Monday, May 12, 2014

पुरुष - कहानी: प्रेमचंद सहजवाला



पार्क में प्यार करना भी कितना बड़ा समझौता लगता है! न मैं सरीन सर के घर जा सकती हूँ न वे मेरे घर आ सकते हैं. दोनों के विवाहों के जो बंधन बीच में हैं!

पार्क में घुसते समय दिल बड़ा बड़ा सा हो गया था. बहुत विशाल सा पार्क है और ऊपर देखो तो उतना ही विशाल सा आसमान, जैसे भगवान ने प्यार के लिये बहुत बड़ा कैनवास खींच कर रख दिया हो! हम साथ साथ चलते चलते उस पक्के रास्ते पर आगे बढ़ते रहे, जहाँ सामने एक विशाल सा गुम्बज़ था. इस गुम्बज़ के गिर्द कई बच्चे बैठे थे जो शायद पिकनिक पर आए थे. शाम इन सब के ऊपर एक आशीर्वाद सी गिरी हुई थी. सब कुछ सुखद सुखद सा लग रहा था. चारों तरफ फूल ही फूल, एक खुशबू का साम्राज्य सा था, सरीन सर ने क्या किया कि मेरी कमर के गिर्द अपनी बांह डाल दी, थोड़ी सी नर्वस ज़रूर हुई मैं, पर सोचा पतिदेव तो यहां से बहुत दूर हैं.  इस तरफ आते ही नहीं, लगभग दूसरा ही शहर है मानो यह. ऐसे जोड़ा सा बन कर आगे बढ़ना बहुत प्यारा सा लग रहा था.

*   *

उस पक्के रास्ते पर जिस की दोनों तरफ बहुत से लोग बिखरे बिखरे ढंग से चल रहे थे, कोई तेज़ तेज़ वाकिंग कर रहा है, कोई सामने खड़े किसी की तरफ रिंग फेंक रहा है, कोई कुछ कोई कुछ, हम कुछ सुनसान सा तलाशने लगे. जहाँ खामोशी हमारी इस आज़ादी को ढक दे, जहाँ बैठ कर लगे जैसे हम तो दो आत्माएं हैं, और इस समय प्यार कर रही हैं, वो भी सेक्स के ज़रिये! और सचमुच, बीच के अति सुंदर लॉन जिस की घास बहुत कलात्मक तरीके से कटी थी और सुंदर सुंदर हरी चादर सी लग रही थी, उस पर सिर्फ एक जोड़ा बीचोबीच ऐसे सतर्क तरीके से बैठा था जैसे पूरे लॉन में छुप छुप कर बैठे जोड़ों की रखवाली के लिये सबने मिल कर उसे बिठा दिया हो क्योंकि इस चौकोर से लॉन के चारों तरफ दीवार की तरह बने पौधों पौधों के अंदर साज़िशों की तरह हमारे ही जैसे जोड़े थे, जो आत्माएं बन गए थे और प्यार कर रहे थे, वह भी सेक्स के ज़रिये!

रात और शाम के बीच का सनसनीखेज सा अँधेरा. जो डर भी बढ़ा रहा था और निडरता भी. जिस में शर्म भी आ रही थी और बेशर्मी भी! सरीन सर ने क्या किया कि ऐसे ही किसी कोने में काफी देर मेरे गालों को चूमने चाटने के बाद पूरा ही लिटा दिया मुझे, और फिर बस, सब कुछ खुलता गया. हमारा साथ देने के लिये कायनात अँधेरे की और और चादरें नीचे गिराए जा रही थी. और मैं खुली खुली एक भोजन की थाली सी सरीन सर के नीचे बिछी थी. सोच रही थी घर का बेडरूम हो तो कितना अच्छा हो! नो फीअर नो शेम. आल अपना अपना. जब निपट कर उठे और फिर उसी पब्लिकिया पक्के रास्ते पर आए तो चलते चलते लग भी रहा था कि यह सब कुछ असामान्य सा था, सब के बीच, न कोई प्राईवेसी ना कोई गोपनीयता! अच्छा होता!...

फिर मैं और सरीन सर वहाँ घूमने लगे तब तक जगह जगह बत्तियाँ जल चुकी थीं. हम एक ‘आशियाना’ रेस्तरां में बैठ गए. खूब खाया पिया जैसे चोरी से उड़ाई हुई खुशी को ढक रहे हों. सरीन सर बोले – ‘फिर कब मिलोगी?’

-          ‘रोज़ तो मिलते हैं!’

-          ‘नहीं, इस तरह!’

-          ‘इस तरह मिलना आसान है क्या? किसी दिन तूफ़ान खड़ा हो जाएगा!’

