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कहानी - प्रेमचंद
सहजवाला
('दूसरी परंपरा' जून-अगस्त अंक में प्रकाशित)
('दूसरी परंपरा' जून-अगस्त अंक में प्रकाशित)
मिल गया. खूब खोजा और मिल गया.
उस से फ्रेंडशिप भी हो गयी. बातचीत भी. और
लो, अब मेरी कार फर्राटे से दौड़ रही है.
कार चलाती हूँ तो रिदम से पर आज रिदम भी
वही खोज रही हूँ जो उस दिन की म्यूजीकल शाम में था. याद है सारी ट्यून. पर भला कार
कैसे संगीत की कोई धुन चुन कर उस पर चलेगी. ह ह ह ह...रिदम तो मेरे अन्दर है न!
सोच रही थी यह अंधेरी सी लगती सड़क सबसे अच्छी है, जैसे वो आ के बैठेगा अभी कार में
मेरे साथ. फेसबुक पर तो बाद में खोज निकाला, पहले तो वह उस दिन की म्यूजीकल शाम
में दिखा था न. और मैं मुग्ध थी उसकी शख्सियत पर. खुद को समझाया भी, मैरीड औरत हो
करमजली… उसे बस दोस्त बना. और अभी तक तो फेसबुक पर ही बनाया है न!
ट्यूब लाईटें ख़राब हैं, अच्छा है. ज्यादा
ट्रैफिक भी नहीं है.
मैं कार को बहुत प्यारी सी स्पीड से फिसलाती
जा रही हूँ. कार को किसी ने हाथ दिया.
काफी दूर से ही देख लिया, उस तक पहुँचते पहुँचते ब्रेक लग गयी आखिर. कौन है बदमाश!
सोचा ज़रूरी तो नहीं न कि बदमाश हो. कोई मुसीबत का मारा भी तो हो सकता है. कार की
खिड़की का शीशा ज़रा नीचे कर के पूछा, बल्कि पहले तो उसे इस तरह देखा जैसे मैं इस
प्रकार कार रोकने वाले को एक हिकारत ही समझती हूँ. उसकी तरफ व्यंग्यात्मक सी एक
दृष्टि डाली और अकारण होंठ भी टेढ़े कर दिए जैसे उसे चिढ़ा रही हूँ. अगले ही क्षण
कार फिर चल पड़ी और मैंने हथेली के इशारे से उसे ऐसे दफा होने को कहा था जैसे सचमुच
कोई चोर उचक्का हो वह. कह रहा था यहाँ तक ऑटो में आया और ऑटो ख़राब होने की बात कह
कर ऑटो वाला चला गया. धत्त! मैंने कोई ठेका थोड़ेई लिया है किसी की मदद का. मेरी
कार है... यह सब जैसे पलक झपकते ही हो गया था क्योंकि मुझे तो उस होटल पहुंचना था
न, जहाँ उस संगीत निदेशक और इसीलीये मेरी दोस्ती की लिस्ट में शामिल हो चुके मेरे
नए दोस्त से मिलते ही दोस्ती का हाथ बढ़ाना है मुझे. मेरे खूब दोस्त हैं. फेसबुक पर
तो तीन हज़ार तक पहुँच गयी हूँ. पर संगीत कार्यक्रमों और दूसरे साहित्यिक
कार्यक्रमों में जा जा कर कई दोस्त बन गए हैं. अरे सहेलियां भी बन गयी हैं भाई पर
लुत्फ़ तो दोस्त में है न. पर अक्सर इस बात के बारे में सोच कर खुद से ही चिढ़ सी
जाती हूँ कि ये सबके सब दोस्त कैसे बाबू टाईप हैं. मैं तो सबकी खिल्ली उड़ा कर बड़े व्यंग्यात्मक टोन में बतियाती हूँ
दोस्तों से. कोई कहता है, प्राऊडी है, ह ह...मैं तो बहुत घमंड वाली हूँ न, आला
तहजीबो-तमद्दुन वाली. अपने सा किसी को कुछ समझती नहीं. सब मानते हैं कि हम तो थैले
लटकाए आ जाते हैं न साहित्यिक मुशायरों या कार्यक्रमों में, यह ऊंचे घराने की है. पैसा
भी खूब है, कार कोठी भी.. ह ह...बहुत कम
में कुछ संजीदगी या आकर्षण सा नज़र आता है. और वह साला घोंचू! बच्चों सा
किलकता रहता है और कोई न कोई दिलचस्प बात कहने को आतुर... ह ह...
