Thursday, July 24, 2014

अलका सिन्हा के विविध सरोकार - समीक्षा

अलका सिन्हा के विविध सरोकार
समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला
(समीक्षित पुस्तक: ‘मुझसे कैसा नेह’ (कहानी संग्रह)
लेखिका: अलका सिन्हा.
प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली.   
पृष्ठ संख्या: 136 मूल्य: 200.00.

अलका सिन्हा के कहानी संग्रह ‘मुझसे कैसा नेह’ को पढ़ कर लेखिका के विभिन्न सरोकारों से साक्षात्कार होता है, हालांकि अधिकांश कहानियों का मूल स्वर समाज के दमित शोषित पात्रों की पक्षधरता का है.  संग्रह की पहली दो कहानियां ‘गुड्डो का स्कूल’ और ‘चांदनी चौक की ज़बानी’ एक अच्छा ओपनिंग प्रभाव दिखाते हुए उक्त तथ्य को जस्टीफाई भी करती हैं. कहानी ‘गुड्डो का स्कूल’ में अमीर मालकिन की नौकरानी अपनी बेटी को भी पढाना चाहती है, हालांकि वह ऐसा केवल Right to education जैसे निपटाऊ भर कानून के अंतर्गत नहीं करना चाहती, वह तो अपनी बिटिया को सरकारी स्कूल में दाखिल न कर के अंग्रेज़ी स्कूल में ही दाखिल कराना चाहती है. पर उसकी आर्थिक स्थति व पति का बचाए हुए पैसे से ही दारू की मौज उड़ा लेना नौकरानी को सामजिक विषमता पाट कर अपनी बेटी को मालकिन की बेटी के समकक्ष करने से रोकता है, जबकि उसकी बेटी मालकिन की बेटी जैसी अपनी क्षमता प्रमाणित करने की चेष्टा भी करती है. नौकरानी का उत्साह और बिटिया को पढ़ाने की उत्कट इच्छा इन संवादों में स्पष्ट झलकती है:
‘बीबीजी क्या बिंदिया भी पढ़ सकती है गुड्डो रानी के इस्कूल में?’
...’क्यों  नहीं भोली इसे सरकारी स्कूल में डाल दो, वहां तो मुफ्त है पढ़ाई...’
‘मुफ्त नहीं बीबीजी हम पइसे देंगे. बिंदिया भी जाएगी गुड्डो रानी के इस्कूल में.’
‘क्यों क्या सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती?’
‘होती तो तुमने क्यों नहीं डाला गुड्डो को सरकारी इस्कूल में?’ (पृ. 10).
कहानी ‘चांदनी चौक की ज़बानी’ में एक विदेशी पर्यटका के प्रति एक नज़र में कहानी की नैरेटर के में खीज होती कि ‘आखिर ये विदेशी समझते क्या हैं अपना आप को? कोई भी यहाँ आता है, भीख मांगते बच्चों की तस्वीर खींचता है और अपने देश उसे ‘भारत’ के नाम से कैलेण्डर बना कर बेचता है.  दिल्ली के तमाम पॉश इलाके छोड़ कर यह चांदनी चौक आयी है कि इन दोनों पत्तलों की, लड़ते कुत्तों की और फुटपाथ पर सोते मजदूरों की तस्वीरें खींच कर ले जाए... ‘(पृ. 20) पर विदेशी पर्यटका बहुत सहज तरीके से इन फुटपाथ पर सोये मजदूरों की ओर संकेत कर के अहसास कराती है कि ‘... देखो ये ढेर... यानी भूख बड़ी होती है व्यंजन से ’ वह जूठे दोनों-पत्तलों के ढेर की तरफ इशारा कर रही थी...वह गुदड़ियों की तरफ देखने लगी... ’देखो नींद बड़ी है बिस्तर और गद्दों से...(p 21).

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘मुझसे कैसा नेह’ में सबसे रिश्ते नाते तोड़ कर कहीं अकेले रहने वाली नारी की मानसिक उथल-पुथल एक पीपल से बातें करने के बहाने दरअसल खुद से ही बतियाने की निरंतर प्रक्रिया में व्यक्त होती है. पर दरअसल उस पीपल के बहाने ही उसे खुद से खुद को संदेश मिलता है कि ‘ठहराव का टूटना ज़रूरी है’ और उसके ‘भीतर-भीतर कोई नई कोंपल हरियाली की तान छेड़ रही थी...’ (पृ. 49).  ‘भीतर भीतर कोई नई कोंपल’ किसी न किसी  रूप में उनकी अन्य कहानियों में भी द्रष्टव्य हुई है जहाँ असंतुष्ट पात्रों को अंत में कोई  आशा की किरण दिख कर आशा का संचार करती है. जैसे ‘अपूर्णा’ कहानी जो इस संग्रह की सबसे श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, की अपर्णा उर्फ़ अपूर्णा को एक नारी होते हुए भी पहले खित्तदा (क्षितिज दा), फिर अपने पति को स्वाधीनता की लड़ाई में बहादुरी से बराबर की भागीदारी देते हुए भी उस समय चोट लगती है जब पोता सुराज खित्तदा और पति की शहादतों से मिले सुराज (स्वराज्य) की अवमानना रिश्वतखोरी आदि से करता है. पर वयोवृद्धता में अपना नाम तक भूल चुकी अपूर्णा दादी पोते के बेटे हिम को गोद में उठाती है तो हिम पुकार उठता है दा-दी. ‘कितनी मिठास थी उस एक संबोधन में... वह झूल गया था दादी की टहनी सी बांह में और लगा जैसे उसने हिला दी हो डाली फूलों की... (पृ, 33).
कहानी ‘फिर आओगी न’ की शीलू पत्नी होने के अहसास से अस्थायी मुक्ति पाने को मायके आती है पर वहां बेटे और बेटी के बीच की विषमता से आहत हो कर लौटती है. मायके आते समय अपने में लौटने की आशा लिये सोचती है ‘मैं सिर्फ शीलू बन कर जीना चाहती हूँ.  शीलू जो अपने गैंग की लीडर थी...’ (पृ,70) पर अंततः उस का चोट खाया मन चीत्कार उठता है – ‘हाय, बाबा ने ये क्या कह दिया? थोड़ा हक? बराबर क्यों नहीं? (पृ. 74)’.
चाहत’ में जन्म से पहले ही गर्भ में बेटी की सूचना मिलने पर गर्भपात के सामजिक अपराध को बेहद मनोवैज्ञानिक तरीके से ट्रीट कर के लेखिका ने एक अच्छी कहानी प्रस्तुत की है. बेटे की चाहत में पेट में पल रही बेटी को अबोर्शन द्वारा मारने और पत्नी को बाँझ बना देने की कचोट से आहत पति... आहत पति का पछतावा... और दर्द महसूसता वह पति एक अन्य जोड़े को ऐसा अबोर्शन कराने से मना करता है. पति अमित, उस जोड़े से कहता है – ‘... उनसे पूछिए जिन्हें कोई औलाद नहीं... वे कैसे तडपते हैं बच्चे की किलकारी सुनने के लिये...आप दूसरा बेटा पाल सकते हैं मगर दूसरी बेटी नहीं... ठीक है मैं पालना चाहता हूँ, गोद लेना चाहता हूँ आपकी इस अजन्मी बच्ची को... मैं उसे डॉक्टर बनाऊंगा... नहीं, पायलट बनाऊंगा...’ (पृ. 67-68).
मोल्डिंग सिस्टम’ देश की व्यवस्था पर करारी चोट करती है. देश की व्यवस्था एक ‘मोल्डिंग सिस्टम’ सी है जो अपने प्रतिभाशाली खिलाड़ी को कुछ न दे कर उसे अपनी ही संवेदनहीनता के अनुकूल ‘मोल्ड’ करने को विवश करती है. कहानी की पीड़ा एक व्यंग्योक्ति के तीखे दंश में प्रकट हो  उठती है – ‘सरकार...? कौन सी सरकार...? वह किस दुकान पर मिलती है...?’ (पृ. 60).
मिनी’ कहानी अपने ही घर में माँ बाप द्वारा उपेक्षित एक लड़की की कहानी है जिस की बहन विनी को अपेक्षाकृत पूरी तवज्जो मिलती है. ऐसे में मिनी को जीवन नीरस लगता है. उस अकेलेपन को घर के भीतर ही जीती मिनी सोचती है – ‘मम्मी को सचमुच मेरी इतनी ही फ़िक्र थी तो वह मेरे साथ बैठ कर लूडो सांप-सीढ़ी खेल लेतीं, मेरी दोपहर भी कट जाती और मुझे धूप में निकलना भी नहीं पड़ता...’ (पृ. 91) इस कहानी में इस प्रकार अकेली पड़ चुकी लड़की के मनोविज्ञान को बारीकी से प्रस्तुत करने में लेखिका के महारत से साक्षात्कार होता है. मिनी लायब्रेरी जाती है पर घर नहीं लौटना चाहती है. उसके मन की वेदना इन् शब्दों से स्पष्ट है – ‘नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊंगी घर. ऐसी ज़िंदगी जीने से तो बेहतर है बाहर रह कर धनिया पुदीना बेच लूं...’ (पृ. 92).
संग्रह में आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में सर्वत्र व्याप्त अजनबियत और डर को व्यक्त करती एक और सशक्त कहानी है. एक कामकाजी महिला को प्रतिपल घर में बैठे अपने बच्चों की फ़िक्र सताती है, एक खौफ हर समय उस पर तारी रहता है. फोन लगातार बज रहा हो और उधर बच्चे उत्तर न दे रहे हों तो मन कैसी कैसी कल्पनाओं में काँपता है – आखिर बच्चे फोन क्यों नहीं उठा रहे? उन्हें मालूम है कि मैं इस वक्त फोन करती हूँ. शायद बाथरूम में हों, पर एक तो बाहर होगा. क्या हो सकता है? कहीं मैगी बनाने में गैस जलाई हो और कोई दुर्घटना... हे ईश्वर, रक्षा करना. मन हमेशा ऊलजलूल क्यों सोचता है? (पृ. 79). ऐसी परिस्थिति में किसी पड़ोस की महिला का आ कर बच्चों को आत्मीयता दिखाना व प्यार देना और यहाँ तक कि उनके होमवर्क तक में उनकी मदद कर देना भी संदेह की स्थिति में डाल देता है. ऐसे में कामकाजी महिला बच्चों से ही उल्टे सवाल करती है – ‘आखिर क्यों किया उसने तुम्हारे लिये इतना सब? क्या लालच है उसे तुमसे... तुमने यह भी कभी सोचा?’ (पृ. 82) और एक खौफ से भरा निष्कर्ष बच्चों के लिये – ‘समय ठीक नहीं है बेटा, ट्राइ तो अवाइड हर!’
आतंक के इस माहौल में क्या मानवीय संवेदना की कोई गुंजाइश है? क्या जिस माहौल में एक बच्ची की गुडिया में भी बम छुपा कर चलते हुए विमान में बम विस्फोट किया जाए उस में एक संवेदना भरा हृदय ले कर जीना संभव है? कहानी ‘तुम्हारे लिये चॉकलेट, बेबी’ पढ़ कर आज के आपराधिक माहौल से एक निर्मम सा साक्षात्कार होता है जिस में किसी अजनबी की संवेदना विगलित आवाज़ तक पर भरोसा करना एक बड़ा धोखा साबित होता है.
आज के इस व्यक्तिवादी तेज़ रफ़्तार व महत्वाकांक्षी दौर में पति पत्नी के बीच के रिश्ते भी प्रभावित होने से नहीं चूकते. इस कदर कि पत्नी को यह भी विस्मृत हो जाता है कि आज उसकी शादी की सालगिरह है. सुबह दफ्तर के लिये ठीक समय पर निकलने के तनाव में पति की बात सुनने की फुर्सत नहीं सो पति को अपनी बात पत्नी के ही पर्स में एक ‘पीला लिफाफा’ डाल कर करनी पड़ती है कि शादी से पहले ‘अपनी पढ़ाई के भूत सवार था और अब प्रमोशन का...’ पढ़ाई की महत्वाकांक्षा में कहीं प्रतीक्षा कर रहे प्रेमी से प्यार करने की फुर्सत नहीं और विवाह के बाद जॉब लगे तो प्रमोशन व करियर का तनाव. पति प्रेमी को शिकायत कि ‘प्यार करने की उम्र में तुम पढ़ाई करती रही और परिवार के साथ जीने की उम्र में तुम्हें प्रमोशन की सनक छाई रहती... क्यों परेशान होती हो इतना...’ इस कहानी ‘पीला लिफाफा’ को लेखिका ने बहुत रोचकता व चुटीलेपन से लिख कर प्रभावोत्पादकता का परिचय दिया है.
कहानियां ‘जन्मदिन मुबारक’ व ‘फादर ऑन हायर’ भी संग्रह की सशक्त कहानियां हैं. ‘फादर ऑन हायर’ एक अंग्रेजीदां स्कूल जिसमें हिंदी में बोलने पर फाइन देना पड़ता है पर बहुत रोचक व प्रभावशाली व्यंग्य है. अलका सिन्हा का कथा लेखन सादगी भरा सा है जहाँ कहानियां सीधे सादे रास्ते पर चल कर भी बांधे रखती हैं. इन में हम किसी भी प्रकार की शिल्पगत शैलीगत प्रयोगशीलता व तीखेपन के दंश से साक्षात्कार न कर के  भी एक रोचकता व पठनीयता से रू-ब-रू करते हैं और संबंधित विषय पर अपनी दृष्टि को जस्टीफाई करने की क्षमता से भी.  लेखिका के सरोकारों की विविधता की बात तो ऊपर कही जा चुकी है पर इन कहानियों में ट्रीटमेंट बहुत अच्छा होने के कारण इन में पाठक की उत्सुकता बनी रहती है. चर्चित कविता संग्रहों ‘काल की कोख से’ , ‘मैं ही तो हूँ ये’ व ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ की रचेता अलका सिन्हा को ‘हिंदी अकादमी के कृति सम्मान’, ‘परंपरा ऋतुराज सम्मान’ तथा ‘महात्मा फुल्ले रिसर्च अकादमी, नागपुर द्वारा अमृता प्रीतम राष्ट्रीय पुरस्कार’ दिए जा चुके हैं. कहानी के क्षेत्र में यह उनका दूसरा कहानी संग्रह है जो कहानी विधा में भी उनकी प्रतिभा का समुचित परिचय देता है.


No comments: