Thursday, July 24, 2014

मुसलमान होने का दर्द
प्रेमचंद सहजवाला

(समीक्षित पुस्तक: ‘घर का आख़िरी कमरा’ (उपन्यास), लेखक: प्रियदर्शन मालवीय. प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – 110003. पृष्ठ संख्या 148. मूल्य रु. 150/-).

भारत में हिंदू-मुसलमान रिश्ते ब्रिटिश के समय से ही तनावपूर्ण रहे. मोहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तान बनाने का ख्वाब पूरा करने के लिये हिंदू-मुस्लिम के बीच घृणा पैदा करने की ज़िद में सन् ’46 में कलकत्ता में भीषण दंगे हुए फिर सन् 47 में आज़ादी मिलते ही विभाजन की मर्मान्तक पीड़ा.   पर आज़ादी के बाद हिंदू-मुस्लिम के बीच सन् ‘46 जैसी ही खतरनाक दीवार खड़ी कर देने वाली घटना थी बाबरी मस्जिद विध्वंस या उससे पूर्व की रथ-यात्रा. प्रियदर्शन मालवीय का उपन्यास ‘घर का आखिरी कमरा’ उसी घटनाचक्र से उपजी मुस्लिम पीड़ा की कहानी है. हिंदू-मुस्लिम समाज दोनों भारतीय हैं, फिर भी हिंदू के मन में मुसलमान के प्रति एक अजनबियत भरी दूरी सदा बनी रहती है, उपन्यास के निम्न संवादों से ही यह स्पष्ट पता चलता है:
‘मुसलमान हर काम हिंदुओं से उल्टा क्यों करते हैं?’ ओ.पी ने एकदम से कह दिया...‘जैसे हिंदू पूरब की ओर मुंह कर के पूजा करते हैं तो मुसलमान पश्चिम की ओर मुंह कर के नमाज़ पढ़ते हैं.’... ‘हिंदी बाएं से दाएं लिखी जाती है तो उर्दू दाएं से बाएं.’... ‘हम लोग हाथ धोते समय बांह से पंजे की तरफ जाते हैं जबकि तुम लोग पंजे से बांह की तरफ जाते हो...’(पृ. 29-30).
उपन्यास का बेरोज़गार मुसलमान नायक अमज़द मियां अपने हिंदू मित्र की भ्रांतियों को दूर करने के लिये खासी मशक्कत करता है कि मुसलमान काबे की तरफ रुख कर के इबादत करते हैं, संस्कृत और उर्दू क्रमशः सिंधु नदी के पूरब और पश्चिम क्षेत्रों से जन्मी हैं जहाँ ब्राह्मी (बाएं से दाएं) और खरोष्ठी (दाएं से बाएं) लिपियाँ प्रचलित थीं. और कि  मुसलमान अरब से आए थे जहाँ पानी की कमी थी और पंजे से बांह तक हाथ धोने से पानी कम लगता है, वगैरह वगैरह (वही पृष्ठ). पर हिंदू मन की मुसलमान से दूरी इस कदर है कि अमज़द मियां को उसके हिंदू मित्र यहाँ तक कहते हैं कि जा कर मिडल ईस्ट में नौकरी ढूंढो. पर उतने ही चुनौती-बद्ध अमज़द मियां जब तर्क पर तर्क करते हैं तो उनसे कहा जाता है – ‘बड़े तेवर में बोल रहा है मुसड्डा. इन आतंकवादियों का दिमाग बहुत खराब कर रखा है हमारे सेकूलर नेताओं ने! (पृ. 24). अमज़द मियां का मित्र फुरकान मियां बताता है – ‘मेरे चाचा को एक जगह इंटरव्यू में यह कह कर भगा दिया था कि पाकिस्तान जा कर नौकरी मांगो, जब लड़ कर पाकिस्तान मांग लिया तो यहाँ नौकरी क्यों ढूंढ रहे हो?’ (पृ. 40).   अमज़द मियां की तरह भारत के हर मुसलमान युवा का दर्द शायद यही है कि मुसलमान और आतंकवादी पर्यायवाची क्यों बना दिए गए हैं. जबकि वास्तविकता यही है कि ‘भारत में मुसलमानों के बीच आतंकवाद बाबरी-मस्जिद विध्वंस के बाद पैदा हुआ. भारत में मुस्लिम आतंकवाद की पहली घटना बाबरी-विध्वंस के ठीक एक साल बाद हुई (पृ.  26).   जहाँ एक  तरफ हिंदू सोच के आघात मुसलमान युवा पर लगते हैं वहीँ हिंदू गुरूर के भीतर जीते मुस्लिम युवा को इस्लाम का  गौरव भी  अपने अंतर्मुखीपन में बखूबी झलकता है.  शराब ना पीने का कारण वह गांधी को बताता है परंतु भीतर झाँक कर देखते ही उसे लगता है कि शराब ना पीने का कारण उसके अपने मज़हब के संस्कार हैं. दिल्ली घूमते घूमते ‘अपने पुरखों पर नाज़ होता है.  उन पुरखों ने ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब के  चमन  को संवारा... उन्होंने शासितों को इंसान माना (जो कुछ हद तक अतिशयोक्ति भी कही जा सकती है) (पृ. 64),  हिंदू मन है कि वह एक मुसलमान के हृदय पर सीधे चोट करता उसे एस.एम.एस करता है कि तालिबान की तीन पहचान: 1. जितने दांत होते हैं उस से ज़्यादा उनकी पत्नियाँ होती हैं. 2. उनके पास रॉकेट लांचर होंगे पर उनके पैरों में चप्पलें नहीं होंगी. 3. अफीम का धंधा करते हैं मगर बियर पीने पर उनकी नैतिकता संकट में पड़ जाती है. (p 71). दरअसल प्रियदर्शन मालवीय का उपन्यास हिंदू मन में मुसलमानों के बारे में उपजी जानी-पहचानी किंतु भ्रांतिपूर्ण सोच पर एक अच्छा निबंध है जिसे और अधिक प्रगाढ़ व घटना-युक्त कथावस्तु द्वारा और अधिक  प्रखर बनाया जा सकता था पर लेखक उसे मिस कर गए हैं और उपन्यास का एक चेहरा केवल हिंदू सोच को संवादों द्वारा रेखांकित करता चलता है. यह वही घृणा-युक्त व खौफज़दा सोच है जो एक पार्टी व एक नेता ने अपनी राजनीतिक हवस को पूरा करने के लिये ठीक जिन्ना की तर्ज़ पर भारत के हिंदुओं के बीच पैदा की और पूरी तरह सफल भी रहा. सेकूलर कहे जाने वाले इस देश में हिंदू प्रभुत्व के खौफ से जहाँ एक तरफ अमज़द जैसे युवा हैं जो कमोबेश अंतर्मुखी जीवन जीते हैं वहीं दूसरी तरफ चमन भाई जैसे मुस्लिम हैं जो जीवित रहने के लिये हिंदुओं की खुशामद में ही अपने लिये अभयदान पाते हैं. उपन्यास के प्रारंभ में ही उपन्यास के नायक अमज़द मियां के रोल मॉडल इशरत की एक हिंदू लड़की से प्रेम करने पर बुरी तरह पिटाई हो जाती है. पर वह उच्च चरित्र मुस्लिम युवा इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप दंगे नहीं भडकाना चाहता सो गम भी खाता है और झूठ भी बोलता है. 
समाज में धार्मिक  विषमता से भी बड़ी एक  असली लड़ाई है, वह है आर्थिक विषमता की पर अमज़द मियां के सभी कामरेड दोस्त या तो हिपोक्रिसी करते हैं या समय के साथ रिश्वतें खा कर सुखी-संपन्न जीवन जीते हैं. उनके कम्यूनिस्ट दोस्तों की टुच्ची सोच का चरम वहां आता है जहाँ अमज़द मियां कश्मीर में आए भूकंप के बाद भूकंप पीड़ितों के लिये चंदा इकठ्ठा करना चाहते हैं. पर उन्हें यह सुनना पड़ता है – ‘कश्मीरी सभी आतंकवादी होते हैं. मेरी उन से कोई सहानुभूति नहीं है.’... ‘नहीं. मैं मुसलमानों को देश का नागरिक नहीं मानता, मेरा बस चले तो मैं मुसलमानों को रावलपिंडी तक एकतरफा किराया दे कर यहाँ से भागने को कह दूं.’ (पृ. 129-30)
उपन्यास में हिंदू खौफ से उपजे मुस्लिम अंतर्मुखीपने के भीतर जीते मुस्लिम परिवारों के आर्थिक संघर्ष को बहुत यथार्थ तरीके से वर्णित किया गया है  जिसमें भूमंडलीकरण के एक नायाब शिगूफे यानी ‘लोन’ का शिकार अमज़द मियां का परिवार भी होता है. अमज़द मियां का परिवार जो मोटर गैरेज लोन ले कर बनाता है उसे भी एक दिन नगर निगम द्वारा आ कर ध्वस्त कर देने का दिन देखना पड़ता है. पर इस उपन्यास में कई ऐसे महत्वपूर्ण प्रसंग आते हैं जैसे बटला हाऊस एनकाऊंटर या संसद पर आतंकी हमले के आरोपी एस.ए.आर गीलानी का दर्द, जिन्हें लेखक केवल आसानी आसानी से छू कर एक आसान से रास्ते से आगे बढ़ जाता है. ना तो वह अरुंधती रॉय जैसा साहस दिखा कर बटला हाऊस जैसे एन्काऊंटरों पर प्रश्न चिन्ह लगाता है और ना ही तस्लीमा नसरीन के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘लज्जा’ की तरह कोई सशक्त व उत्तेजनापूर्ण विश्लेष्णात्मक कथ्य गढ़ पाता है. इस सब के बावजूद देश के मुस्लिम समुदाय की स्थिति घर के आखिरी व उपेक्षित से कमरे में जीने जैसी हो जाती है, यह स्थापित करने में लेखक को काफी सफलता मिली है और ‘घर का आखिरी कमरा’ एक पठनीय व महत्वपूर्ण विषयक उपन्यास माना जा सकता है.




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