और इस हैंडसम से दोस्त से फेसबुक पर थोड़ी
सी बातचीत कर के चल पड़ी हूँ उस से मिलने. दोस्त एक हॉबी की तरह बनाए जाएं तो बढ़िया
लगता है, यह नहीं कि कहीं भी ज़रा पहचान हुई कि लपक लिए पीछे...
कार ऐसी जगह पहुँच गयी कि लगा बस एकाध
किलोमीटर बाद तेज़ रोशनियाँ आ जाएंगी.
खुद को ही कोसा – तो क्या हो जाएगा नाश्पीटी
अगर रोशनी आ जाएगी तो.
पर कार धीरे धीरे कर के कानों में हैण्डफ्री
ठूंसी और मोबाईल से उसी का नंबर मिलाया.
-
‘हेलो ओ ओ’ जैसे गीत
गा रही हूँ
-
‘हाउ आर यू कर्ली !’
हा हा... मैंने कहा था कि मेरा नाम अलका है, तो बोला यानी जुल्फें न! मैंने हंस कर
टाईप किया- ह्म्म. कर्ली हेयर.
हम्म. वैसे मेरे बाल कर्ली नहीं हैं, यूं ही, कर्ली कह कर जाने क्यों
खुश हो लेती हूँ. दोस्त कहते हैं, अच्छा, चाँद सा मुखड़ा है. आँखें बड़ी सी और बाल
खासे लंबे. सो क्या ज़रुरत...
-
‘मैं ठीक हूँ जॉगी
कहाँ पहुंचे हो तुम?’
-
‘अभी तो साकेत
पहुंचा हूँ और खूब ट्रैफिक है.’
मुझे अनायास लगा कि मुझे भी अब हेवी
ट्रैफिक में होना चाहिए. मैंने कहा – ‘ये जो धोला कुआं रोड जा रही है न, वहां हूँ
मैं तो. आराम से आओ मिल जाएंगे दोस्त.’
-
‘हम्म. ज़रूर
मिलेंगे.’ उसकी आवाज़ में खुनक सी है, जैसे मैं कोई बच्ची हूँ और वह मुझे आश्वस्त
कर रहा है कि हम्म, ज़रूर मिलेंगे.
मैंने यूं ही एक लंबा सा पॉज़ दे दिया.
साला... समझता क्या है खुद को. पर स्टीयरिंग को संभाल धीरे धीरे आगे बढ़ी तो उसकी
और भी आधिकारिक सी आवाज़ आयी – ‘हेलो. खूब अँधेरा होगा न वहां, कभी कभी हो जाता है.
और वो तुमने अपने एन.जी.ओ का क्या नाम बताया था?’ मैं पल भर में
ही अपनी औकात पहचान गयी. वह तो उस दिन एक म्यूजीकल शाम... किसी ने सजेस्ट किया कि
सी.पी. के सेन्ट्रल पार्क में ही है प्रोग्राम. कोई नेत्रहीन लड़के लड़कियों में से
संगीतकार खोज कर चलाता है. उन्हें बाकायदा
संगीत का प्रशिक्षण देता दिलाता है. उसकी रजिस्टर्ड एन.जी.ओ है, और मैंने तो अभी
एक एन.जी.ओ पैदा ही किया है. शौकिया सही, और उसे रजिस्टर नहीं कराया. सोचा नाम भी
आज उसी से पूछ लूंगी. उससे कहूंगी तुम्हारे विशाल से समुद्र जैसे ज़हन में इस छोटे
से ज़र्रे के लिए भी कोई नाम हो तो बता दो न प्लीज़. यह भी कहूंगी कि तुम्हारा काम बहुत ठोस है,
तुम्हारा एन.जी.ओ जेनुएन. मैंने अभी हलके से काम शुरू किया है. तुम्हारे पास संगीत
के शिक्षकों की एक ऑनरेरी टीम है और मेरे
पास सिर्फ एक दो लटकी सी रहती सहेलियां हैं. अगर उस बच्चों से किलकते रहने वाले
साले को कहूंगी तो वह भी फटाफट वर्कर बन जाएगा. पर मैं उस दिन एक बड़े से लॉन में
उसका सारा कार्यक्रम, उसकी व्यवस्था, उसकी वेबसाईट बाद में देख कर दृढ संकल्प सी
हो गयी कि मैं भी एक सॉलिड सॉलिड एन.जी.ओ खड़ा करूंगी.
