Thursday, July 24, 2014

हृदयेश होने का 'जोखिम' - समीक्षा

हृदयेश होने का जोखिम
समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला
(समीक्षित पुस्तक – जोखिम  : आत्मकथात्मक साहित्यिक यात्रा’, लेखक : हृदयेश,  प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ संख्या – 335, मूल्य : 395 रुपए)
साहित्यकार को आदर्श रूप में यदि मानवीय संवेदना का वाहक माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी. समाज के गलत को रेखांकित करना, मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन की ओर समाज को सचेत करना, यही होता होगा साहित्यकार का और साहित्य का धर्म. परन्तु यह भी सत्य है कि आज के इस फैशन-परस्त विज्ञापनी युग में साहित्यकार रूप में मान्यता प्राप्त करना कोई मसखरी का खेल नहीं है. यहाँ संघर्ष की ज़मीन पर खड़े हो कर साहित्यकार के पैर पल पल तपते हैं, और अंततः उसे स्वयं को समझाना पड़ता है कि ‘... तुम आगे बढ़ने के लिये किसी राजमार्ग की आशा बिसार दो. तुमको यदि उपेक्षाओं, तिरस्कारों, ठोकरों, व्यवधानों, आघातों के बीच अपना सफर जारी रखना है तो जारी रखो. तुम तो इनके अभ्यस्त हो चुके हो. संघर्ष को नियति का साथी बना लेना पराजय का अस्वीकार्य है.’ ये पंक्तियाँ हैं मधुरेश के शब्दों में जो ‘छोटे शहर का लेखक’ है, उन हृदयेश की ‘आत्मकथात्मक साहित्यिक यात्रा’ ‘जोखिम’ से (पृ. 318), जिनकी कलम अपनी साहित्यिक यात्रा में निरंतर गांधी जैसी  चारित्रिक उत्कृष्टता तथा प्रेमचंद जैसी आदर्शवादिता लिये निरंतर कर्मरत रही. बतौर एक व्यक्ति के हृदयेश का प्रथम परिचय इसी पुस्तक की इन पंक्तियों से सहज ही मिल जाता है – ‘(ओमप्रकाश जानते थे कि) ज़िला न्यायालय जैसे तरमातर विभाग में नौकरी कर हृदयेश ने हाथ तर नहीं किये थे. उनके यहाँ के कई काम हृदयेश ने बिना उनकी जेब हल्की कराए कर या करा दिए थे’ (पृ. 228). समाज में बहुत कम उपलब्ध इस आदर्श शख्सियत का तारुफ इस पुस्तक की इन पंक्तियों में भी सहज ही मिल जाता है – ‘उन्होंने बड़ी शान व इज्ज़त से नौकरी की है. किसी से कभी दबे नहीं. कर्मचारियों ने अगर गलत मुद्दों पर हड़ताल की तो साथ दिया नहीं. उनके नेताओं की धुन-पट्टी में आए नहीं. जब कभी अखबार या किसी पत्रिका में उनका लिखा हुआ दिख जाता है, लोग कहते हैं कि अपनी कचहरी वाले ही यह हृदयेश बाबू हैं... पुराने वकील वैसा मौका आने पर उनके आचरण और उनकी कार्यकुशलता का उदहारण देते हुए उनको इज्ज़त से याद करते हैं’ (पृ. 298).
1930 में उत्तरप्रदेश के इस छोटे से, साहित्यिक दृष्टि से लगभग उपेक्षित शहर शाहजहांपुर में ही जन्मे व समस्त जीवन इसी शहर में तपस्यारत साहित्यकार हृदयेश ने सन् ’52  से लेखन प्रारंभ किया तथा आने वाले लगभग छः दशकों में फैले उनके विस्तृत साहित्यिक जीवन का एक  सशक्त दस्तावेज़ है ‘जोखिम’, जिसे उन्होंने आत्मकथात्मक साहित्यिक यात्रा कहा है तथा जिसे उन्होंने प्रथम पुरुष में न लिख कर अन्य पुरुष में बतौर एक औपन्यासिक कृति के लिखा है.
‘जोखिम’ को बहुत आसानी से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, परन्तु दोनों के बीच जो एक आकर्षक तत्व है, वह है हृदयेश के व्यक्तित्व की अपनी निश्छलता व किसी भी उपेक्षा व असफलता के बावजूद पराजय को ही सशक्त तरीके से पराजित करते चले जाने की उनकी लेखकीय व व्यक्तित्वगत जिजीविषा. जहाँ एक तरफ इस कृति का एक हिस्सा हृदयेश की साहित्यिक यात्रा पर अधिक से अधिक फोकस करता है, वहीं सभी अध्यायों को बहुत सलीके से क्रमित कर के उन्होंने अपनी पारिवारिक व व्यक्तिगत ज़िंदगी  का भी बहुत प्रभावशाली बल्कि प्रेरणादायक लेखा जोखा दिया है.
साहित्य स्वयं को गलत के प्रतिपक्ष में खड़े रखने के गुरूर से प्रायः गर्वित रहता है परन्तु तमाम मानवीय मूल्यों व उत्कृष्टतम संवेदनाओं का मसीहा कहलवा कर भी साहित्यकार स्वयं अपनी प्रसिद्धि को ले कर किस प्रकार की टुच्ची से टुच्ची राजनीति कर के स्वयं को ऊंचा और बहुत आसानी से दूसरों को नीचा दिखाने की धृष्टता करता रहता है, इस का सशक्त विवरण ‘जोखिम’ नाम की कृति है. लेखक छोटे शहर में रहते हैं जो न दिल्ली के नज़दीक है ना मुंबई के, जब कि अक्सर उन्हें इस बात का दंश महसूस होता है कि उनकी कहानियों की चर्चा क्यों नहीं होती. केवल इतना ही नहीं उनकी कतिपय कहानियां जो बाद में चर्चित भी हुई और सराही भी गई थीं, ‘उनको कई संपादकों ने अपनी बनाई नीतियों, पसंदगियों और सनक व बहक के अलावा इस करण भी अस्वीकृत कर दिया था कि उन्होंने ना तो उनके दरबार में कभी हाज़िरी बजाई थी ना उनके साहित्येतर शौकों, मौज मस्तियों में शामिल हुए थे. वह कोई बड़े अफसर नेता या धन टायकून नहीं थे. वह एक बेहैसियत जीव थे...’ (पृ. 215).
एक बड़े राज्य में भी हाशिए से लगते इस छोटे शहर के साहित्यकार हृदयेश ‘हाई-फाई वाले शोरूमों, ऊंची आलीशान बिल्डिंगों, बड़े सरकारी, गैर सरकारी दफ्तरों में घुसने से बचते हैं.... गोष्ठियों सेमिनारों में पहुँच जाने पर वह पीछे की सीट पर बैठेंगे, सक्रिय भागीदारी से बचेंगे, और बड़ी व नामचीन हस्तियों से परिचय बढ़ाने या संपर्क गाढ़ा करने की गहरी चाह होते हुए भी वैसा करने से संकोच करेंगे...’ (पृ. 212).
साहित्यजगत में रेवड़ियों की तरह बंटते या खरीदे बेचे जा रहे पुरस्कारों सम्मानों पर एक स्थल में हृदयेश की अनपढ़ हालांकि उनके प्रति अति चिंतित व प्रेम करने वाली पत्नी बेहद रोचक संवाद कहती हैं - ‘आपके भाई साहब को बरसों बीते दो बार ढाई ढाई हज़ार रुपल्ली के पुरस्कार मिले थे. बाद में एक पांच हज़ार रुपल्ली का. ऊँट के मुंह में जीरा डालना ही हुआ. सहर के जिन लोगों के लिए यह कहते हैं उनका लिखा एक भी अच्छर किसी मगजीन अखबार में छपा नहीं वे बीस बीस, पच्चीस पच्चीस हज़ार के इनाम हर दूसरे-चौथे साल झपट लेते हैं.  इनके बाद के दसियों लिखने वालों को, यही बताते हैं, लाख-लाख रुपए के इनाम मिल चुके हैं. अब जब इनाम पुरसकार पाने के लिए कुछ उल्टे-टेढ़े उपाय करने पड़ते हैं तो बाबा तुम भी कर लो. ज़माने की हवा देख के जब दूसरे चल रहे हैं तब तुम क्यों तपसया कर सूख रहे हो... पर नहीं. पुरस्कार हाथ जोड़ता अपने पैरों चल के इनके पास आएगा तो ले लेंगे...’ परन्तु पत्नी के ऐसे अबोध उवाचों पर तो हृदयेश जैसे साहित्यकार का कहना है कि उन्होंने ‘ऊपर वाले से मिली चदरिया को...जतन से ओढ़ने की अब तक कोशिश की है. उस पर दाग धब्बा लगने नहीं दिया है’ (पृ. 226).  उक्त संवाद इस कृति के उन पृष्ठों में आता है जब साहित्य के साथ साथ साहित्य पर हो रहे शोध की भी वास्तव में क्या छीछालेदर हो रही है देश में, इस का बेबाक वर्णन हृदयेश करते हैं. उनकी पुस्तक ‘गाँठ’ एक विश्वविद्यालय में बी.ए. के पाठ्यक्रम में लगती है परन्तु तीन चार साल में ही ‘विश्वविद्यालय में घुसपैठ रखने वाले एक  प्रकाशक ने अपने यहाँ से आई पुस्तक को लगवाने के लिये (मेरे) इस उपन्यास को निकलवा दिया’ (पृ. 225). उन्हें आघात इस बात पर पहुँचता है कि कोई परिचित उन्हें यह सूचित करने आता है कि उस की बेटी को विश्वविद्यालय में पी.एच.डी के लिये हृदयेश के साहित्य पर शोध करने का विषय मिला है, परन्तु वे सज्जन चाहते हैं कि हृदयेश स्वयं ही अपने साहित्य पर सारी थीसिस लिख कर संबंधित महानुभव से बीस पचीस हज़ार ले लें! शिक्षा और साहित्य की इस से अधिक दुर्गति का उदहारण शायद अन्यत्र कहीं ना मिले. स्पष्ट है कि हृदयेश इस प्रकार की कोई अनुकम्पा संबंधित व्यक्ति पर न कर के स्वयं को हृदयेश साबित कर देते हैं. 
वरिष्ठ व नामी गिरामी साहित्यकार प्रायः हृदयेश की ‘उपस्थिति को अनुपस्थिति में बदल देते हैं’ तथा अध्यक्ष रूप में भी उनके द्वारा दिए गए भाषण से अधिक अहमियत अन्य लोग बटोर ले जाते हैं, ऐसे कई प्रसंग इस औपन्यासिक कृति में हैं. यहाँ तक कि हृदयेश को उपेन्द्रनाथ अश्क जैसे वरिष्ठ साहित्यकार से यह भी सुनने को मिलता है कि ‘हृदयेश नाम चूतिया का पर्याय है’ (पृ. 218). इसी पृष्ठ पर यह भी वर्णित है कि ‘सतीश जमाली ने बताया कि अपने एक लेख में उनके (हृदयेश के) कृतित्व की सराहना करने पर वहाँ (इलाहबाद) के लोगों ने उनको आड़े हाथों लिया है...’ हृदयेश साहित्य में व्याप्त ऐसे चर्चा के दलालों व साहित्य में निकृष्ट राजनीति करने वालों के विषय में एक सही सवाल पूछते हैं – ‘क्या एकांत में इनको अपने छल-कपट वाले ये घिनौने पतित कृत्य धिक्कारते या बेचैन नहीं करते हैं? उनके लिये शायद देखने परखने को अपना नहीं दूसरों का चरित्र होता है...’(वही पृष्ठ).
साहित्य से जुड़ी किसी भी प्रकार की ज़लील राजनीति व गुटबाज़ी से परहेज़ कर के निरंतर तपस्या करते चले जाने वाले लेखक हृदयेश की इस आत्मकथा में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि व पारिवारिक स्तर पर झेली गई कठिनाइयों का भी बहुत संवेदनात्मक व ईमानदार वर्णन है. अनपढ़ पत्नी से बेमेल विवाह के बावजूद जो संबल वे पाते हैं, उसे स्वीकारने से बचने की कोशिश वे नहीं करते. बल्कि स्वयं अपनी ही छवि को सत्य के दर्पण में निहारते हुए उन्होंने अपनी साहित्यकारगत दुर्बलताओं व साहित्य से जुड़ी स्वार्थ लिप्साओं का वर्णन भी पूरी ईमानदारी से किया है. उदहारण के तौर पर पिता की अर्थी को ले कर श्मशान भूमि पहुँच कर पिता की चिता को आग लगाने के बाद बारिश पड़ जाने पर जलती चिता को श्मशानी बाबा के हवाले कर आने पर हृदयेश को पिता के प्रति उस ठंडेपन को लेकर आत्मग्लानि होती है (पृ. 202). अध्याय 15 में माँ के अति व्यावहारिक व खुदगर्ज़ से लगते व्यक्तित्व का चित्रांकन बहुत सशक्त व प्रभावशाली तरीके से हुआ है. अपने बेटों पर टी.बी व फिट्स जैसे निर्मम आघातों व अन्य कई पारिवारिक गर्दिशों का वर्णन भी हृदयेश पूरी सफलता से कर पाए हैं. अध्याय 16 में दादा-पोती के बीच पोती के बिल्ले को ले कर हुआ वार्तालाप बेहद रोचक बन गया है. परन्तु साहित्यकार के भीतर व्याप्त दोहरेपन को वर्णित करने में सर्वाधिक सफलता उन्हें अध्याय 17 vमें मिली है जहाँ वे अपनी आँखों से रास्ते में हुई कोई ‘हत्या’ देखते हैं तथा न्यायपालिका में बरसों के अनुभव के बावजूद निरंतर एक दोहरी आग में जलते हैं कि एक तरफ उनके साहित्यकारगत सिद्धांत व छवि,  दूसरी तरफ एक नामीगिरामी अपराधी के विरुद्ध गीता के सम्मुख कसम खा कर गवाही देने के दुष्परिणामों का भय. वे एक  तरफ कुँए और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति में फंसे महसूस कर के,  अपनी ही प्रतिछवि नारायण बाबू से तड़प कर कह उठते हैं कि ‘मुझे सोच कर रास्ता बताओ कि भौतिकतः मुझे कोई बड़ी क्षति पहुंचे नहीं और मेरी छवि बची रहे.’ (पृ. 305).  अपनी साख को ऊंचा बनाए रखने की चिंता और व्यावहारिकता के बीच झूलते साहित्यकार के इस सशक्त रूप से अभिव्यक्त द्वंद्व को पढ़ कर अप्रत्यक्ष रूप से गोविन्द निहालानी की प्रसिद्ध फिल्म ‘पार्टी’ की याद ताज़ा हो जाती है जिसमें दोहरे मानदंडों को जीने वाले साहित्यकार/कलाकार एक प्रकार से अपने इन दोहरे मानदंडों के अँधेरे बंद कमरों में निरंतर फंसे ही रहते हैं क्योंकि इस अध्याय में भी हृदयेश उस द्वन्द से उभर कर आर या पार का कोई रास्ता नहीं अपनाते, वरन उनकी जान में जान तब आती है जब जिस  अपराधी के खिलाफ उन्हें गवाही देनी है वह खुद ही किसी अन्य अपराधी गिरोह द्वारा मारा जा कर नदी के पुल के नीचे मृत पाया जाता है!
इस आत्मकथा का सर्वाधिक प्रेरणादायक वाक्य उनके किताबघर प्रकाशन के आर्यस्मृति  समारोह 1996 (पृ. 9-15) में दिए गए अध्यक्षीय वक्तव्य में मिल जाता है -  ‘बहुत से इस धारणा के होंगे कि अब मुझे यहां से रिटायर हो जाना चाहिए... लेकिन इस सलाह को मानूंगा नहीं...मैं जो होशो हवास तक साहित्य-सृजन के नाम पर कलम पकड़े रहना चाहता हूँ, तो इसलिए कि यह मेरे होने की सार्थकता है’...(पृ.. 9-10). 
 जहाँ एक तरफ उन फैशनेबल आत्मकथाओं की भी भरमार सी कम नहीं है जिनमें झूठे सच्चे प्रेम या सेक्स प्रसंगों का रसास्वादन लिखने व पढ़ने वाले दोनों ही करते हैं. वहाँ हृदयेश की इस आत्मकथात्मक साहित्यिक यात्रा ‘जोखिम’ को एक बेहद ईमानदार व सशक्त दस्तावेज़ मानना ही इसका सही मूल्यांकन होगा.




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