Thursday, July 24, 2014

मोगैम्बो के ‘जीवन का रंगमंच’ (The Act of Life)- समीक्षा

मोगैम्बो के ‘जीवन का रंगमंच’ (The Act of Life)
समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला

(समीक्षित पुस्तक: ‘जीवन का रंगमंच’ – आत्मकथा अमरीश पुरी. सहलेखिका ज्योति सभरवाल, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या : 327).

हिंदी फिल्मों में खलनायक की भूमिका एक लंबे समय तक बेहद महत्वपूर्ण योगदान करती रही. प्राण के बाद यदि कोई जीवंत और ज़ोरदार खलनायक हिंदी फिल्मों को मिला तो वह अमरीश पुरी ही था. पुस्तक ‘जीवन का रंगमंच’ अमरीश पुरी की आत्मकथा है जिसमें ज्योति सभरवाल इनकी सह-लेखिका रहीं. पुस्तक की भूमिका में ज्योति सभरवाल आत्मकथाकार अमरीश पुरी की एक स्वीकारोक्ति प्रस्तुत करती हैं जिससे अमरीश पुरी की बेबाकी और ईमानदारी एक साथ छलकती हैं. अपने बुरे व्यक्ति का अभिनय करने संबंधी प्रश्न पर वे दो टूक और लाजवाब उत्तर देते हैं कि  ‘...निश्चित ही समाज के प्रति (मेरी) एक दायित्व भावना है और ऐसे चरित्र युवाओं को कुछ गलत संदेश दे सकते हैं. परंतु तब ऐसी भूमिकाएं करना स्वीकार करके और अपनी जेबें भर कर मैं भी उसका भागीदार बन जाता हूँ, तो मैं क्या करूँ? मैं एक अभिनेता हूँ.  यह मेरा व्यवसाय है और मैं किसी भी प्रकार से समाज-सुधारक नहीं हूँ. (p 7).

आत्मकथा ‘संघर्ष काल’ अध्याय से शुरू होती है और प्रारंभिक पृष्ठों में ही अमरीश पुरी विनम्रतापूर्वक अपनी पूर्ण सफलता का श्रेय रंगमंच को देते हुए कहते हैं –‘ मेरे गुरु पंडित सत्यदेव दुबे ने मुझे इस जीवन में जो भी सिखाया है उसके लिये मैं उन्हें नमन करता हूँ और उनका ऋणी हूँ... मैं रंगमंच के अपने सभी अध्यापकों के प्रति नतमस्तक हो कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ क्योंकि रंगमंच सब प्रकार से मेरे जीवन की कार्यशाला बना’ (पृ. 29).

अपनी बचपन की यादों से अतिरिक्त लगाव व रूमानियत सी महसूस करते वे उस समय की कठिनतम परिस्थितियों का ज़िक्र करते हैं जब स्वयं को वे एक औसत दर्जे का व हीन-ग्रंथि ग्रस्त लड़का ही पाते थे जिसके पिता हिटलर की तरह सख्त व फिल्मों को पाप का अड्डा समझने वाले होते हुए भी मन से बेहद विनम्र थे. एक असीम प्यार करने वाली बीजी उन्हें माँ की अथाह ममता देती रहीं. कुछ बचपन की रोचक यादें भी कि वे बहुत काले थे तो सिर्फ दूध ही दूध पिया करते ताकि गोरे हो जाएं पर भैंस को देख घबराते कि इस का दूध पी कर तो वे और काले होते चले जाएंगे. पतीले में उबलते दूध की मलाई सरका कर स्ट्रा की मदद से सीधे पतीले से ही दूध गटकने जैसे प्रसंग बहुत रोचकता से वर्णित हैं. कॉलेज के जीवन की कुछ खतरनाक शरारतें जैसे एक संगीत के उस्ताद को कॉलेज के एक कमरे की अल्मारी में बंद करना ताकि वे भीतर से वहां एकत्रित लड़कियों की बातें सुनें और लड़कों को बताएं. ऐसे में उस्ताद तो कमरे में ही बंद रहते हैं जब लड़कियां अंत में ताला लगवा कर चली जाती हैं! (पृ. 50). किशोरावस्था में ही खतरनाक तरीके से घोड़ा चलाने की बहादुरी और एक अच्छा ऐथलीट होने की खुशी ‘संघर्ष काल’ अध्याय के बहुत रोचक व महत्वपूर्ण हिस्से हैं. कुछ मार्मिक अंश भी इस अध्याय में हैं जैसे कुंदनलाल सहगल की अंतिम यात्रा में ‘जब दिल ही टूट गया, हम जी कर क्या करेंगे...’ जैसे गीत का बजना. युवावस्था में अमरीश पुरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य बनते हैं परंतु महात्मा गाँधी की हत्या के बाद हुए मोहभंग से उनका दिल टूट जाता है. फ़िल्मी करियर के पहले के संघर्ष में दुकान दुकान जा कर किसी  कंपनी की माचिस के ऑर्डर लेने व महीने भर में मन न लगने पर छोड़ देने जैसे प्रसंग मन को भाते भी हैं और सफल अभिनेता के ‘संघर्ष-काल’ की भटकन की तस्वीर भी प्रस्तुत करते हैं.