सामने ही बाईं तरफ जाता मोड़ आते देख कार
को कुछ क्षण और अधिक धीमा कर के मैंने उस से कहा – ‘एन.जी.ओ को नाम अभी देना है.
अभी थोड़ा सा ही काम शुरू किया है. आप मेरे दोस्त बन गए हो न?’
उसकी आवाज़ अब रोबीली सी भी लगने लगी, बोला
– ‘कोई डाऊट!’
-
‘न न.’ और बाएँ मुड़ कर
साईमन बोलीवर मार्ग पर आ गयी. यहाँ ट्रैफिक ही ट्रैफिक था, क्योंकि कुछेक गाड़ियाँ
तो जिस दिशा से मैं आईं, उसी से चलती बाएँ मुड़ी थीं तो कुछेक उधर धौला कुआं से आती
हुई दाहिने मुड़ी थीं.
इस रोड से आगे जाओ तो एक दो गोलचक्कर बाद पंचशील मार्ग पर ही अशोका
होटल. मुझे तो उस से भी आगे वहां औरंगजेब रोड पृथ्वीराज रोड वगैरह पार कर ऐम्बेसेडर
होटल पहुंचना है, जहाँ मेरा नया नवेला, बहुत रोबीला सा, गठीला भी लग ही रहा था
तस्वीर से और इस सबके बावजूद प्यारा प्यारा सा ब्वॉय फ्रेंड... धत्त! दोस्त बनेगा.
फ़िलहाल तो इधर दाहिनी ओर सुनसान सी रहती भगवान महावीर वनस्थली के बाहर से गुज़रने का ख्याल
कर कार धीमी ही कर ली मैंने, जैसे अकारण
मस्ती में सी आ गयी हूँ. सोचा वह तो अभी दूर है. वह भी हो सकता है साकेत से
क़ुतुब मीनार कार दौड़ाता उधर औरंगज़ेब रोड से ही पहुंचे. भगवान महावीर वनस्थली के
भीतर सुनसान ही सुनसान रहता है और अँधेरा सा भी. और आज मेरी इस बॉडी को जाने क्या हुआ
है कि अँधेरे ही अंधेरे में कार दौड़ाए रहना चाहती हूँ. जैसे अभी भगवान महावीर
वनस्थली के अन्दर चली जाऊंगी. शरीर में ऊपर से नीचे तक कभी कभी जाने कैसा तो एक
खरगोश सा ऊधम मचाता ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर को दौड़ता फिरता है. ख़ासा ऊष्म भी है
वह तो... और मेरी कार तो लो, पहुँच गयी है एम्बेसेडर होटल के बाहर. वो आता ही
होगा. फोन कर के उस को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं बाबा. बड़ा रोबीला है, मेरा दोस्त. कार
अन्दर कहीं जा कर पार्क भी कर ली मैंने, और कुछ देर बाद ही होटल के नर्म नर्म कालीन
से ढके कॉरिडार पर थिरकती सी कदम उठा रही थी मैं...
*
*
स्नैक्स रूम में आमने सामने थे हम. उसे
लगातार निहारते निहारते सोचा कर्ली हेयर तो इसके हैं. गोल मटोल चौड़ा सा मुखड़ा है.
नहीं नहीं, बहुत गलत सोच गयी मैं इसके बारे में. कोई घमंड नहीं, रोब नहीं, अपना
अपना सा है. अपने काम को प्रतिबद्ध होगा यह ज़रूर. मुस्कराता है, बल्कि कहूं कि
मुस्कराता भी है. मुझे अब यह अच्छा लग रहा है कि वह बात ऐसे कर रहा है जैसे मुझे
आश्वस्त कर रहा हो हर बात में, बल्कि जैसे मुझे प्रोत्साहित कर रहा हो हर सवाल पर,
हर जिज्ञासा पर. इस बीच उसने अपनी पॉकेट से एक किंगसाईज़ सिगरेट की डिब्बी भी निकाल
ली. क्लासिक. उसमें से एक सिगरेट को फ़िल्टर से बाहर खींच उसने अपने होंठों से लगा
ली सिगरेट. फिर उसे जैसे थोडा देर से ख़याल आया हो, डिब्बी पर तर्जनी टिका दी और
जैसे कैरम बोर्ड के स्ट्राईकर को थोड़ा आगे खिसकाते हैं, डिब्बी एकाध इंच मेरी तरफ
सरका कर आँखों से सवाल किया – ‘आप पीती हैं? लीजिये...’
मैं थोड़ी सख्त सी बोली – ‘न न मैं नहीं
पीती भई...’
