Wednesday, January 9, 2013

बेतुकी बातें बेतुकी सोच (संशोधित)

बेतुकी बातें बेतुकी सोच (संशोधित) प्रेमचन्द सहजवाला जब से गैंगरेप की दर्दनाक घटना हुई है, तब से कुछ न कुछ बोलते रहने की एक होड़ सी लग गई है. ऐसे ऐसे लोग अकारण व अनर्गल सी बातें कहने लगे हैं जिनके वक्तव्यों की किसी को प्रतीक्षा तक नहीं थी. कोई लक्ष्मण-रेखा की बात करता है तो कोई कहता है कि उस लड़की को सरस्वती का जाप करना चाहिए था और उन दरिंदों में से किसी एक को अपना भाई कह कर अपना बचाव कर लेना चाहिए था. पर खैर, बापू को तो दूरदर्शन पर देखा तो लगा जैसे वह सामने बैठे अपने भोले-भाले भक्त रूपी ग्राहकों को अपने वश में बनाए रखने के लिये उन्हें बहला फुसला रहा था. पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक को भी जब तब आ कर अपने वक्तव्य देने का शौक चर्रा जाता है अक्सर. कुछ वर्ष पहले जब बैंगलोर के एक पब में कुछ महिलाऐं शराब पी रही थीं तब कुछ तथाकथित संस्कृति के पिट्ठुओं ने अपनी संस्था राम-सेना के संस्कृति बचाऊ कार्यक्रम के तहत उन महिलाओं पर आक्रमण कर के उन्हें पीटना शुरू कर दिया, गोया महिलाओं पर हाथ उठाना संस्कृति की शान होती हो. इस पर जब खूब हो हल्ला हुआ तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता दूरदर्शन पर आए और महिलाओं को पीटने की निंदा तो की पर यह भी कहा कि महिलाओं को अपने देश की संस्कृति का खयाल रखना चाहिए! गोया कि संस्कृति का बोझ ठीक तालिबानी अंदाज़ में केवल महिलओ पर होता है. पुरुषों पर नहीं. संविधान की ऐसी तैसी, संविधान भले ही जस्टिस, लिबरटी, ईक्वलिटी की बात करता रहे. वैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रारंभ से ही पुरुष-प्रधान रहने का दंभ मन में पालता रहा है. रा.स्व.सं. के प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार से किन्हीं श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर ने कहा था कि संघ की महिला शाखा भी स्थापित होनी चाहिए तब उन्होंने ऐसी अनुमति देने से साफ़ इन्कार कर दिया था. परंतु बहुत आग्रह के बाद उन्होंने श्रीमती केलकर से कहा था कि वह चाहे तो अपनी अलग संस्था बना सकती है. तब जा कर 25 अक्टूबर 1936 को ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना की. परंतु उस संस्था की कोई गतिविधि या बयान कभी प्रकाश में नहीं आया. एक बार मार्च 2003 में महिला रा.स्व.सं. सेविका समिति प्रमुख सुधा साठे का एक विचित्र सा बयान ज़रूर आया कि संसद या विधान-सभाओं में महिलाओं के लिये आरक्षण नहीं होना चाहिए क्योंकि आरक्षण तो कमज़ोर व अपंग के लिये होता है और कि हमें स्वयं ही सशक्त हो कर अपने लिये जगह बनानी चाहिए. स्पष्ट है कि इस प्रकार के बयानों के प्रकाश में भी मोहन भागवत का हाल ही का कथन कि महिलाओं को केवल गृहिणी होना चाहिए, कोई मेल नहीं खाता. महिला को दमित रखने की छद्म या स्पष्ट वृत्ति रा.स्व.सं. के बौद्धिक खोखलेपन व दकियानूसीपन को ही उजागर करती है जिसकी सामान्य परिस्थितियों में भी और गैंगरेप की त्रासद घटना की रौशनी में भी सभी विवेकशील लोगों को निंदा करनी चाहिए. न तो मोहन भागवत की बात सुषमा स्वराज या उमा भारती सुनने वाली हैं न ही वसुंधरा राजे सिंधिया जो फैशन पैरेडों तक में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले चुकी हैं और जिनकी इस गतिविधि को खुली व उदार सोच वाले सभी लोगों ने समर्थन भी दिया है.

1 comment:

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सामयिक और सटीक प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...