ समेटने प्लेटफोर्म पर घूमता है, वह खाली हाथ लौटा तो बुड्ढा मुस्करा कर बोला – ‘इन्होने ले ली. रोज़ आते रहते हैं’.
बहरहाल, मैं ‘सारिका’ और ‘धर्मयुग’ खरीद कर अपने कमरे में पहुंचा और सब से पहले यह काम किया कि ‘सारिका’ में मणिका मोहिनी की कहानी खोज कर पढ़ डाली. तब अकेला ही रहता था और शादी नहीं हुई थी. अगले दिन सुबह एक ‘इनलैंड लैटर’ पर मणिका जी को पत्र लिखने बैठ गया. मैंने लिखा – ‘मणिका जी, सच पूछें तो मुझे आपकी यह कहानी बिलकुल पसंद नहीं आई. एकदम बीस साल पुरानी सी कहानी लगी. इतनी पुरानी मानसिकता वाली कहानी की उमीद कम से कम आप से नहीं थी’. आगे कहानी संबंधी कुछ और बातें लिख कर मैंने वह ‘इनलैंड लैटर’ पोस्ट कर दिया. इस के बीसेक दिन बाद सारिका का अगला अंक आया तो मैं हैरान था. उस अंक के पाठकीय पत्रों में एक पत्र का शीर्षक था ‘बीस साल पुरानी कहानी’. मैं फ़ौरन सारा पत्र पढ़ गया. नीचे मेरा ही नाम लिखा था. मैं चकित था. कहीं मैंने वह पत्र मणिका मोहिनी की जगह गलती से ‘सारिका’ में तो नहीं भेज दिया था? पर ठीक तीसरे दिन दिल्ली गया तो घर में मणिका जी का फोन आया – ‘दिल्ली आए हो तो मुझ से मिल कर जाना. एक मज़ेदार बात बताऊंगी’. मैं शाम को ही उनके घर गया और बैठते ही उस पत्र का ज़िक्र छेड़ दिया. मणिका जी हंस कर बोली – ‘बैठो. इत्मीनान से ‘ब्लैक टी’ पियो. बताती हूँ’. फिर वे बोली – ‘पिछले हफ्ते नंदन जी यहाँ आए थे’. मणिका जी के निवास पर उन दिनों खूब साहित्यिक सरगर्मियों के अलावा कभी कभी कुछ लेखक व्यक्तिगत भेंट करने भी चले जाते और वहाँ बढ़िया कॉफी या ‘ब्लैक टी’ पी कर आते. मणिका जी बोली – ‘नंदन जी ने आते ही मेरी कहानी का ज़िक्र छेड़ा और बोले, क्या कुछ पाठकों ने तुम्हें प्रतिक्रियाएं भेजी? कुछ पत्र आए?’ मैंने उनकी तरफ सात आठ पत्र बढ़ा दिए कि इन सब ने मुझे कहानी पर बधाई दी है. सब ने मेरी तारीफ़ की है’ पर नंदन जी बोले –‘क्या किसी ने विरोध भी किया? किसी ने आलोचना की तुम्हारी कहानी की?’ तब मैंने आपका ‘इनलैंड लेटर’ बढ़ा दिया और बोली – ‘यह सोनीपत से प्रेमचंद सहजवाला का है. उन्हें मेरी कहानी पसंद नहीं आई’ नंदन जी ने फ़ौरन आपका पत्र पढ़ा और अपनी पॉकेट के हवाले कर दिया. बस, यह ताज़ा अंक देखूं तो आपका पत्र छपा है’. मैं सब समझ गया. मणिका जी बोली – ‘नंदन जी कह रहे थे, लेखक को केवल अपनी प्रशंसा सुनने का लोभ नहीं होना चाहिए. पाठकों की कटु प्रतिक्रियाएं भी काम आती हैं’. तब सचमुच बड़ी सख्ती वाले दिन थे. कोई कोई पाठक प्रेम कहानी पढ़ कर पेटी बुर्जुआ कह देता था या लिख देता था कि आप की नसों में तो नपुंसकता भरी है, अच्छी कहानी आखिर कैसे लिखेंगे. कईयों का तात्पर्य मार्क्सवादी कहानी या क्रांति वाली विद्रोही कहानी से होता.
मैंने मणिका जी से कहा - ‘पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी और संपादकों की झिड़कियां भी’.
इस पर मणिका जी को कोई प्रसंग याद आया और वे खूब हंस पड़ी. बोली – ‘आप को शीला झुनझुनवाला ने क्या झिड़की दी थी?’ मैं खूब शर्माया, पर बोला – ‘मुझ से शीला झुनझुनवाला बोली थी – ‘आप साहित्यकार हो या कपड़ा बेचने वाले. यहाँ क्यों नज़र आते हो?’ (यानी ‘हिन्दुस्तान टाईम्स बिल्डिंग में). तब हिमांशु जी उनसे बोले थे – ‘ये कभी कभी मुझ से मिलने आते हैं’.
मैंने कहा – ‘मणिका जी, शीला झुनझुनवाला ने इसके बावजूद हिमांशु द्वारा स्वीकृत कर के आगे बढ़ाई मेरी तीन तीन कहानियां छापी हैं’.
मणिका जी मुझे तसल्ली देती बोली – ‘इत्मीनान रखो. अब उन्हें यकीन हो गया है कि तुम कपड़ा बेचने वाले नहीं हो , साहित्यकार हो साहित्यकार. मैं अगले दिन ‘सारिका कार्यालय’, जो 10 दरियागंज में था की तरफ यूं ही कुछ लोगों से भेंट करने चला गया तो नंदन जी बाहर सड़क पर एक सफ़ेद कार में तेज़ी से प्रवेश कर रहे थे. मैंने नमस्कार किया तो बोले – आपकी चिट्ठी छाप दी है भाई और आपके संग्रह की समीक्षा अगले अंक तक आ जाएगी. अब चलता हूँ, ज़रा जल्दी में हूँ’. पर नंदन जी द्वारा छापी गई मेरी चिट्ठी को ले कर सोनीपत में एक रोचक सा प्रसंग भी चल पड़ा था. एक कोई प्रोफेसर बत्रा था (नाम परिवर्तित है). उन्होंने हाल ही में कहानियां लिखी शुरू की थी. वे मेरे पीछे पड़ गए कि मेरी कहानी के साथ तुम नंदन जी के नाम एक चिट्ठी लिख दो कि बत्रा मेरे दोस्त हैं, आप उनकी कहानी ज़रूर छापें. यह बात वहाँ की ‘लिटरेरी सोसाइटी’ के अध्यक्ष प्रो. शैलेन्द्र गोयल के घर हो रही थी. शैलेन्द्र गोयल फ़ौरन बत्रा से बोले – ‘ऐसा जोखिम कभी न उठाना. नंदन जी इनकी चिट्ठी छाप देंगे और आपकी कहानी लौट आएगी’. बहरहाल, प्रो. बत्रा तो बाद मंम अच्छा लिखने लगे और अपने बलबूते पर उनका काफी कुछ छपा पर नंदन जी ने जो मणिका जी से कहा कि ‘लेखक को केवल अपनी प्रशंसा सुनने का लोभ नहीं होना चाहिए. पाठकों की कटु प्रतिक्रियाएं भी काम आती हैं’, मेरे लिये एक इतने बड़े साहित्यकार से मिला हुआ एक महत्वपूर्ण पाठ हो गया, जो मुझे आज तक याद है, और जब तक मेरी कलम चलेगी तब तक याद रहेगा.

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