वह
मुस्करा दिया. उसके गोल मटोल गालों पर जैसे वह मुस्कराहट लहरीली सी
आवारागर्दी करने लगी.
जब उसने अपने लाईटर से सिगरेट सुलगाई और
धुंए का पहला छल्ला हवा में उड़ाया तब अनायास ही मेरे पीछे हॉल की छोटी सी लंबाई
पार कर जो दरवाज़ा आता है, उस तरफ देखने लगा. शायद कोई कपल अन्दर आया था. इस बीच
मुझे जैसे शरारत सूझी. उसकी डिब्बी में से एक सिगरेट उस से बहुत चालाकी से नज़र बचा
कर बाहर स्लिप कर ली. जैसे सिगरेट गुम कर के शरारत का मज़ा ले रही हूँ. सोचा यह
यहीं कहीं छुपा लूंगी, पर मुझे क्या पता था कि वह सिगरेट अनजाने ही मेरे होंठों पर
जा रुकेगी. उस की नज़र गयी तो थोड़ी खिसिया गयी मैं, बोली – ‘मैं पी लूं यह?’
-
‘ओ वाई नोट. पियो अगर पीती हो.’
मैंने अपना बचाव करते से कहा – ‘हैबिट
नहीं है. बहुत ख़ास मौकों पर कुछ छल्ले उड़ा लेती हूँ.’
वह फिर वही आवारागर्दी वाली मुस्कराहट
मुस्कराया. और मैं उसी के लाईटर से सिद्धहस्त
हाथों से सुलगाने की तरह सिगरेट सुलगा कर कश लेने लगी.
स्नैक्स आ गए.
प्लेटें दो उधर दो इधर.
छुरी कांटे भी. क्या था इस का क्या
महत्त्व भला.
एन.जी.ओ की बात तो उसी ने निकाली.
मैं बहुत संकुचित हो रही थी. उसने बताया
कि वह तो किशोरावस्था से ही गिटार, फिर वायोलिन का शौक़ीन हो गया था... पिता चल बसे
थे एक एक्सीडेंट में. माँ है पर वह उसी फ़्लैट में नहीं रहती जिसमें वह रहता है.
ऊपर उसी बिल्डिंग के दो तीन फ्लोर ऊपर उसने अपना अलग फ़्लैट खरीद लिया था बाद में.
वह संगीत का एक महत्वाकांक्षी कलाकार. माँ बहुत खुश होती बेटे को देख देख कर.
उसने डी.यू से ही आनन फानन में इंग्लिश
ऑनर्स भी कर लिया फिर एम.ए भी. पर यह सब उसे बहुत रुटीन लगता. बस, एक बार वह अपने
कॉलेज के एक म्यूजीकल प्रोग्राम में शिरकत करने गया तो उसके कॉलेज में ही फिलॉसफी
पढ़ा रहे संगीत गुरु ने उसे एक नेत्रहीन लड़कों की टीम दिखाई. उसमें कुछ तो अभी वोकल
म्यूज़िक सीख रहे थे. एक दो बहुत ब्रिलियंट थे. अपने डी.यू के हिन्दू कॉलेज के हॉल
में ही उसके संगीत गुरु ने उन लड़कों की एक आईटम की रिहर्सल कराई थी. उसके बाद जो
प्रोग्राम उसने और उन दो नेत्रहीन लड़कों ने दिया वह हिट गया. ओर्केस्ट्रा था पर उसमें
जैसे इसी, जॉगी की वायोलिन प्रमुख थी बस. और
उसके बाद धीरे धीरे उसका जीवन बदल गया. जो अपेक्षाकृत कम जानकार थे संगीत के, वे
उसके यूनिवेर्सिटी छोड़ते ही शागिर्द बन गए. उसका एक ही सपना था. वह दुनिया से कुछ
अलग करे. और यह एन.जी.ओ. दरख्शां रास्ते जो नेत्रहीनों के जीवन को दरख्शां (रोशन)
करे.
मैं सिगरेट के कश यह सुनते सुनते ऐसे लेने
लगी जैसे मेडीटेशन में हूँ.
