Sunday, June 2, 2013

जाने भी दो...

कोई जमाना था जब मैं कुछ दार्शनिकों की पुस्तकें बड़े चाव से पढ़ता था. ज्यां पॉल सार्त्र के बारे में बताती एक किताब में मार्क्सवादियों और सार्त्र के बीच चले एक लंबे वाक्-युद्ध का बहुत रोचक वर्णन था. सार्त्र कहते कि एक व्यक्ति को क्या चाहिए यह वह खुद अपने आपसे जान सकता है जबकि मार्क्सवादियों का तर्क था कि कोई व्यक्ति अपनी समस्या व दुःख अपने वर्ग के लोगों के चेहरों को देख कर ही जान लेता है. वह बहस अंतहीन व इस कदर रोचक थी कि पढ़ते बनती थी. आज एक लेखक के वक्तव्य भर से उसे सी.आइ. ए का एजेंट कह देने की दृष्टता हो रही है तो मैं सोच रहा था कि अगर उस ज़माने में भी यही रोग होता तो सार्त्र को भी सी.आइ.ए का एजंट माना जाता और फिर जर्मन-फ़्रांस युद्ध में घायलों की दुर्दाशएं देख कर जब सार्त्र को अपने ही विचारों के विरुद्ध ठेस लगी और वे अपने ही फलसफे को लेकर बहुत दर्दनाक स्प्लिट में फंसे तब शायद कहने वाले यह भी कहते कि अब तो सार्त्र भी के.जी.बी का एजंट बन गया है. यह लिखते समय मुझे यह भी पूरा पता नहीं कि उस समय सी.आइ.ए या के.जी.बी होते थे या नहीं या इस कदर चर्चा में थे या नहीं, पर एक वैचारिक युद्ध जो वैचारिक स्तर पर खूंखार सा लगता था, उसमें कभी किसी ने किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं किये. जो फब्तियां कसी गई वे विचारों पर आक्रमण थीं न कि व्यक्तियों पर. आज फेसबुक का ज़माना आ गया है और सबसे बड़े दुःख की बात है कि एक जिम्मेदार दैनिक अखबार तक फेसबुक की अधिकांश गैर-जिम्मेदाराना बहसें पहुँच रही हैं और एक गणमान्य संपादक को उसमें कूद कर अपने शब्दों का रक्त बहाना पड़ रहा है. मैं तो कहूँगा कि फेसबुक को इस कदर चढाओ ही मत कि उसकी टुच्ची टुच्ची बहसें और बातें भी एक राष्ट्र स्तर के अखबार तक जा पहुचें. कमलेश या अशोक वाजपेयी या उदयन अगर फेसबुक मेंबर नहीं हैं तो इसके साथ ही वे अन्य कई जगहों पर भी नहीं जाते होंगे जहाँ कदाचित उनकी पीठ पीछे उनकी पिटाई तक हो जाती होगी. क्या इस से उनके विचारों या शख्सियतों पर कोई असर पड़ता है? सो ए.बी.पी न्यूज़ के अंदाज़ में ही कहना पड़ रहा है – ‘जाने भी दो’!

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