आत्मकथा लिखी कुछ इस कदर रोचक व पठनीय अंदाज़ में गई है जैसे सब बातें सामने बैठ कर एक लेखाजोखा देने के अंदाज़ में मुंह-ज़बानी बताई जा रही है. सरल सरस भाषा और पाठक के साथ एक आत्मीयता का सेतु सा.  आत्मकथाएँ लिखते हुए प्रायः कई लेखक फैशनवश गंभीर व संवेदनात्मक तरीके से लिख कर अपनी शख्सियत का प्रभाव डालने लगते हैं परंतु यहाँ ऐसी कोई कृत्रिमता नहीं दिखती. आत्मकथाओं में प्रायः झूठी महानता गढ़ने या अपने संघर्षों को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने जैसे ग्लैमरस उदहारण भी मिलते हैं पर यह सुखद बात है कि अमरीश पुरी के संघर्षों के वर्णन कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं लगते वरन् वे स्वाभाविक प्रतीत हो कर प्रमाणिकता के प्रति आश्वस्त करते हैं.

‘संघर्ष काल’ अध्याय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा एक नाटक अभिनेता रूप में उनके तकनीकी विकास व अपने गुरुओं सत्यदेव दुबे, अब्राहम अलकाज़ी व शिनॉय से सीखी हुई अभिनय-कला की बारीकियों को समर्पित है. अभिनय में क्रियाविधि ही काफी नहीं, उसमें आत्मा व भाव समाहित करना पड़ता है आदि अनेक बारीकियों को समझने सीखने के लिये आत्मकथा का यह अध्याय बेहद महत्वपूर्ण बन पड़ा है. कुछ रोचक प्रसंग भी जैसे ज्यां पॉल सात्र के नाटक ‘नो एग्जिट’ पर आधारित नाटक ‘बंद दरवाज़ा’ में नरक में पहुंचे व्यक्ति की भूमिका में मंच पर आँखों की पुतलियाँ एक बार भी न झपकाने की अनिवार्यता होना आदि तथा नाटक ‘शतुरमुर्ग’ में निर्देशक द्वारा आवाज़ें दिये जाने के बावजूद समय पर मंच पर न पहुंचना और पहुँचने पर दर्शकों का कहकहे लगाना आदि आत्मकथा को पठनीय बना गए हैं.