पहले उसके बोलने की आवाज़ पर मुग्ध, फिर
उसका मुखड़ा देख फिर उसकी बातें सुन. अब मैं बहुत घबराई कि इस का एन.जी.ओ तो
रजिस्टर्ड है और देखते देखते अब दिल्ली के सौ सवा सौ से भी अधिक नेत्रहीन कलाकार
इसने इकठ्ठा किये हैं. पांच छः संगीत के
शिक्षक भी. जो भी पैसा सरकार से मिलता है उसे वह बहुत तन्मयता से इसी एन.जी.ओ में
इस्तेमाल करता है. मैं डूबने डूबने सी लगी कि इस समुद्र से विशाल व्यक्ति के आगे
मेरा यह पिद्दी सा एन.जी.ओ जिसमें कुल दस पंद्रह लड़कियां अपनी सुरक्षा के लिए जूडो
कराटे सीखती हैं जो कि मुझे भी नहीं आते, क्या कर लेगा. पर उसने खुद ही इसकी बात
निकाली. पूछा – ‘अब तुम अपना बताओ न कर्ली!’
-
‘जॉगी मैं क्या बताऊँ. अभी बहुत उत्साह वाले लोग ही नहीं मिले
हैं. एक मास्टर आता है इन लड़कियों को सिखाने और एक लड़की है जो उतने ही उत्साह से
काम करती है जितने उत्साह से शायद आपके वे नेत्रहीन लड़के लड़कियां करते होंगे.
पिछले साल जो आन्दोलन हुआ न, उसी के बाद मुझे भी यह ज़रूरी लगा कि लड़कियों को केवल
शारीरिक बल प्रदान न करूं, उन्हें मानसिक रूप से भी प्रबुद्ध बनाऊँ पर अभी तक तो
मैं नाम ही नहीं सोच पायी. कुछ नाम बताओ न, और फिर...’
सिगरेटें ख़त्म हो गईं. वेटर एक ऐश ट्रे
छोड़ गया था. उसमें दो सिगरेटों के दो टोटे आसपास पसर गए थे.
उसने कहा – ‘आपने कौनसे नाम सोचे?’
-
‘मैं तो कुछ चलताऊ
नाम ही सोच पायी, जैसे चट्टान, सुरक्षा वगैरह.’
वह खिल्ली उड़ाने के से अंदाज़ में हल्की सी
ह ह कर बैठा, जैसे उस से गलती हो गयी हो. गंभीर हो गया. फिर बोला – ‘सोचूंगा. पर
काम तो आगे बढे!’
-
‘ह्म्म्म. इस पहाड़
सी शख्सियत के आगे मेरी हल्की सी हम्म भी जैसे जुर्रत थी मेरी.
*
*
उसका फ़्लैट तो फ़्लैट, उसकी पूरी बिल्डिंग
ही खूबसूरत.
नोएडा से दिल्ली आया था मुझसे मिलने.
यहाँ तो बहुत डेवेलपमेंट हो गया है.
एस.एम.एस ही एस.एम.एस आते हैं कि प्रौपर्टी खरीदो जी, लोन का बंदोबस्त हो जाएगा.
वहां एक घंटा जलपान हुआ और उठे तो जैसे
उसकी अनेक बातों के ढेर मेरे सीने में जमा होते गए. उन्हें मैंने सहेज लिया और दोनों
निकले थे उसी नर्म गुदाज़ कालीन पर प्यारे प्यारे से बल्कि अब कुछ नए नए से लगते कदम
उठाते. अब तक दोनों के होंठों पर एक एक और सिगरेट सवार हो चुकी थी. मैंने उसे
बताया कि हसबैंड जर्मनी में हैं और दोनों बेटियां अभी एक साल पहले इधर एम.बी.ए कर
के दोनों ही एच.सी.एल में लग कर उसकी इंग्लैण्ड शाखा चली गयी हैं, मैं रह गयी निपट
अकेली. यह भी एक ट्रेजेडी है न, जैसे तरक्की का साईड इफेक्ट हो. पति जर्मनी, बच्चे
इंग्लैण्ड, पत्नी नई दिल्ली में पूसा रोड की कोठियों में. किसी दिन दोनों बेटियों
में से एक को बेटर जॉब अमरीका में मिल गयी तो चारों प्राणी अलग. हा हा हा हा... जॉगी
भी हंस पड़ा. बोला – ‘होता है, पहले घर में महफ़िल होती है फिर चारों जैसे द्वीप बन
जाते हैं. पर बदलते वक्त को स्वीकार करना ही मैंने जीवन में सीखा है, वर्ना माँ
क्यों कहती कि उसका अपना जीवन है सो वह एक ही फ़्लैट में रह कर सिर्फ मेरा खाना
वाना नहीं बनाएगी. उसका अपना बिज़नेस है छोटा सा, वही चलाती है और उस से बाहर कुछ
करना उसकी ऊर्जा से परे है.