-                      ‘तूफ़ान खड़ा थोड़ेई होता है. वह तो आता है, बस जाता है...’ सरीन सर महत्वपूर्ण बात का जब जवाब नहीं दे पाते तो मज़ाक में ही उसे उड़ा देते हैं!  और मैं हूँ कि उलझ सी जाती हूँ. जो कुछ हम चोरी से करते हैं, वह सब कुछ खुल कर क्यों नहीं कर पाते. कभी कभी बड़े हास्यास्पद से ख़याल आते हैं. लोग बिजली की चोरी करते हैं तो कई लोग कहते हैं न, गरीबों को यह बिजली लीगली दे दो भई! हा हा ... मुझे तो अपनी ही सोच पर हंसी आ जाती है. कहाँ की बात कहाँ ले जाती हूँ मैं... मैं खुद को ही एक सहेली बना कर पूछती हूँ – ‘भला सेक्स के मज़े का बिजली की चोरी से क्या वास्ता! पर ठीक तो है, आवश्यकता आविष्कार की जननी है. जब शरीर अपनी ज़रूरतों के लिये प्यासा बन यूं ही कूकता रहता है, जब किसी हट्टे कट्टे को, जैसे सरीन सर हैं, या जैसे गुक्की था, या जैसे पहले नैय्यर आया था, को देख कर अगले ही क्षण उसके सामने नग्न हो कर सो जाने का जी चाहता हो, तब सदियों के बोझ तले क्यों दब जाती है आत्मा? क्या पत्नी बनने का मतलब ही यह है कि हथकडियां पड़ गईं बस! अपने ऑफिस जाओ, काम कर के आओ और तनख्वाह से जिंदगी बाग बहार समझ लो! क्या समाज हमारी नौकरी से कुछ प्राप्त नहीं करता? क्या इतनी मुश्किल नौकरी जिसमें लैपटॉप लिये बैठे रहो और कंपनियों की कंपनियां तलाशते रहो ताकि उनसे संपर्क कर के हमारी कंसल्टेंसी कंपनी आगे बढे, करोड़ों कमाए, यही है हमारा सब कुछ! घर की हर जिम्मेदारी पूरी करो, हर चीज़ अप टु डेट रखो. बजट अच्छा बनाओ. पति के दुःख सुख में साथ दो. हारी बीमारी में समर्थ भी मेरा कम साथ नहीं देता. एक पर्फेक्ट गृहस्थी है फिर भी यह कमी क्यों अधूरी रह जाती है? हम क्यों नहीं अपनी नैसर्गिक पुकारों को जवाब दे पाते? क्या एक फैमिली बन कर जीना ही नियति है? क्या पति पत्नी जैसे स्कूल में थ्री लेगेड रेस होता था, इस में दो दो लड़कियों की एक एक टांग आपस में बंधी होती है और ऐसे सब जोड़े वन टू थ्री कहते ही रेस लगाते हैं, वैसे दौड़ते रहना ही घर परिवार है? घर में व्यक्ति एक इकाई बन कर क्यों नहीं जी सकता? मैंने हर बार दोस्त बनाया. पति से चोरी कर के एन्जॉय करती रही, पर फिर भी ऐसा क्यों लगता रहा कि बस, मैं तो चोर ही हूँ ना! एक औरत तो हूँ ही नहीं मैं. पर एक दिन सहसा मुझे लगा था कि कोई खिड़की खुली है, मेरी सोच वाला शहर यह बन रहा है. यह तो महानगर है न, देश की राजधानी. पहले तो यह शहर ऐसा बने, जिस में पति पत्नी दो स्वतंत्र इकाइयां हों, पति का अपना जीवन हो, पत्नी का अपना जीवन. पत्नी पर पवित्रता की ज़ंजीरें जकड़ी हुई ही ना हों! पर एक दिन लगा जैसे मैं यूं ही अपने आप में डरी सहमी सी रहती हूँ. सब जगह तो यही सब हो रहा है! अक्सर हम सहेलियां आपस में बहस करती रहती हैं तो मैं सब से ज़्यादा चुप रहती हूँ या सब से ज़्यादा बढ़ चढ़ कर बोलने लगती हूँ. ऐसा ही होता है, किसी ग्रूप में लोग जिसे आम तौर पर ‘करप्ट’ लड़की कहते हैं, चलते चलते वह लड़की या तो चुप रहती है या मौका मिले तो एकदम सती सावित्री सी बातें कर के उन लड़कियों को कोसने लगती है जो आज़ाद परियों सी जीती हैं. पर उस समय मन में कोई कचोट सी महसूसती मैं अपने आप से तर्क वितर्क करने लगती हूँ – ‘आखिर उन्हें ‘परियां’, वो भी ‘आज़ाद’ कहा ही क्यों जाता है, उन्हें सिर्फ और सिर्फ ‘औरत’ क्यों नहीं कहा जाता! ‘आज़ाद’ अलग से  कहने की ज़रूरत क्या है, जब वह एक व्यक्ति के तौर खुली हवा में जीती है, तो आज़ाद तो है ही ना वह!’

 

उस दिन मैं ऐसे ही एक और एरिया में चली गई थी. जानती थी कि इस तरफ पतिदेव श्री समर्थ के दफ्तर का इलाका है. पर यहाँ तो मैं किसी सहेली से मिलने आई थी. आज सैटरडे था सो मेरी तो छुट्टी थी और समर्थ का आज भी ऑफिस था. ऐसे में मुझे हर सैटरडे मौका मिल जाता है कि किसी ज़रूरी जगह हो आऊँ या कोई शॉपिंग वॉपिंग निपटा आऊँ.  इस सैटरडे को सोमा ने बुलाया था. कह रही थी कभी आओ ना, कुछ समय काटेंगीं. गहरी गहरी बातें करेंगीं. ऑफिस के कुछ शत्रुओं से निपटने के तरीके सोचेंगीं. थोड़ा समय रेस्ट करेंगीं. फिर शाम चाय वाय के लिये नज़दीक ही बीकानेरवाला या मैकडोनाल्ड वैकडोनाल्ड चली जाएँगीं बस. उसके बाद छुट्टी! सोमा माँ के साथ रहती है. अभी शादी नहीं हुई. ऊपर उसी बिल्डिंग के एक फ़्लैट में उसके भैया भाभी रहते हैं, पर कुल मिला कर सोमा और उसकी विधवा माँ अपने आप में एक अलग संसार हैं.

*   *

उस दिन उस एरिया से निकल कर पैदल चलते चलते पहुँच गई नेहरू पार्क. आसपास डिप्लोमेटिक कॉलोनी है, कहीं न्याय मार्ग है तो कहीं धर्म मार्ग. ये सब नाम पढ़ कर हंसी भी आती है कभी कभी, कहाँ का न्याय और कहाँ का धर्म, कहाँ की नीति भला, यहाँ तो न कोई धर्म है न नीति!. पर नेहरु पार्क के बाहर से ऑटो पकड़ने के लिये रोड पर रुकी ही कि लगा जैसे सामने ही समर्थ घुसा है किसी के साथ. और अंदर घुसते घुसते उसने उस ‘किसी’ की कमर में हाथ डाल दिया है. जिस जगह मैं खड़ी थी उस जगह से अंदर पार्क के पक्के रास्ते पर चलते लोगों के सिर्फ सिर नज़र आ रहे थे. सिर्फ मन में जिज्ञासा जाग उठी थी बस, कि समर्थ उस ‘किसी’ के साथ क्यों जा रहा है. उसके ऑफिस की कोई फ्रेंड है तो कोई बात नहीं पर उसने उस औरत की कमर में हाथ क्यों डाल रखा है. उस दिन मैं मजबूर सी हो गई थी. झाँक झाँक कर चलने और पीछा करने से कहीं बेहतर है थोड़ी सब्र कर लूं. अँधेरा होने दूं, या अँधेरे की कम से कम कुछ परतें तो उतरने दूं इन अनगिनत प्रेमी जोड़ों पर. यहाँ भी कोई जॉगिंग में लगा था कोई एक ही जगह खड़ा ऊठक बैठक रहा था पर दूर किसी कोने में समर्थ भी ज़रूर, उस महिला के साथ कहीं बैठ गया होगा.

 

समर्थ बैठा था, जब अँधेरा थोड़ा सा ही गहराने पर मैं वहाँ से चल कर एक और गेट से कुछ इस तरह अंदर घुसी कि दो बड़े बड़े लॉनों  के बीच पौधों की दीवार के उस तरफ प्रेमी जोड़ों का एकांत सा हिस्सा हो और इस तरफ मैं हूँ, जॉगिंग या व्यायाम या बच्चों के साथ दौड़ा दौड़ी करते लोगों के बीच.

 

सब कुछ देख लिया मैंने, किसी मौके वाले कोने से. समर्थ उस औरत के साथ निर्द्वन्द्व सा नीचे एक कोने में बैठा था. दोनों के पाँव अपने से दूर फैले थे और समर्थ ने इस औरत के कंधों को घेर अपनी बाँहें डाली हुई थी. किसी किसी क्षण खींच कर वह उसकी पीठ पर ऐसा ज़ोर देता कि औरत का कमर से ऊपर का शरीर झूल कर समर्थ के सीने से जा लगता. यह सब थोड़ी दूर कहीं से मानो बेअदबी सी करती आ रही थोड़ी सी रौशनी में देख, जाने क्यों, मुझे एक अजीब सी खुशी हो रही है. खुद पर फिर हँसने लगी हूँ. क्या ऐसी मूर्ख औरत भी होती है कोई! अपने ही पति की बांहों में कोई और औरत देख जा कर रस्सी से फंदा न लगा ले खुद को! या अपने रिश्तेदार इकठ्ठा कर के घर में तूफ़ान न खड़ा कर दे! जैसे सरीन सर कह रहे थे, तूफ़ान खड़ा थोड़ेई होता है, वह तो आता है और जाता है बस. और उस के घर भी एक तूफ़ान आए और जाए बस, पर फिर अगले क्षणों की सोच में अँधेरा सा छाने लगा. फिर सब कुछ शांत शांत सा हो जाए. ना समर्थ हो ना वो पहले वाला घर! अपने मायके में बैठी हूँ मैं, पिता माता पर बोझ सी बनी, दूसरी शादी की चिंता में डूबी. जिस तिस से इसी उम्मीद में दोस्ती रखती कि क्या पता मैं इसे पसंद आ जाऊँ और यह मुझ से शादी का प्रोपोज़ल खुद ही रखे! और वह मुझे चूस चास कर चलता बने बस! यह सब मुझे बकवास सा लगता. बजाय इस के कि मैं अचानक उस जोड़े, यानी समर्थ और उसकी प्रेमिका के सामने अचानक प्रकट हो कर उन्हें चौँका दूं, मैंने वहाँ से उस खुशी को चुपके से समेट कर खिसकना ही ठीक समझा. इत्तेफाक कि ज्यों ही निकली हूँ एक ऑटो मिल गया है. ऑटो में बैठते ही दिन भर की थकान और दिमाग पर बातों का दबाव महसूसती मैं अपना सिर पीछे टिका कर आँखें मूँद लेती हूँ, एक अजीब से सुकून के साथ, कि ऑटो वाले होशियार होते हैं. इन सब को पता है कि पटेल नगर कौन सा रास्ता जाता है. जब पटेल नगर मेट्रो स्टेशन आ जाएगा तब जाग कर बताना काफी होगा कि कौन सी जगह दाहिने मुड़ो और कौन सी जगह बाएं.

 

*   *

मैं आश्वस्त सी जी रही थी. सोचती थी यह घर चलाने का कितना सुचारू रास्ता है. मैं और समर्थ एक एक इंडीविजुअल बन के जियें. समर्थ की अपनी बाहरी ज़िंदगी हो और मेरी अपनी. जैसे मैं अपनी पसंद का खाती पीती हूँ और वह अपनी पसंद का. मैं अपनी मित्र मंडली बनाती हूँ वह अपनी. ऐसे ही अपनी अपनी शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने की आज़ादी एक दूसरे को हम क्यों नहीं दे सकते! आखिर दुनिया में दूसरे देश भी तो हैं, वहाँ यह सब होता नहीं क्या. क्या वहाँ के देश प्रगति नहीं करते? क्या हिंदुस्तानियों की तरह प्रेम होते ही सब कुछ भुला कर बर्बाद होना शुरू कर देते हैं? इतने सारे सैटिलाईट, इतनी सारी वैज्ञानिक प्रगति, इतने सारे नोबल पुरस्कार तो उन्हीं देशों के है, जिन में नारी पुरुष दोनों बराबर हैं. इत्ते से शरीरों पर बंधनों की हथकड़ियां क्यों? पवित्रता का बोझ क्यों? इस देश में उस औरत को पूजा जाता है जो पति के श्राप से ही पत्थर बन गई थी, या जो एक रानी होते हुए भी चुपचाप महल से निकल गई थी. और जा कर धरती में समा गई थी. इस देश में तो गर्भवती कंवारी लड़की को उसके पिता माता ही मार कर अपनी इज्ज़त बचा लेते हैं. इस देश में तो...

 

मैं ऐसे तमाम खयालों से, अब गृहस्थी जिस मोड़ पर आ कर खड़ी हो गई है, उसे ही सही मानती. समर्थ की उस प्रेमिका का नाम भी मैंने पता कर लिया. कामिनी नाम था, कुछ पुराना सा. कभी कभी दफ्तर में बैठ कर एम.टी.एन.एल की डाइरेक्ट्री से समर्थ के ऑफिस वाला पेज खोल लेती. उसमें ढूंढ निकाला. कामिनी विज. कामिनी नाम भी चालाकी से पता किया. समर्थ के ही मोबाईल को टटोलने लगी एक दिन, जब वह वाशरूम में था. वैसे वह वाशरूम में भी मोबाईल अपने पाजामे की पॉकेट में डाल कर साथ रखता है. पर उस दिन बाहर ही रह गया था इत्तेफाकन. मैंने सिर्फ चुपके से उसके कांटैक्ट देखे. कांटैक्ट्स में तो कई महिलाएं भी होती ही हैं, हर पुरुष के मोबाईल में. पर एक दो एस.एम.एस पर नज़र पड़ी बस. उनकी लैंगुएज से समझ गई, यही है, मेरे मियां की माशूका. और फिर डायरेक्टरी में जो उसका नंबर देखा तो एक दिन यूं ही अपने ऑफिस के एम.टी.एन.एल से डायल कर दिया, कामिनी विज का नंबर. थोड़ा डरी भी कि आजकल तो एम.टी.एन.एल के फोन पर भी कालर नंबर पता चल जाता है. उसकी सुरीली परंतु अथॉरिटी सी लगती आवाज़ सुन कर चुपके से फोन रख दिया था. सिर्फ इतना पूछा था – ‘हेलो, क्या आप कामिनी विज बोल रही हैं?’

-          ‘जी हाँ बोल रही हूँ.’

बस इतना सुन कर चुपके से फोन रख दिया. एक अजीब सी चुलबुली बात मन में आई कि भला ऐसा क्या मज़ा है, पति की प्रेमिका की आवाज़ सुनने में. कहीं वह काल बैक करे तो क्या जवाब दूंगी! मैं कहूंगी... और आगे सूझा ही नहीं...

समर्थ का ऑफिस तो दूर दूर तक हमारे ऑफिस से वास्ता नहीं रखता. समर्थ का ऑफिस नल्के की टूटियां बनाता है, हा हा... मैं क्या कहूंगी, जी नल्के लगवाने हैं हमें! पर बहरहाल, मेरी मन:स्थिति काफी बदल चुकी थी अब. घर में कुछ पार्टियां यदा कदा मैं रखती ही थी. अब की समर्थ से कहा – ‘समर्थ बहुत दिन हो गए, हमने कोई गैदरिंग ही नहीं रखी!’

समर्थ ने पूछा – ‘अब किस बहाने रखें? ना बर्थडे नज़दीक है ना कोई त्यौहार या शादी की सालगिरह वालगिरह!’

-                      ‘ज़रूरी नहीं कि कोई ओकेयन हो. हम यूं ही, पार्टी फॉर दी सेक ऑफ पार्टी रखते हैं!’

-                      ‘रख लो!’ समर्थ तो मेरी बात कभी टालता ही नहीं. पिक्चर कहो पिक्चर चल पड़ता है, बीकानेरवाला कहो बीकानेरवाला चल पड़ता है. बीयर पिलाने कभी कभी मैं अपने शौक़ीन मियां को ले जाती हूँ. वह कहता है कि उसकी कुछ खास पसंदें हैं, जैसे हाफ फ्राई अंडा, दूध में सेवियां, नो विस्की पलीज़, ओनली बीयर, किंगफिशर.’ मैं कहती हूँ – ‘मैं तो छोले भठूरे खाती हूँ. या पीज़ा बर्गर!’

 

-                      ‘खा लो!’ उस का अंदाज़ इतना प्यारा और लापरवाही से भरा कि जैसे उसका उसूल हो कि दूसरे की बात में टंगड़ी अड़ाओ ही मत. जो वह खाए खाए, जो वह पहने पहने. समर्थ फुल स्लीव शर्ट ही पसंद करता है. उस पर जींस की एक वैरायटी रखता है, पैंट हमेशा थोड़ी खुली मोरी वाली. चश्मों का बहुत शौक है उसे. अलग अलग फ्रेम और आकारों वाले चश्मे लाता है. शीशे सब के ही चौकोर से रखता है. चप्पलें बाटा की ही हवाई भी और कई दूसरे डिज़ाईनों की भी, कभी विविधता के तौर पर कानपुरी तो कभी जोधपुरी. यही हैं, शौक़ीन से मेरे मियाँ...  

 

मुझे भी कहता है – ‘जो जी में आए पहनो.’ मैं सलवार नहीं पहनती, पाजामा पहनती हूँ. पहनो. कभी टॉप पर लंबा सा स्कर्ट पहन उसके साथ कार में बैठती हूँ तो लंबी सी औरत यूं स्कर्ट ब्लाऊज़ में जा रही है, यह देख लोगों की नज़रें टिक जाती हैं, हमारी कार पर नहीं, मुझ पर ही और सिर्फ मुझ पर. समर्थ कहता है – ‘बालों का स्टाईल भी हर बार अलग सा रखा करो. लोग समझेंगे, समर्थ हर बार किसी और औरत के साथ घूमता है. हा हा...’

 

पार्टी में किस किस को बुलाया जाए, यह फैसला करने के लिये मैंने चुलबुले तरीके से समर्थ का मोबाईल उठा लिया – ‘बोलो, मिस्टर डांग को बुलाना है?’

-          ‘डांग ऑस्ट्रेलिया गया हुआ है.’

-          ‘अब्राहाम को?’

-          ‘हाँ. अब्राहम तो होगा ही. उसकी वाईफ भी होगी.’

-          ‘दूसरी कि तीसरी?’

-          ‘हा हा. बेचारे को दूसरी के साथ सुख से रहने दो भाई.’

-          ‘अच्छा यह जो है, कामिनी विज, इसे बुलाना है?’

-                      ‘नहीं नहीं,’ समर्थ उत्तेजित सा और अचानक सा बोला तो मुझे हंसी आ गई, पर अंदर ही अंदर. उसके बाद कई नाम और डिस्कस हुए. और आज जो संडे था, उसके अगले संडे हमारे घर में म्यूज़िक बज रहा है, और मैं थिरक रही हूँ. सरीन सर भी हैं. यह मेरी कितनी बहादुरी है, कि ऑफिस के बॉस को बुलाने के बहाने मैंने सरीन सर को भी बुला लिया, जबकि वह मेरे बॉस हैं ही नहीं. हा हा. और वो मेरे साथ डान्स कर रहे हैं. कमरे के फ्लोर पर सब लोग नाच रहे हैं. समर्थ तो गांडू है गांडू, सोच कर मैं मन ही मन फिर हंस दी. कामिनी को भी बुला लेता तो, क्या उसे मैं घर से निकाल देती? समर्थ को तो पता ही नहीं, कि वह तो मेरे द्वारा रंगे हाथों पकड़ा भी जा चुका है. कैसे पार्क में झुला झुला कर उसे अपने सीने से लगा रहा था बार बार! सरीन सर मुस्करा रहे थे, बहुत स्वाभाविक लग रहे थे. हम सब कोई सीने से सीना चिपकाए बालरूम वालरूम या साल्सा वाल्सा थोड़ेई नाच रहे थे. हम तो एक दूसरे से एकाध कदम दूर बस डान्स करते जा रहे थे. पर हुआ यह कि मेरे ऑफिस से ज़्यादा जेंट्स ही आ गए. मेरे पुराने प्रेमी तो जाने कहाँ रफा दफा हो गए, अब जो सब मेरे और सरीन सर के बारे में जानते हैं वे भी होड़ लगा लगा कर मेरे साथ डांस कर रहे थे. एक टेबल पर समर्थ के लिये किंगफिशर की दो तीन बियर बॉटल्स रखी थी. पर उस से थोड़ी ही दूर एक शोकेस पर ड्रिंक्स का बार भी बन गया था. समर्थ काफी संतुलित था. पर मैं ज़्यादा ही चुलबुली सी चहक रही थी. और एक दिन ऐसी पार्टियों के छोटे से दौर के बाद, क्योंकि मैंने ही शौकिया पार्टियां किसी ना किसी बहाने बढ़ा दी थी, समर्थ मुझे आ कर चौँका सा देता  है. मैंने पार्टियां इसलिए बढ़ा दी कि जैसे मुझे जीने का फलसफा मिल गया था. समर्थ मेरी आज़ादी को पसंद करता है और मैं उसकी आजादी से बे-इंतेहा मुहब्बत करती हूँ. यही सोच समर्थ को यदा कदा मैं पार्टी के लिये तैयार कर देती, और मेरी लापरवाही यह कि पार्टी में मेरी तरफ से पुरुष अधिक होते थे और समर्थ की तरफ से औरतें कम. कभी कभी समर्थ हंस कर पूछता – ‘पार्टियों का इतना शौक क्योंकर?’

मैं हंस पड़ी थी, बोली थी – ‘देखो ना आर्कीज़ या ऐसी और कई कम्पनियाँ हैं कि अपने कार्ड की सेल बढ़ाने के लिये कई किस्म के दिन बना रखे हैं. फादर’स डे मदर’स् डे डाटर’स् डे तो होते ही हैं, यहाँ देखो तो रिमोट कंट्रोल डे और कार रिपेयर डे भी बने हुए हैं. हा हा. फिर हम अलग अलग पार्टियां क्यों नहीं रख सकते? कभी घर में तो कभी किसी अच्छे से रेस्तरां में! सी.पी. का अलका कितना अच्छा है, छोटा हॉल मिलता है और चार्जेज भी बहुत नहीं.’ समर्थ लापरवाह सा हो गया था. मैं जो कहती वह करता, पर कुछ दिन से अचानक गंभीर सा होने लगा था. लगता था शायद उसे इतनी पार्टियां अच्छी नहीं लगती. एक दिन मुझ से बोला – ‘मुझे तुम से कुछ ज़रूरी बात करनी है. जल्दी लौट आना ऑफिस से. कहीं जाना मत.’

 

इस बार मैं कुछ नर्वस थी. और ऑफिस से जितना जल्द समर्थ ने आने को कहा उस से भी जल्द आ गई. आते ही समर्थ को फोन पर फोन बजाए – ‘समर्थ आओ ना. क्या बात है? कुछ सीरियस बात है क्या?’

-          ‘रस्ते में हूँ. बुद्धा गार्डन के बाहर कुछ ट्रैफिक जाम सा है.’

-          -‘ओ.के. पर बात क्या है? क्या...’

आगे की बात मैं खा ही गई. मन में बार बार एक ही नाम ईको हो रहा था. कामिनी विज. कामिनी विज. कामिनी विज...

और समर्थ आया तो. कार में थोड़ी ही देर बाद चाय वाय पी कर निकल भी पड़ा. पर रास्ते में उसे जो ज़रूरी बात करनी थी उसके लिये मैं उसका मुंह ही ताकती रह गई. कार ड्राईव करता करता इधर राजोरी की तरफ सिटी स्क्वेयर माल में आ गया. मैं पूछती ही रह गई – ‘क्या लेना है?’ और समर्थ मेरा हाथ पकड़ तेज़ी से  सीढ़ियाँ चढ़ फिर अचानक हाथ पकड़े ही एस्केलेटर पर ही चढ़ गया. मैं उस दिन भी लांग स्कर्ट और टॉप पहने थी. बाल भी बढ़िया थे. पर समर्थ कहीं से भी मुझे अपने नज़दीक नहीं लग रहा था, बीच बीच में बल्कि मेरा हाथ ही छोड़ देता. फिर एक बड़े से हॉल में घुस गया. जिस काऊंटर पर खड़ा होता, मुझे कुछ बताता ही नहीं, दो चार चीज़ें देख उन्हें रिजेक्ट कर देता. आखिर एक बच्चों के खिलोनों की दुकान से एक आटोमेटिक ट्रेन खरीदी, पैक कराई और काऊंटर पर क्रेडिट कार्ड उठा कर फेंक दिया. क्रेडिट कार्ड वापस आया तो मैंने ही काऊंटर से उठा कर उसे वापस कर दिया और सिर्फ एक बार उसके चेहरे में नज़रें गड़ा दी और वापस समेट ली. समर्थ वापस नीचे आ कर कार में इतना ही बोला – ‘ऑफिस में किसी की बच्ची का बर्थडे है कल. ऑफिस से वहीं जाऊँगा. सोचा उस बच्ची के लिये यह ट्रेन आज ही खरीद कर रखूँ. सत्रह सौ में आई.’