अपने फ़िल्मी करियर को दूसरे अध्याय ‘शो बिज़नेस’ में वर्णित करते हुए मंच पर अभिनीत ‘अंधा युग’, ‘ययाति’ ‘हयवदन’, ‘आधे अधूरे’ ‘सखाराम बाईंडर’ जैसे अनेक कालजयी नाटकों के शिखर पुरुष अमरीश पुरी दो टूक कहते हैं कि ‘40 साल और 300 फिल्मों में ख्याति प्राप्त करने के बाद मैं पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि थियेटर सर्वोच्च कला है’ (पृ. 114). इतनी ढेरों फिल्मों में जनता के हृदय में अमिट छाप छोड़ने वाले अभिनेता अमरीश पुरी अन्यत्र तो फ़िल्मी अभिनय की यांत्रिकता की ओर भी संकेत करते हैं ‘फिल्मों के अभिनय में भावना नदारद थी... आप निर्देशक के बताए अनुसार यांत्रिक ढंग से यथावत अभिनय करते हैं तो उसमें भावना नदारद हो सकती है’ (पृ. 121). स्पष्ट है कि चरित्र अभिनेता रूप में फिल्मों में भी शिखर तक पहुँचने वाले अमरीश शायद हृदय से अंत तक नाटककोन्मुख ही रहे.

फिल्मों में उनका प्रवेश हुआ भी नकारात्मक तरीके से क्योंकि सबसे पहली फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ में एक महत्वहीन घटिया सटिया सी भूमिका मिली जिसे देख उन्हें कुछ थियेटर के पुराने साथियों की आलोचना सहनी पड़ी. दूसरी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ में भी जब मूल निर्देशक सुखदेव को बदल कर निर्माता सुनील दत्त ने निर्देशन स्वयं ले लिया तो उनकी बहुत अच्छी भूमिका को भी बहुत छोटा कर के एक प्रकार से उन्हें लगभग छद्म में खदेड़ दिया गया.

इस आत्मकथा से अमरीश पुरी की एक विशेषता साफ़ झलकती है कि वे अपनी निजी शख्सियत को बनाने को बेहद महत्त्व देते हैं, जिसका शायद अभिनेता होने से वास्ता भी न हो. जैसे स्वयं उन्हें शारीरिक दृष्टि से हृष्ट-पुष्ट होना अनिवार्य लगता जिसके लिये चाहे वे मीलों चलें या घुड़सवारी करें, वैसे ही वे अमिताभ बच्चन जैसी शख्सियतों की व्यक्तिगत दिनचर्या से भी बेहद प्रभावित हुए. अमिताभ ‘सुबह जल्दी उठ जाते, अपने कपड़े स्वयं धोते और नहा धो कर एक पुस्तक पढ़ने बैठ जाते...वे अपनी भूमिका पर बहुत विचार करते थे... उनकी चर्या में एक निरंतरता थी...’ (पृ. 119-120). इन्हीं पृष्ठों पर इसी प्रकार वे सुनील दत्त की सादगी से प्रभावित दीखते हैं. साथी कलाकारों के व्यक्तित्व्गत गुणों के प्रशंसक फ़िल्मी दुनिया में कम मिलेंगे, पर अमरीश पुरी उन कम लोगों में से एक हैं.

नाटकों में फिल्म की तुलना में अधिक आस्था के बावजूद अमरीश पुरी ने फिल्मों में अपने करियर के साथ भरपूर न्याय किया व पूरी तन्मयता से काम किया. स्पीलबर्ग जैसे विदेशी निर्देशकों के साथ ‘इंडियाना जोन्स’ जैसी फिल्मों के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कोलम्बो में हुई शूटिंग का वर्णन बहुत रोमांचकारी तरीके से किया है. अमरीश पुरी को अभिनेता हेरिसन से एक पुल पर लड़ाई करनी थी जिसे हेरिसन तलवार से उड़ा देने की धमकी दे रहा था.  इस असंभव से दीखते काम के लिये पुल में विस्फोटक लगाए गए तथा पुल को ऐन् तलवार लगने वाले क्षण में डायनामाईट द्वारा उड़ाया जाना था. यहाँ अमरीश ऐसे दृश्यों को फिल्माने में विदेशी तकनीक की भरपूर प्रशंसा करते हैं. परंतु ‘इंडियाना जोन्स’ को कुछ दकियानूसी लोगों की आलोचना भी सहनी पड़ी कि उस फिल्म में भारतीयों को अपमानजनक तरीके से फिल्माया गया है. अमरीश इसे हास्यास्पद मान कर बेबाकी से कहते हैं कि ऐसी भ्रांतिपूर्ण धारणाओं को सुन कर वे किसी भी हालत में क्षमा मांगने को तैयार नहीं थे तथा इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण उक्तियों के प्रभाव में उस फिल्म पर भारत में प्रतिबन्ध लगाया गया, इसका उन्हें अफ़सोस रहा.  (पृ. 168-173).


आत्मकथा को यदि जीवन भर में अर्जित मूल्यों के संप्रेषण का एक उपकरण माना जाए तो आत्मकथा का तीसरा अध्याय बेहद उपयोगी साबित होगा. यह अध्याय ‘जीवित रहने की कला’ सफलता के अतिरेक से उपजी अतिरिक्त विनम्रता व लजीलेपण से लगभग एक उवाच शैली में लिखा गया है. सो लिखते हैं कि उन्हें जब जब भारी सफलता मिली तब तब उनके मन में एक भय भरी चेतावनी सी उपजी और कि ‘भय होना कलाकार के लिये एक अच्छा लक्षण है.’ अपनी भारी सफलता को कल्पनातीत मानते हुए उन्होंने जुहू स्थित अपने बंगले का नाम ही ‘वरदान’ रखा है (पृ. 248-249). अपने आडंबरहीन व्यक्तित्व की एक झलक दिखाते कहते हैं – ‘मेरा कोई सेक्रेटरी और चमचे नहीं हैं... मैं अपने टेलीफोन खुद सुनता हूँ और डेट्स की डायरी भी स्वयं ही रखता हूँ (पृ. 250).

फ़िल्मी अनुभव के दूसरे छोर पर पहुँच कर वे युवा पीढ़ी से बुरी तरह असंतुष्ट नज़र आते हैं. उनके अनुसार (काम के प्रति निष्ठां) जैसे ‘गुण आज के कलाकारों में बिल्कुल दिखाई नहीं देते. वे उस (नर्गिस आदि के) युग की ऊंचाइयों तक नहीं पहुँच सकते. वे पूर्णतः भावशून्य हैं...’ (पृ. 263) युवा पीढ़ी की पिछली पीढ़ी से तुलना करते हुए. वे कहते हैं कि इन दोनों पीढ़ियों में बहुत अंतर है – ‘पहली पीढ़ी के लोग अपने काम के प्रति अधिक समर्पित थे...उनकी काम के प्रति इतनी निष्ठा थी कि वे सिनेमा के लिये ही जिये. (लेकिन) आज अभिनय में निपुणता के स्थान पर स्टारडम पर अधिक बल दिया जाता है... आज सिनेमा बहुत व्यापर उन्मुख हो गया है... इन कलाकारों ने अभिनय के बारे में सोचना और बात करना बंद कर दिया है और अपनी नवीनतम कारों और नवीनतम महिला मित्रों के संबंध में अधिक चिंतित हैं... (पृ. 259-260). आज फिल्मों में व्याप्त नग्नता के बारे में वे कहते हैं कि ‘नग्नता में कोई आकर्षण नहीं होता... क्योंकि आप जानते हैं कि उससे आगे देखने को कुछ नहीं. केवल जो छिपा हुआ है वही रहस्य उत्पन्न करता है. यह (अश्लीलता) घटिया दर्जे का मनोरंजन है... लोगों को आज भी ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे’ में मधुबाला के हाव-भाव याद हैं’ (पृ. 264).  

इस पुस्तक का एक और बढ़िया आकर्षण है कि इसके कई पृष्ठों में अमरीश पुरी के नाटक व फ़िल्मी करियर की अनगिनत ब्लैक ऐंड व्हाईट तस्वीरों के ऐल्बम भी जगह जगह संकलित हैं. कुल मिला कर फ़िल्मी हस्तियों की आत्म-कथाओं जीवनियों की पुस्तकों के मध्य अमरीश पुरी की यह आत्म-कथा बहुत महत्वपूर्ण व संग्रहणीय स्थान रखती है जिसमें अनेकों प्रेरणास्पद प्रसंग भी हैं तो नाटक व फिल्म के अभिनयों की बारीकियां भी. 





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