फ़्लैट की यह बैठक देखेने के लिए चारों तरफ
नज़र दौड़ाते दौड़ाते यह भी सोचा कि फैमिली मेम्बरों के अलग होते ही कैसी तो एक
आवारागर्दी सी आ जाती है मन में कि कोई कहे चलो, तुम्हें नोएडा अपना फ़्लैट दिखा
दूं, जहाँ दो कमरों में संगीत की कक्षाएं हैं और दो में मैं रहता हूँ. एक बैठक और एक बेडरूम, और मैं चली ही आयी, उसकी
कार के कभी आगे कभी पीछे को ड्राईव करती इस पहली ही मुलाक़ात की शाम में!
बैठक में एक से बढ़ कर एक नायाब पेंटिंगें
हैं. किसी में जानवर तो किसी में आँखें मूँद सूफियाना से गीत गाता गायक, जो कीमती
कालीनों पर बैठे आँखें मूंदे फ़ज़ा में संगीत की स्वरलहरियां लहराता है. लगा जैसे वह
संगीत कमरे में फ़ैल गया है. देखते देखते सोफे के दो कोचों के बीच की मेज़ कुछ
प्लेटों से भर गयी. काजू, नमकीन काजू, स्नैक्स और न जाने क्या क्या....
मेज़ पर कुछ और रखने की जगह ही नहीं बची.
हाँ एक बड़ा सा ऐश ट्रे भी था, जिसमें यहाँ आने के कुछ देर बाद भी सिगरेट के टोटे
एक दूसरे को कंपनी दे रहे थे. उसके दोनों संगीत के कमरे भी देख आयी. शो केसेज़ में
प्यारी प्यारी सी गिटारें, वायोलिन, नीचे कालीन के किनारे सितार. कुछ नेत्रहीन
लड़कियों की सितार बजाती तस्वीरें. आह! सब कुछ गज़ब का है यहाँ तो. वापस बैठक की तरफ
बढ़ते बढ़ते उसने अनायास मेरे कंधे के गिर्द बांह भी रख ली फिर जैसे गलती का अहसास
होते ही अलग छिटक गया. मैं कुछ इंच उस से दूर हुई और अपने आप को संजीदा करती साड़ी
के पल्लू के एक कोने को ऐसे पकड़ा जैसे कोई चिड़िया जकड़ी हो और फिर हाथ को दूर तक ले
जा कर पल्लू को पीछे घुमा कर पूरी पीठ ढक ली. दोनों के कदम अब आहिस्ता से उस
दरवाज़े से बाहर निकले.
और कुछ ही देर में मैं जैसे यहाँ ऐट होम
फील करने लगी. जैसे यह मेरा फ़्लैट हो और मेरा यह अनमोल सा लगता दोस्त मुझसे मिलने
आया हो! मैंने अपनी बात निकाली और जैसे उस कमरे में छाई खामोशी जो किसी किसी क्षण
प्यारी सी, मेडीटेशन वाली खामोशी से हट कर सनसनीखेज़ खामोशी भी लग रही थी, को
सुनाती मैं अपनी एन.जी.ओ पर उतर आयी. उसने उसी क्षण बोला – ‘आप अपने एन.जी.ओ का
नाम ‘अस्वीकार’ क्यों न रख दो!’
मेरी ज़बान से बहुत तेज़ी से निकला – ‘आप जो
कहोगे. पर आपका सहयोग ज़रूरी है.’
उस अपनी सी लगती बैठक में मुझे जैसे किसी
और चीज़ की ज़रुरत महसूस हुई सो मैं अनायास अपने दाहिनी ओर की दीवार पर चमकीले शीशे
में फैले एक शोकेस की तरफ देखने लगी.
कुछ ही देर में यह प्रश्न उछला – ‘कौन सा?
बी.पी? मेरे पास तीन हैं.’
मैं संगीतात्मक लय में बहुत धीमे से
फुसफुसाई कि भगवान करे कि वह सुन ही न सके और मैं जल्दी से बाय करती चल पडूं. और
उसने सुन लिया, जैसे हवा में खामोशी ने और गहरा हो कर उसे मौका दिया हो, मेरी
सुरीली सी फुसफुसाहट सुनने का. टीचर्स.
वह मेरी तुलना में कुछ तेज़ी से पी रहा था
और मेरे लिए कमरे की फ़ज़ा जैसे एक अजीब नशीले कोहरे में बदलती जा रही थी. उसने
तीसरा पेग भी लगभग ख़त्म किया और मैं अभी दूसरे पेग के अंतिम घूँट तक थी. मैंने यूं
ही उस से पूछा, जैसे कि यहाँ, इस आला से माहौल में मैं अब क्या बातें करूं, यह सूझ
ही नहीं रहा था, पर लगा जैसे इन अनमोल से लगते क्षणों में... यह अनमोल होने की
संज्ञा भी मेरे चेतन में थोड़ेई थी, यह भी मेरे अवचेतन का कमाल था कि उचित मौका पा कर
ही फ़ौरन अच्छे अच्छे शब्द या मुहावरे पकड़ा देता था, हाँ तो इन अनमोल लगते क्षणों में
मैं इसी शख्सियत के समुद्र में गहरे पैठूं और इसे और अधिक और अधिक समझती जाऊं.
जैसे कि यह अब से मेरी हॉबी होने वाली है. मैंने पूछा – ‘आप फायनांस कैसे पाते
हैं? कोई नौकरी...’
-
‘हा हा...’ वह फिर
होटल की तरह एक गलती करने के अदाज़ में खिल्ली सी उड़ाता हा हा कर गया फिर उसे समेट
गया. बोला – ‘मेरे पास अच्छी नौकरी थी,
अच्छा वेतन भी. तभी नौकरी के साथ यह काम थोड़ा थोड़ा शुरू किया. फिर नौकरी छोड़ दी और
एक छोटी सी संगीत इंस्ट्रूमेंट्स की दुकान खोल ली जिस से कर्ली समझो...’ और ऐसा
कहते हुए उसने एक इशारा सा किया कि अपना गिलास तो उठाओ, ऐसे छोड़ रखा है, और मैं
गिलास के गिर्द अपनी अंगुलियाँ बहुत कलात्मक तरीके से रख कर उठाने का क्रम करती.
जॉगी बोला – ‘सरकार मुझे एक से दो लाख तक डोनेशन देती है. बाकी जानती हो अपना बजेट
मैनेज करने के लिए मैं क्या करता हूँ?’
मैं उस समय फिर शरारत के मूड में थी, सोचा मैं भी इसकी खिल्ली उड़ाऊंगी,
कुछ कहूंगी, पर चुपचाप उस दूसरे पेग का आखिरी घूँट हलक से उतार मैंने एक और पेग अपने
आप बना भी लिया और सोडा भी डाल लिया. उसने कहा, जैसे अब वह दो टुकड़ों में बंट गया
हो, एक वह ऐय्याश सा जो बहुत आत्मविश्वास से पेग पी कर पूरी बैठक को नशीली धुंध से
भर रहा है, अपने लिए नहीं, मेरे लिए, और दूसरे पवित्र से लगते टुकड़े से वह ज़रा अब
तक तीन पैगों से आवाज़ में आ चुकी खुनकी से अलग एक देवता सा लगता बोला – ‘मेरे इस
फ़्लैट की सफाई कौन करता है पता है? जो लड़का यहाँ सब करता था उसे दुकान पर लगा दिया
और उसकी वह नौकरी अपने लिए मैंने ले ली. यह सारा शानो शौकत मेरे पिता का बसाया हुआ
है जो मुझे सुपुर्द कर के माँ ऊपर रह रही है. मैं खुद ही कुकिंग एक्सपर्ट हूँ यहाँ
और खुद ही झाडू पोचा...’ मुझे लगा मैं भी उसकी ही तरह गलती से एक छोटी सी हा हा न
कर लूं, पर उसके लिए मन में श्रद्धा सी उत्पन्न हो रही थी और तीसरे पेग से शराब की
बजाय वह श्रद्धा सी हलक से नीचे उतर रही थी. वर्ना इतनी देर लग रहा था कि यह शराबी
संगीतकार और मैं शराबिन...अस्वीकार की संस्थापिका...
*
*
वक्त कैसे गुज़र गया यह मैं होश में होती
तो भी शायद न पता कर पाती. चौथा पेग भर कर होंठों से लगाने से पहले ही मुझे चकराहट
सी हुई. मैं उठ कर वाश बेसिन की तरफ लपकी. कुछ उल्टियाँ ही होने लगी. दो से ज्यादा
कभी नहीं पीती मैं, पर आज... वाश बेसिन पर
पीछे मेरा संरक्षक. उसकी उपस्थिति से ताकत आयी और मैं मुंह साफ़ कर बाहर उसकी बैठक
में ही टहलने लगी और बोली – ‘जब थोड़ा हेवी महसूस करती हूँ तो कमरे में टहल लेती
हूँ. बहुत जल्द हल्की हो जाती हूँ. आई एम आलराईट नउ.’ कमरे में आगे पीछे की दस बार
की चहलकदमी के बाद मुझे लगा जैसे बैठ कर अभी और पीने लग जाऊंगी. पर फिर बैठते
बैठते सोचा नहीं, पीना अच्छी बात नहीं होती. ह ह ... और वो? वो तो किचन में जा कर माईक्रोवेव में कुछ गर्म करने
लगा और इधर गैस भी जला दी. मुझमें भी फुर्ती आ गयी. आवाज़ ही तो लड़खड़ा रही थी.
पर वह मुझसे कॉम्पीटीशन में जीत गया. मतलब कि अब आगे बात क्यों बढ़ाऊं.
कहानी तो दी एंड की तरफ बढ़ रही है न! मेरी कार नीचे उसी की कार के साथ पार्क की
हुई है. पर अब...
अनकहे तरीके से ही तय हो गया कि मैं
ड्राईव नहीं कर सकूंगी अब. और रात की वह नशीली धुंध जाने कब सुबह में ही बदल गयी तब
आँखें खुली तो होश उड़ चुके थे मेरे. याद करने में ही अपना सर खपा दिया कि रात उसके
बाद क्या क्या हुआ था. मैंने क्या कहा था और उसने क्या किया था. पर मेरा सर
भन्नाने लगा यह देख कि मैं दूसरे कमरे के बिस्तर पर निर्वस्त्र हूँ. पूरी तरह...
निपट... आसपास कोई नहीं. मेरे पैरों को ढकती एक गर्माहट सी देती चादर ज़रूर महसूस हुई.
सोच रही थी बेहोश हो जाऊं तो यह सब देखने और इस पर सोचने से बच जाऊंगी. पर अचानक
जॉगी प्रकट होता है और वह केवल एक वी शेप अंडर वियर में है. जॉगी ने तेज़ी से उस
पूरी चादर को मेरे शरीर पर डाल कर मेरी अपनी वहशत को ढक दिया जाने अपनी वहशत को
मान्यता दे रहा था वह मेरी नज़रो से. मैं कुछ और कर सोच पाऊं उस से पहले ही वह भी
लपक कर मुस्कराता उसी चद्दर में छुप गया. दोनों के बीच एक युद्ध सा शुरू हो गया और
मैं निकलने के लिए ऐसे छटपटाने लगी जैसे मेरे पास रिवॉल्वर होती तो उसे शूट कर के
ही उठती मैं. बस...
अब ऊपर की जितनी भी कहानी थी मैंने ब्लौग
में टाईप कर के उसे सेव किया और कम्प्यूटर शट डाऊन कर दिया. पर फिर झटके से जैसे
क्षण भर में ख्याल आया तो कम्प्यूटर फिर ऑन कर दिया. फेसबुक में जा कर नीचे दी हुई
चंद पंक्तियाँ अपनी टाईम लाइन में टाईप कर दी. फटाफट. जैसे ज़रूरी हों बहुत. मैंने
टाईप किया – ‘मेरे दोस्त ने एक गुज़ारिश की. मैंने आँखें तरेर कर मना किया. पर उसकी
इच्छा पूर्ण हो गयी. और हाँ, उसमें मेरी भी अनकही इच्छा शामिल थी. सोचती हूँ बहुत
चाह कर भी क्या मैं उस अनकही को कही में बदल सकती थी!’
फेसबुक पर यह पोस्ट लिखने या अभिव्यक्ति की आवारगी की तरह डाल कर वापस
अपने ब्लौग पर आयी मैं. ऊपर तो सब कहानी थी न. मैंने फेसबुक वाली ही पंक्तियाँ उतनी
ही आवारगी से बहुत फुर्ती से टाईप कर के इस छोटे से ब्लौग को भी सेव कर लिया, कहीं
उन आयोग वाली महिलाओं को टी.वी. पर आने की तकलीफ न उठानी पड़े. कहीं मेरा प्यारा सा
दोस्त तबाह न हो जाए....
...बहुत दिन तक वह रात से ले कर सुबह तक
का सफ़र मुझे डराता रहा, अपने खौफनाक संभावित नतीजों से, पर मैं पल पल बहुत लंबे
अरसे तक सुख की सांस लेती रही, यही मेरी खुशकिस्मती थी. यही मेरा निजी जीवन.
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