घर में रखे हुए स्टिकर्स से उसने एक अच्छा सा गुलाबी कार्ड उस पैकेट में लगाया और अपनी शर्ट से पार्कर पेन निकाल कर उस पर उस बच्ची के लिये ग्रीटिंग्स लिखी और पैकेट वापस रख दिया. मैंने पूछा भर – ‘किस की बच्ची का बर्थडे है? का...’ कह कर खा गई मैं. समर्थ बोला – ‘एक साऊथ इंडियन डाइरेक्टर है, उस की छोटी बेटी का है. पार्टी ऑफिस के ही रेस्तरां में  करेगा. वहाँ मेंबर्स के सिवाय किसी को नहीं आने देते. अपनी बीबी और बेटियों को बुला लेगा वहीं, ऑफिस के रेस्तरां में!’

मैं प्यासी की प्यासी ही रह गई. यानी यह जानने के लिये कि आखिर वह क्या ज़रूरी बात है जो समर्थ मियां मुझ से करना चाहते हैं. इस बीच मैं इतनी तनावग्रस्त रही कि एक दिन अपने ऑफिस से एम.टी.एन.एल द्वारा कामिनी विज का फोन ना ना करते भी मिला ही लिया. खुद को कोसती भी रही कि ज़रा भी कठोरता नहीं है मन में, अब उस अनजान अजनबी औरत के आगे क्या पूछना है तुझे, जो यूं कांपती अँगुलियों से फोन मिला लिया! ह्म्म्म? उधर से एक कठोर सी चपरासिया आवाज़ आई. सोचा हो सकता है कोई सिक्यूरिटी वाला ही हो. बहुत भारी और जाहिल सी आवाज़ – ‘हैलो...’

मेरी घिग्घी बंध गई, फिर बोली – ‘क्या यह कामिनी विज का नंबर है?’

-          ‘जी आप कौन बोल रही हैं? कौन से रूम से?’

-          ‘क्या कामिनी विज आज ऑफिस नहीं आई?’

वह आदमी चौंक जाने वाले अंदाज़ में बोला – ‘ओ हो आप को तो पता ही नहीं. जी कामिनी विज तो लंदन चली गई हैं और अब वे वहीं रहेंगी आप को नहीं पता क्या?’

-          ‘मतलब? लंदन क्यों गई हैं?’

वह आदमी हँसने लगा – ‘अजी कामिनी मिस की शादी हो गई ना? लंदन में है उनका शौहर. वहीं गई और वहीं जा कर शादी की होगी उसने, शायद इस संडे को हो गई हो. यहाँ मिठाई खिला कर गई सब को!’

मैं हैरान थी, फिर भी, मूर्खों की तरह पूछ डाला – ‘मैं उन से पहले नहीं मिली. एक ऑफिस से बिज़नेस के सिलसिले में बात करनी थी. मतलब क्या कामिनी विज अभी तक कंवारी थी?...’

-                      ‘ह ह ह ह... हां आं जी...’ वह आदमी मज़ेदार तरीके से हंस कर ‘हां आं जी’ की एक रेल सी चला गया.

फिर क्या बात करनी होगी समर्थ को मुझ से? वह कलमुंही तो चली गई अब. जिस से शादी करेगी उसे थोड़ेई बताएगी कि पहले समर्थ नाम के एक मैनेजर महाशय के आगे तन परोसने के बाद (और भी ना जाने किस किस के साथ, मन में यह खयाल भी बिना शब्दों के आया) तुम्हारे साथ सुहाग सेज पर सो रही हूँ...  

समर्थ एक दिन खुद ही बोला – ‘चलो चलते हैं. जो बात मुझे तुम से करनी थी, आज करता हूँ...’

-          ‘समर्थ हम वो बात यहाँ क्यों नहीं कर सकते? मैं तो थकी हुई हूँ!’

मैं अभी ऑफिस से आई ही थी और समर्थ ने बमुश्किल दोनों के लिये चाय बनाई ही थी जो हम ने पी ली. पर समर्थ ने खींच कर उठा दिया मुझे, और हम कुछ ही देर बाद कार में थे. कार अनजान राहों पर चलती जा रही थी. दोनों तरफ जंगल ही जंगल, और समर्थ मुझ से कहता है – ‘शैल, हम दोनों को अब अलग होना पड़ेगा.’ कार ऐसे चल रही थी जैसे म्यूज़िक सा बज रहा हो, और समर्थ ने यह बात क्या कर दी! मैं चौंक सी पड़ी – ‘मतलब? हमें अलग क्यों होना पड़ेगा? क्या तलाक लेना चाहते हो मुझ से?’ मन में खयाल आया कि कहीं उस कलमुंही का यह भी ड्रामा ना हो कि लंदन जा कर शादी करेगी.

पर समर्थ ने कहा – ‘ह्म्म्म. तलाक. मैं लंदन जा रहा हूँ, सिर्फ चार महीने के लिये!’

-                      ‘लंदन?’ मैं इतना ज़ोर से चौंकी कि कार चलाते चलाते समर्थ भी चौंक पड़ा,  उसने कार धीमी सी कर दी, ऐसे कि जैसे अभी ब्रेक लगा देगा. मैं चीखने सी लगी – ‘लंदन जा कर तुम कामिनी विज से शादी करोगे?’

-          ‘अरे कामिनी कौन?’ समर्थ ने तो अब कार बिल्कुल ही रोक दी.

-                      ‘कामिनी वही जो तुम्हें एस.एम.एस करती है, मिस्सड यू इन द पार्टी, हाय आ जाते तो क्या होता? मैं तो अकेली पड़ गई ना?’

-          ‘तो तुम मेरे एस.एम.एस पढ़ती हो.’

मैं सोचने का क्रम ही भूल चुकी थी. बोली – ‘हर औरत पढ़ती है, पति के एस.एम.एस. मैंने पढ़ लिये तो...’

समर्थ ने कार फिर चला दी और चुप हो गया. फिर बहुत शांत स्वर में बोला – ‘कामिनी मेरी फ्रेंड ज़रूर है. पर वह अब लंदन चली गई और इस ऑफिस से रिज़ाइन कर दिया उसने. उसकी शादी लंदन में फिक्स हो गई. लड़का यहीं किसी फर्म में बिज़नेस के सिलसिले में आया था और हमारे ऑफिस के बॉस के फ्रेंड का लड़का था. उस लड़के को जानता है. उसी ने कामिनी के लिये वह लड़का ढूंढ निकाला.’

-          ‘तो तुम क्यों लंदन जा रहे हो?’

-                      ‘आह. लंदन मैं सिर्फ चार महीने के लिये जा रहा हूँ. कामिनी का ऑफिस अब फ़िलहाल कोई है ही नहीं. वह वहाँ जा कर अपना सोचेगी. कहाँ जाती है मुझे फ़िक्र नहीं, भाड़ में जाए. पर हमें असली मुद्दे पर तो आने दो...’

 

-                      ‘हाँ. असली मुद्दे पर आ जाओ. मुझ से अलग क्यों होना चाहते हो? तलाक क्यों देना चाहते हो मुझे? क्या मैंने कभी तुम्हारी किसी बात में दखल दिया है?’ आगे के शब्द मन में ही घुमड़ते रह गए. कहना चाहती थी मैं उसे, कि मैं तो तुम्हें रंगे हाथों...

और सोच कर मैं कुछ ठिठक सी गई और समर्थ बोला – ‘सच पूछो तो तुम्हारा स्टाईल मुझे पसंद ही नहीं है. तुम जिस तरीके से पार्टियां करती हो और पुरुषों के साथ ज़्यादा ही इंटिमेट बनी फिरती हो, यह सब मुझे पसंद नहीं शैल. और फिर तुम्हारे ही ऑफिस से फोन आ रहे हैं मुझे, कि किसी मि. नैयर के साथ...’

-‘बकवास मत करो समर्थ...’

- ‘ बकवास मैं नहीं कर रहा शैल. मैं ऐसी ज़्यादा फ्री औरत के साथ नहीं रह सकता, जो ज़्यादा ही एडवांस्ड हो. आइ डोंट वांट तो लिव विद यू...’ समर्थ इतने निर्णायक स्वर में चीखा था कि वह चीख मानो कार की छत से टकरा कर स्थिर सी हो गई और चलती कार में सांझ का अँधेरा भी जाने कहाँ से आ गया और सन्नाटा भी छा गया.

मैं चकित थी समर्थ के व्यवहार पर. मैंने उसे बताना भी चाहा कि तुम तो खुद कामिनी के साथ एक दिन पार्क में ही अंतरंग तरीके से बैठ गए थे. और तुम खुद के लिये क्या चाहते हो. किसी ने फोन कर दिया तो तुम ने विश्वास भी कर लिया. घर में पार्टियों में सब पुरुष मुझ पर लट्टू हैं तो वह बात तुम्हें चुभ गई! पर मैं ऐसा कुछ भी समर्थ से नहीं कह पाई. समर्थ में आए अचानक कायाकल्प पर चकित थी. वह तलाक की बात कह भी इतनी आसानी से रहा है जैसे सिर्फ मकान वकान शिफ्ट करना हो. नैयर से मेरी दोस्ती छूटे साल भर हो गया. नैयर चला भी गया कोलकाता. और किसी ने इतने पुराने रिश्ते को तमाशा बनाने की गरज़ से समर्थ को फोन कर दिया. ना जाने मुझे क्यों लगा कि यह ज़रूर मेरे ऑफिस की किसी जलमरी औरत ने ही किया होगा. ऑफिस के पुरुष आम तौर पर ऐसे फोन नहीं करते. वे तो बल्कि चाहते हैं, कि औरतें आज़ाद रहें और उनका भी चांस लगे कभी. ये औरतें हैं जो हर चीज़ में प्रोफेशनल बनती हैं. ज़रा सी फेवर के लिये छातियाँ खोल देंगी उल्लू की पट्ठी सब. पर मैं तो उस समय सन्नाटे और अँधेरे से भरी कार में चुपचाप सिर टिकाए आँखें मूंदे बैठ गई थी, हालांकि अब कार में बत्तियाँ जल गई थीं और रौशनी हो गई थी, पर मेरी बंद आँखों के सामने तो अँधेरा था. मुझे लग रहा था कि कार में मैं तो  उपस्थित हूँ ही नहीं, और उस चौतरफ फैले अँधेरे में एक काली काली सी पुरुष आकृति कार को खींचे जा रही है, जो किसी भी समय कार के दरवाज़े को भड़ाक से खोल कर मुझे एक गठरी की तरह बाहर फेंक देगी!...

----  

 

 

 

 

 

2 comments: