Thursday, July 24, 2014

कहानी के चौखटों में 'लोकरंगी प्रेमकथाएं' - समीक्षा

कहानी के चौखटों में ‘लोकरंगी प्रेमकथाएं’
समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला
(समीक्षित पुस्तक: लोकरंगी प्रेमकथाएं, संपादक – रवीन्द्र कालिया
पृष्ठ संख्या: 163, मूल्य : 170 रुपए).
‘लोकरंगी प्रेमकथाएं’ ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित रवीन्द्र कालिया द्वारा सम्पादित कहानी संग्रह है जिस में ‘नल दमयंती’ ‘लैला मजनू’ ‘हीर राँझा’ आदि सर्वप्रसिद्ध लोक कथाओं को कहानी विधा के चौखटों में बहुत ख़ूबसूरती से बाँधा गया है. संग्रह की भूमिका के तौर पर रवीन्द्र कालिया को कहानी विधा की डिफेन्स करनी पड़ रही है, यह कहते हुए कि – ‘यह कहना गलत है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. वे जब कुछ पठनीय और जीवन से सरोकार रखने वाली रचनाएँ पढ़ते हैं तो हुजूम में लौट लौट आते हैं.’ प्रस्तुत संग्रह ‘पठनीय’ तो है पर आज के जीवन से उसका कैसा समीकरण है, यह प्रश्न हर कहानी को नज़दीकी से परख कर ही उत्तरित हो सकता है.
संग्रह की सब से लंबी कहानी ‘नल दमयंती’ वास्तव में प्रेम कहानी न हो कर एक सत्यनिष्ठा पतिनिष्ठा पत्नी दमयंती के विलाप की कहानी है जिसे उस का राजा पति नल निर्जन वन में अकेली असहाय छोड़ कर चल देता है. जब निषध राज का पराक्रमी राजा नल ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’ को सार्थक करता या यह कहें कि ‘कलियुग’ के प्रभाव में आ कर जुआ खेलते हुए अपने भाई पुष्कर के हाथों समस्त राज्य पाट हार जाता है तब एक भिक्षुक सा बन कर महल से निकल पड़ता है. उस समय ठीक सीता की तर्ज़ में पत्नी, रानी दमयंती उस के हर सुख दुःख की संगिनी बन साथ चल पड़ती है. परन्तु निर्जन वन में भटकते भटकते जब द्वापर के पांसों रूपी हंस नल के बदन की एकमात्र धोती उड़ा कर उसे पूर्णतः नग्न कर के उड़ जाते हैं तब राजा नल गहरी नींद में सोई रानी दमयंती की आधी धोती फाड़ उसे उस खूंखार से लगते वन में अकेली छोड़ चल पड़ता है. इस के बाद जब दमयंती जागती है तो अपने ‘वेद वेदांग के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ, महातेजस्वी’ पति को अनुपस्थित पा कर वन वन भटकती है और उसकी दारुण कथा बहुत मार्मिक बन पड़ी है, परन्तु उस मार्मिकता से भी अधिक उस ‘वेद वेदांग के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ, महातेजस्वी’ पति नल की निष्ठुरता पर दमयंती का दुःख भरा आश्चर्य इस कहानी का मूल कथ्य बन गया है. दमयंती वन वन भटकती पगला सी जाती है परन्तु उस नारकीय दशा में भी उस सत्यव्रता का मन विलाप करता पति को भर्त्सना भरा उलाहना देता  है – ‘हे स्वामी! स्त्री का सब से बड़ा आधार तो उसका पति ही होता है, फिर जब वही बिछुड जाए तो उसके लिये जीवन में बचा ही क्या रहता है?’ (पृ. 28). इस अभागी परित्यक्ता नारी का जब स्वयंवर हो रहा था तब चार चार देवता मायावी तरीके से उसके सपनों में बसे नल का ही रूप धारण कर के बैठ गए थे, और उसने उन देवताओं से प्रार्थना कर के उनका मायावी रूप हटवा कर अपने सच्चे चयन नल के गले में यह कह कर जयमाला पहनाई थी कि ‘हे राजन, मैं देवताओं से क्षमा प्रार्थना कर लूंगी. किसी भी उपाय से उनके क्रोध को शांत कर लूंगी. लेकिन आप के सिवाय और किसी के गले में जयमाला नहीं डाल सकती’ (पृ. 16). उसी नारी के पास पतिव्रत की ऐसी शक्ति भी है कि जंगल में उसे घिनौनी दृष्टि से देखने वाला शिकारी भी देवताओं से उसकी प्रार्थना की शक्ति से वहीं ढेर हो कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है या जिसके तेजस्वी सत्यव्रत मुख को देख एक खूंखार शेर भी चुपचाप एक तरफ हो लेता है. वही नारी जब अनेकों विभीषिकाओं से गुज़रती अपने राजा पिता के पास पहुँचती है तो चारों तरफ उसी निष्ठुर पति की खोज में ब्राह्मणों को भेजते समय  पति के प्रति एक अव्यक्त तिरस्कार सा महसूस करती यह भी कहती  है – ‘हे ब्राह्मणो, अगर तुम्हें राजा (नल) मिलें तो अपना स्वर कठोर कर के कहना – ‘हे पाखंडी! अपनी पतिव्रता स्त्री को इस तरह वन में सोती छोड़ कर भाग जाना क्या तुम्हारे लिये उचित था...? क्या तुम्हारा यह कार्य तुम्हारी प्रतिज्ञा के अनुकूल है? तुम्हारी प्रिया कहलाने वाली यह अभागिन स्त्री दिन रात तुम्हारी याद में रोया करती है. क्या चलते समय तुम्हें उस अबला की तनिक भी याद न रही कि उस निर्जन वन की कठोर भूख प्यास वह कैसे सह पाएगी?’ (पृ. 44-45).
आज समय बदल चुका है जबकि अच्छे भले हालात में कई पति अपनी पत्नियों को त्याग कर दूर देशों की चकचौंध में जा बसते हैं, ऐसे में उन पत्नियों के लिये दमयंती कोई प्रेरणा शायद ना बन पाए, परन्तु यदि इस लंबी परन्तु वन-पीस सी लगती कथा को उस के लिखे जाने के समय काल के अनुसार परखा जाए तो यह सहज ही कहा जा सकता है कि केवल रांगेय राघव (1923-42) की सिद्धहस्त कलम ही अपनी सिद्धहस्तता से दमयंती की दुर्दशा का वर्णन कर सकती है जो इतने कष्ट सह कर भी पति की इस कदर दीवानी है कि पति जब उस के राज्य में एक सारथी रूप में ही सही, लौटने वाला है तो उस के महल पर बैठे मयूर कूकने लगते हैं और यह सब सुन कर उस का पतिव्रत हृदय सहसा कह उठता है – ‘हे अभागिन, आज तेरे प्राणनाथ आए हैं और तू अभी यहीं बैठी है!’ (पृ. 50). कहना ना होगा कि कहानी नल को दमयंती की दुर्दशा रूप में जितना ज़लील करती है उतना ही दमयंती को संभवतः  उस समय की रचनात्मक विवशता के तहत एक आदर्श पतिव्रता नारी रूप में भी प्रस्तुत करती है, जो आज की रचनाशीलता में शायद कहानी का कोई आदर्श रूप ना हो. वैसे कहानी का सशक्त प्रवाह बांधे रखने वाला है और कदाचित पाठक उसे एक ही सांस में पढ़ लेना चाहेंगे.

अन्य कहानियों में कुणाल सिंह की कहानी ‘लैला मजनू’ व्यावहारिक दुनिया से बेखबर दो प्रेमियों की प्रेम-कथा है जो प्रेम और युद्ध के बीच झूलती कथा है. जब मजनू का पिता यानी यमन का सरदार अपने बेटे के मोह में लैला के पिता बसरे के सरदार से अपनी जानी दुश्मनी तक भुला देना चाहता है और उसे लैला-मजनू के प्रेम को स्वीकार करने का संदेश भेजता है, तब बसरे का सरदार प्यार का दुश्मन बन जाता है और प्रेम की जीत के स्थान पर जंग छिड़ जाती है जिसकी शिकार होती है खुद लैला. इस जंग में ‘दोनों ओर फौजों की तलवारों के बीच में लैला का दिल ज़ख़्मी हो रहा था. कैस (मजनू) की फ़ौज का भी हर सिपाही उसे अपना प्रतीत हो रहा था और अपने पिता की हार में उसे अपनी और अपने पिता की मौत दिखाई दे रही थी (पृ. 97). जंग के आखिर में कैस और लैला दोनों के पिता मर जाते हैं. कैस के मरने की झूठी खबर पहले ही फ़ैल चुकी थी. लैला व्यावहारिकता की विवशता में फंस कर इब्बन से शादी कर लेती है जो कैस से ईर्ष्या करता है और लैला का हाथ कई बार मांग चुका है. इब्बन से शादी लैला ‘प्रजा के ज़ोर देने पर’ मंज़ूर करती है. लैला अंत तक व्यावहारिक धरातल पर अपने प्रेम को आहत पाती है.  इब्बन के मरने के बाद भी जब लैला को पता चलता है कि कैस तो ज़िंदा है और वह अपने महल से निकल कैस से मिलने जाती है तब भी राह में रुक कर अपनी प्रजा की भावना पर ही सोच उठती है – ‘लोग कहेंगे उनकी मलिका बेवफा निकली. लोगों की गैरत ज़ख़्मी हो जाएगी. हर कोई कहेगा कि मलिका का इखलाक अच्छा नहीं है.’ (p 98).  इस कहानी में दरअसल कुणाल सिंह का सुंदरता व प्रेम की भाषा को व्यक्त करने में महारत प्रशंसनीय रूप से सामने आता है. जैसे: ‘सुबह की तरह सदा सदा मुस्कराना, मैं आज़ाद किरणों का ताज तुम्हें पहनाऊंगा’ (पृ. 93) और चश्मे  की सफ़ेद रूह को कैस अपने दिल का हर पहलू दिखा कर अपने चुनाव की इजाज़त चाह रहा था (पृ. 94-95).  कुणाल सिंह की ही कहानी ‘शीरीं फरहाद’ में जहाँ एक तरफ एक चित्रकार फरहाद के लिये शीरीं और उसकी बहन सुल्ताना महमन बानो के बीच की ईर्ष्या बहुत तीखे बल्कि नग्न  तरीके से उभर कर आई है, वहीं फरहाद की यह बात कि ‘यह नहर मैं सुल्ताना के लिये नहीं खोद रहा बल्कि लोगों के लिये खोद रहा हूँ....पानी की कमी सुल्ताना को नहीं लोगों को है...’ कहानी को यकायक वर्तमान के लिये एक महत्वपूर्ण मैसेज में परिणत कर देता है. कुणाल सिंह यहाँ भी कलात्मक भाषा का महारत बड़ी रूमानियत के साथ पेश करते हैं. लेकिन इस संग्रह की कहानियां पढ़ कर यह प्रश्न सहज ही मन में उठता है कि जो कहानियां सदी दर सदी और पीढ़ी दर पीढ़ी अलग अलग प्रामाणिक अप्रामाणिक रूपों में अमर रहीं, उन्हें आमजन भले ही प्रेम की शाश्वतता और ‘सच्चे प्रेम के लिये जान भी चली जाए तो कम है’ के आदर्श के साथ किसी चस्के के रूप में ही सुनते सुनाते रहे हों (शायद इसीलिये इस संग्रह का शीर्षक ‘लोकरंगी’ यानी लोगों द्वारा रंगी गई भी समीचीन ही है) परन्तु साहित्यकार वर्ग उसे समय समय पर अलग और सार्थक रूप देता रहा है. प्रसिद्ध सूफी सिंधी कवि शाह अब्दुल लतीफ़ (1689-1752) के काव्य की सात रानियाँ थीं: सोहनी, सस्सी, मूमल, मारुई, लीला, नूरी और धाज और इन सब की कथाओं प्रेम कथाओं को शाह अब्दुल लतीफ़ ने आत्मा परमात्मा से जोड़ कर उन्हें आध्यात्मिक रूप दे दिया था. इधर आधुनिक काल में महाभारत की कॉपीराईट फ्री कथावस्तु को ‘ययाति’ (विष्णु सखाराम खांडेकर) व मृत्युंजय (शिवाजी सावंत) जैसे सशक्त मराठी उपन्यासों में आधुनिक दर्शन व संवेदना में बाँधा गया. नरेंद्र कोहली की रामायण भी भला कौन भुला सकता है. ऐसे में यदि कुछ लेखक तमाम प्रचलित प्रेमकथाओं को आज के शीशे से दिखाते हुए कहानी विधा का रूप देते हैं तो यह अपने आप में एक सुखद बात है. ईशान अग्निहोत्री की  कहानी ‘हीर रांझा’ एक चिरकालिक प्रेम-कथा से अधिक सम्मान व सम्मान-हत्या से जुड़ी कहानी लगती है. पहले हीर का अपने ही चरवाहे से प्यार करना घर के सम्मान के लिये प्रश्नचिन्ह बन जाता है और उसकी धोखे से ही शादी करा दी जाती है, और फिर जब उचित न्याय पा कर हीर रांझे को वापस दी जानी होती है, तब डोली की जगह हीर की अर्थी उठती है और उसका चाचा कैदो उसे ज़हर खिला कर सम्मान-हत्या कर देता है. ईशान की ही कहानी ‘सस्सी पुन्नू’ में भी सम्मान या वर्ग-भेद एक और तरीके से आता है और एक धोबी की बेटी सस्सी  (जो वास्तव में एक धोबी की बेटी है भी नहीं, एक राजकुमारी है जिसे उसके राजा पिता ने पैदा होते ही पानी में बहा दिया था) से विवाहित पुन्नू के भाई पुन्नू को धोखे से अपहृत कर के चले जाते हैं. इस कहानी में सस्सी की पुन्नू को पाने की तड़प अधिक मुखर हो उठी है, सस्सी तो पुन्नू की इस कदर दीवानी है कि जहाँ पुन्नू की ऊंटनी के पैरों के निशान दीखते हैं वहीं वह  झुक कर ऊंटनी के पैरों के निशानों को ही चूम लेती है! ( पृ. 144) और उतनी ही शिद्दत भरी तड़प है सोहनी के कच्चे मटके पर सवार हो कर लहरों में कूद कर महींवाल को पाने में. पर ‘सम्मान हत्या’ षड्यंत्र रूप में यहाँ भी आती है क्यों कि सोहनी की ननद को जब सोहनी का राज़ पता चलता है कि वह छुप छुप कर आधी रात को एक मटके पर सवार हो कर नदी की लहरों को पार कर अपने प्रेमी से मिलने जाती है, तब माँ से कहती है – ‘अच्छा हो हम चुप ही रहें और घर के कलंक को दरिया में बहा दें’ (पृ.  113) और वह सोहनी के पक्के घड़े के स्थान पर कच्चा घड़ा षड्यंत्र के तौर पर रख देती है. इन कहानियों में ज़रूरी नहीं कि कोई व्यावहारिक मैसेज मुखर रूप से सामने आए. इन सब की नायिकाएं सुंदरता की सीमाएं पार हैं जैसे महाकाव्यों के नायकों का उदात्त होना अनिवार्य था,  (जैसे: शीरीं को देखने वाले के पाँव धरती पर से उठ जाते, बांहें फडक उठती, मुश्किलों के पहाड फट जाते और नामुमकिन बातें मुमकिन लगतीं- पृ. 111).  इन सब कहानियों में प्रेम एक जन्म का नहीं जन्म जन्मांतर का है सो अगर हीरोइन मरती है तो हीरो का मरना अनिवार्य है और अगर हीरो मरता है तब हीरोइन का भी इसके साथ मरना अनिवार्य है (शीरीं फरहाद, छैला सन्दु). प्रेम की शाश्वतता का ये आत्महत्यायी रूप आज की सोच में सर्वथा गलत भी माना जा सकता है, परन्तु कथाकारों के पास कहानियों के अंतों को बदलने जैसा कोई विकल्प नहीं हो सकता. सुशील सिद्धार्थ की कहानी ‘सदावृक्ष सारंगा’ काफी रोचक, (भले ही थोड़े जटिल मोड़ तोडों के साथ) एक बंदर बंदरिया के जन्म जन्मांतर के प्रेम को सुखांत तरीके से व्यक्त करती है. बंदर बंदरिया अगले जन्मों में इन्सान बन कर सारंगा- सदावृक्ष बनते हैं और कई रुकावटों के बावजूद आखिर मिल कर सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं. इन में से लगभग हर कहानी में प्रेम पहली ही मुलाकात में हो जाता है और आज की तरह इन में प्रेम के आकर्षण से शुरू हो कर पल पल नजदीकियों से विकसित हो कर प्रेम में बदलते जाने का क्रम नहीं मिलता. पर कहानी ‘चम्पा रानी’ (सुशील सिद्धार्थ) की चम्पा रानी आधी रात को मंदिर में पूजा कर के ज्यों ही मुडती है और एक युवक केवल को देखती है तो अनायास जब कह उठती है – ‘मैं तो बनी हूँ केवल तुम्हारे लिये...’ (pपृ. 152) तब यहाँ  सवाल पहली नज़र में प्यार का नहीं, वरन चम्पा रानी के साथ निरंतर हो रहे अन्याय का है जो अगले क्षण ही उसकी ज़बान पर आता है – ‘बिधना ने बाँध दिया बूढ़े राजा के साथ. तीन साल विवाह को हो गए, अभी तक अछूती कुंवारी हूँ. कितनी रातें आईं चमेली की कली नहीं चटकी...’ (pवही पृष्ठ). सुशील सिद्धार्थ की ही कहानी ‘फूलझरी रानी’ में छोटी रानी जब बड़ी रानियों के डाह का शिकार हो कर जंगल में भेज दी जाती है, वहाँ एक उपेक्षित इलाके को ‘अपने परिश्रम से राज्य का सब से सुंदर हिस्सा’ बना देती है (पृ. 148) क्योंकि ‘छोटी रानी की व्यवस्था ही कुछ ऐसी थी कि पूरा इलाका जगमगाने लगा. चिरागों से हर घर रोशन हो गया.’
प्रेम का शाश्वत फॉरमूला टाईप रूप बनाम नारी पुरुष का स्वाभाविक संबंध, इस कसौटी पर सब से खरी उतरती हैं संग्रह की पहली तीन कहानियां. ममता कालिया की दो टूक कहानी ‘निर्मोही’ एक महत्वपूर्ण संदेश देती है कि ‘निर्मोही के साथ उमर काटने से अच्छा था घर छोडना. रानी ने बिल्कुल ठीक किया’ (पृ. 79). राजा सूरसेन की डाबरनैनी रानी फूलमती महल से बाहर निकलती है और उद्यान में एक ‘काँटा झाड़ी से टूट कर उंगरी की पोर में धंस गया’ (pp 76). पर जब बेचारी रानी को एक मालिन के छोरे की मदद से काँटा निकलवाना पड़ता है, तब यकायक महल के दरवाज़े ही उसके लिये बंद कर दिए जाते हैं.  मजबूरन रानी उस मालिन के छोकरे के साथ ही रहती है और अंत तक उसी के साथ रहना पसंद करती है.  ममता ने कहानी को अपनी चिरपरिचित रोचक व पठनीय शैली में लिखा है जिस में भाषा की आंचलिकता का भी अच्छा दर्शन हो जाता है और बूढ़ी दादी और युवा पीढ़ी की प्रतीक उस की पोतियों के बीच सोच का संघर्ष भी पूरी सफलता से उजागर होता है. इस कहानी को अगर उसकी थीम के आधार पर संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. प्रेम कहानियों के पारंपरिक, बंधे बंधाए ढांचे से ही सर्वथा मुक्त है विजयदान देथा की कहानी ‘अनदेखा अंतस’. इस कहानी की नायिका जसमा जो एक मिट्टी से खेलने वाली साधारण मजदूरिन है और मिट्टी सने गधे को हांकना ही उसकी रोज़ी रोटी है, की एक राजा के आगे खुद्दारी बहुत नगण्य कहानियों में मिलती है.  इस कहानी में एक औरत की पति के प्रति वफादारी, अपनी गरीब जिंदगी से इस कदर संतुष्टि कि महलों के सुखों की कल्पना भी उसे नहीं डिगा पाती, ऐसी दृढ़ता के अलावा सच्ची प्रीत के भी दो टूक दर्शन हैं, जैसे ‘दुनिया की किसी औरत को मांगते वाली प्रीत सपने में भी नहीं सुहाती. प्रीत करे तो रिरियाने की दरकार ही कहाँ है...सत्ता, माया, तलवार की शक्ति को तो ये शक्ति ही नहीं मानते... (पृ.  68).  मजदूरिन पर मुग्ध राव खंगार को जसमा का एक एक चुस्त जवाब मानो मिट्टी चबाने को विवश सा कर देता है. राव खंगार भी उठ उठ कर पुनः पुनः कोशिश करता है पर मजदूरिन तो उसकी ओछी प्रीत के बदले मजदूरों के लिये मजदूरी को तिगुनी करवाने तक को तैयार नहीं है.

पंकज सुबीर की कहानी ‘महुआ घटवारिन’ संग्रह की सब से सॉबर कहानी है जिसमें पुरुष की निष्ठुरता और नारी पुरुष के बीच प्रेम के स्वाभाविक तंतु का अनोखा मिश्रण है. प्रोफ़ेसर आनंद कान्त शर्मा की शिष्या कुसुम प्रोफ़ेसर को रेणु की ‘तीसरी कसम’ में गाडीवान हीरामन द्वारा वर्णित ‘महुआ घटवारिन’ की दर्द भरी कहानी के सीकुएल रूप में चुनौती दे कर कहती है कि ‘... छल देना तो पुरुष के स्वाभाव में ही होता है. इस छल को वह सुंदर नाम देता है प्रेम...’ (पृ.82) और प्रोफ़ेसर अंतर्मुखी हो कर 35 वर्ष  पहले छोड़ी हुई अपनी प्रेमिका को याद करता है. पर उस प्रोफ़ेसर और उसकी प्रेमिका शारदा ‘दोनों ने स्वयं ही कभी अपने बीच के रिश्ते को कोई भी नाम देने का प्रयास नहीं किया (और) इसीलिये वो रिश्ता नर्मदा के जल की तरह प्रवाहमान था दोनों के बीच (पृ. 84). पैंतीस वर्ष पहले अपने प्रेमी से बिछुड़ते समय शारदा उस से कहती है कि ‘... इस तरह मत आना मेरे पास. कुछ बन जाओ तब आना. मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूंगी’ (पृ. 85). और कहानी के अंत में इतने लंबे अंतराल के बाद जब आनंद साहित्य में शिखर सम्मान प्राप्त कर चुका होता है तब शारदा उसे आश्वस्त कर के कहती है – ‘अब तुम वह बन गए हो जो मैं चाहती थी!’ (पृ. 90). विवाहित आनंद जब विवाहित शारदा से बिछुड़ता है तब ‘आनंद के कंधे पे धीरे से हाथ रख दिया शारदा ने और आनंद ने... अपने कंधे पर रखे शारदा के हाथ पर अपना हाथ रख दिया...’ इस क्षण में निहित प्रेम को विवाह रूपी किसी भी बंधन की रुकावट महसूस नहीं होती. यह शुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति है, जो कोरा प्रेम भी नहीं जिंदगी में कुछ बन पाने पर यकायक शाश्वत हो चुका प्रेम है! यह प्रेम का सागर 35 वर्षों की व्यावहारिकता और दोनों के हो चुके विवाह के बंधनों के युगों के युग पार कर जाता है, यही इस कहानी की मार्मिकता है और यही इस कहानी को सर्वाधिक सॉबर कहानी बनाता है.

कुल मिला कर प्रश्न यह उठता है कि जिन कहानियों की प्रामाणिकताओं तक पर अनेकों बार प्रश्न उठे हैं, (जैसे कैस के बारे में ही यह कहा जा चुका है कि लैला वैला कोई कभी थी ही नहीं, केवल कोई एक आवारा सा लड़का था कैस और उसकी कल्पना में कोई राजकुमारी थी बस उस से ही गढी गई यह अमर कहानी लैला-मजनू) उन्हें फिर फिर लिखे जाने का मक्सद क्या हो सकता है. मक्सद तो इस संग्रह से ही स्पष्ट होता है और ऐसा लगता है कि ऐसी तमाम कहानियों पर आज के लेखक को फिर फिर कलम उठानी चाहिए और नए साहित्यिक व सामजिक मूल्यों का निर्माण पुनर्निमाण होना चाहिए.

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