Saturday, July 14, 2012

संडे हो या मंडे...

संडे हो या मंडे... प्रेमचंद सहजवाला दारा सिंह की याद के चंद क्षण बांटना आज ज़रूरी हो गया है, क्योंकि अब रुस्तम-ए- हिंद हमारे बीच नहीं है. पर लगता नहीं है कि वह शख्स जो इस कदर दिलदार था कि जिस से मिलता उसे अपना बना लेता, वह कहीं गया है. अभी हाल ही की तो बात है, दूरदर्शन पर कब से एक विज्ञपन चल रहा है – ‘संडे हो या मंडे, रोज़ खाओ अंडे...’ कभी राजेश खन्ना की अमर फिल्म ‘आनंद’ याद आती है जिस में राजेश खन्ना किसी ‘मुकालात’ के संदर्भ में कुश्ती के आखाड़े के मालिक दारा सिंह के पास मदद को जाता है और आखाड़े का मालिक ऊपर गर्दन उठा कर एक नि:शब्द सी गाली उन बदमाशों को देता है जिन से राजेश खन्ना उर्फ आनंद सेहगल को निपटना है. पर इन फ़िल्मी बातों से भी अलग अगर कभी ज़िंदगी में दारा सिंह को प्रत्यक्ष में देखने का सु-अवसर चंद मिनटों को ही मिला हो तो वे चंद क्षण किसी के लिये भी अनमोल हो सकते हैं. मैंने ऐसे ही चंद मिनट एक सुनहली याद की तरह संजो रखे हैं जिन्हें मैं अक्सर याद रखता हूँ, संडे हो या मंडे... यह लगभग सन 1979 की बात है. मुंबई से हमारा कोई बहुत करीबी परिवार दिल्ली आया हुआ था. कुछ दिन दिल्ली-दर्शन व अनेकों स्थान घूमने के बाद आखिर वह दिन आ गया कि संबंधित परिवार पालम हवाई अड्डे से मुंबई वापस जाए. हमारे उन आदरणीय करीबी संबंधी ने दिल्ली में एक कूलर भी पसंद कर लिया था और उनके साथ वह कूलर भी हवाई जहाज़ के कार्गो में चढाना था. मेरे भाई को यह ज़िम्मा दे दिया गया और हम सब पहुँच गए हवाई अड्डे, उन सब को छोड़ने. हवाई अड्डे का तब मुझे अधिक अनुभव ना था. पर आजकल की तरह केवल यात्रा करने वाले ही अपने टिकट दिखा कर अंदर जा सकें, ऐसा नहीं था. हम सब उस भीड़ में शामिल थे जिस के बीच एक लंबी सी कतार लगी थी जहाँ से उस काऊंटर तक पहुंचा जा सके जहाँ कि टिकट दिखा कर बोर्डिंग पास लिया जाए. संबंधी इधर उधर खड़े सब से बतिया रहे थे और उनकी जगह लाईन में खड़ा हो गया मैं. भाई कूलर को एक ट्रॉली में बिठा कर किसी और काऊंटर से उसकी औपचारिकताएं पूरी कर लाया. उस लाईन के साथ साथ ही ट्रॉली को धीरे धीरे खिसकाता मेरा भाई चिल्लाया – ‘सब हो गया. कूलर भी इसी प्लेन में जा रहा है...’ तभी पीछे से कोई मज़बूत पर अपनेपन भरी आवाज़ आई – ‘हा हा... कूलर क्या बॉम्बे में नहीं मिलता?’ पीछे मुड कर देखना स्वाभाविक था. मेरा भाई उत्तेजना में चिल्ला पड़ा – ‘दारा सिंह पहलवान. क्या हाल है.’ स्वाभाविक था कि उत्तेजना में ही मैं भी पीछे मुड़ कर देखूं. सचमुच, पांच सात नंबर पीछे साक्षात् दारा सिंह स्वयं खड़े थे. फिल्म अभिनेताओं को देख कर जो उत्तेजना मन में आ ही जाती है, वही मुझ में भी आना स्वाभाविक था. मैं लपक कर उन तक पहुंचा और कितनी तेज़ी से उन से हाथ मिलाया, बता नहीं सकता. यह बात दीगर है कि बाद में मैंने जिस जिस दोस्त को बताया कि मैं दारा सिंह से हाथ मिला कर आया हूँ, उसने लपक कर मेरा हाथ चूम लिया, यह भी कहा – ‘पहलवान बन गए होगे तुम भी, अभी तक तो ‘थॉरो जेंटलमैन’ हो. बहरहाल, मैंने दारा सिंह से कहा – ‘आप लाईन में आगे आगे जाइए ना, आप भी क्या लाईन में चल चल कर अपने नंबर का इंतज़ार करेंगे?’ तब तक एक छोटी सी भीड़ दारा सिंह के आसपास जमा हो गई. लोग लाईन तोड़ तोड़ कर उन के गिर्द इकठ्ठा हो रहे थे, एक ने कहा, जो कि मेरे पीछे ही था –‘मैंने पहले ही पहचाना था. दो चार ने कहा है कि आप आगे आगे जाओ पर नहीं मान रहे.’ दारा सिंह ने झटपट मुस्करा कर कर कइयों से हाथ मिला कर सब से कहा जा कर मुस्तैदी सी लाईन में खड़े हो जाओ, नहीं तो हाथ मिलाने के कारण हाथ मलते ही रह जाओगे मैं प्लेन में चढ़ जाऊँगा, प्लेन उड़ जाएगा....’ पर शुक्र, कि उस ज़माने तक अभी दूरदर्शन ही नहीं आया था, सो रामानंद सागर के धारावाहिक ‘रामायण’ का प्रश्न ही कहाँ था. वर्ना बहुत नकली तरीके से मुझे भी उनके चरणों में गिर जाना पड़ता, जैसे असली मंदिर में भी मैं करता हूँ. उन दिनों यानी रामानंद सागर के दिनों एक होड़ सी थी कि अरुण गोविल अगर किसी चुनाव सभा में पहुंचें तो बड़े से बड़ा नेता भी उन के पाँव छुए, क्योंकि वे तो साक्षात् भगवन रामचंद्र थे न. बहरहाल, वे सुंदर क्षण थे, जब हर कोई मुड़ मुड़ कर उस छः फुट दो इंच लंबे और पचास इंच चौड़ी छाती वाले रुस्तम-ए- हिंद को देख रहा था, जिसने पहली बार कुश्ती में विश्व चैम्पियनशिप सन् 1968 में जीती और उसके बाद सन् 1983 तक वह कभी नहीं हारा, या तो जीता या मुकाबला ‘ड्रा’ हुआ. मुझे आज भी, लाईन में खड़ा वह सभ्य सौम्य मुस्कराता अपनेपन से भरा अनुशासनप्रिय दारा सिंह हर समय याद रहता है, और दूरदर्शन पर ‘संडे हो या मंडे...’ विज्ञापन का वह परिवार भर को आशीर्वाद देता दारा सिंह भला कौन भूलेगा? इस आत्मीयता की प्रतिमूर्ति शख्सियत को मेरा सलाम.

No comments: