Thursday, July 24, 2014

समीक्षा: प्रेमचंद सहजवाला
समीक्षित पुस्तक : मुक्ति – (कहानी संग्रह)
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर.
पृष्ठ संख्या : 88, मूल्य : रु. 60/-

बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित रमेश शर्मा के कहानी संग्रह ‘मुक्ति’ की कहानियां अधिकतर आज के युग में बाजारवाद व आधुनिकता के दुष्प्रभावों को रेखांकित करने वाली कहानियां हैं. लेखक की सर्वाधिक सेंसिटिविटी बाजारवाद व आधुनिकता के विरुद्ध है.

शीर्षक कहानी ‘मुक्ति’ प्रैक्टीकल होने, प्रीकॉशन लेने और प्रेम करने का एक अनूठा समीकरण प्रस्तुत करती है. बाजारवाद मानवीय रिश्तों पर प्रायः एक गाज की तरह गिरता है. प्रेम की परंपरागत उत्सर्गवादी ज़मीन को छोड़ इस कहानी की नायिका अपने बीमारशुदा प्रेमी से अंतिम बार मिलने आती है तो सोचती है – ‘आखिर क्या मिलना है इस रिश्ते को आगे बढ़ा कर.... एक ऐसे आदमी के साथ जिसकी नौकरी छूटने को है. जो ब्लड प्रेशर और शुगर का मरीज़ हो चला है. जो यह शहर छोड़ कर एक छोटे शहर में बसने वला है. माना कि वह हुनरमंद है पर उसका शरीर अब साथ नहीं दे रहा. अपने इस रिश्ते को लेकर वह हमेशा इनसिक्योर फील करती रही है...’(पृ. 31). प्रेम के संवेदनात्मक/ मानवीय पक्ष को तिलांजलि देने के बावजूद वह अंतिम मिलन की रात प्रेम को शुद्ध भौतिक आकार दे कर सुबह अपनी और उसकी तस्वीर में से अपना हिस्सा काट कर उसे विदा कर के चली जाती है.

कहानी ‘वह पेड़ जो गिरने को है’ में इसी बाजारवाद जो दरअसल और कुछ नहीं केवल जिस्म्वाद है, का निर्मम चित्रण है. यदि सतही नज़र से देखें तो ‘अंग्रेज़ी हुकूमत के समय नीम अंधेरों में डूबी बस्तियां, पीले हैलोजेन के प्रकाश में दपदपाती लग रही हैं, बदली हुई चीज़ें आपको इस तरह छूती चली जा रही हैं कि आपके चेहरे की चमक में थोड़ी और बढ़ोतरी हुई लग रही है (पृ. 63).’ पर अँधेरा बेच कर खरीदी गयी इस रोशनी की चमक में कहानी का कुछ कुछ आदर्शवाद प्रभावित नायक आहत हो कर सोचता है कि ‘अजीब समानता है पिताजी और हम में, वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़े और आज हमें रोज़ अंग्रेज़ी सभ्यता के खिलाफ लड़ना  पड़ रहा है, पर हमारे बच्चे! (पृ. 64)’.

लेखक बाजारवाद के दुष्परिणामों को अलग अलग कथानक भूमियों पर रेखांकित करते चलते हैं पर कहीं एप्रोच के स्तर पर एकरसता महसूस किये बिना भी नहीं रहा जा सकता. कहानी ‘दौड़’ इसी क्रम में एक और उल्लेखनीय कहानी कही जा सकती है. इंजिनीयरिंग डिग्रीधारी नायक को सड़कों की ख़ाक छानते छानते पता चलता है कि ‘कार्पोरेट सेक्टर में दिखाई जाने वाली सपनों की हकीकतें वह नहीं होती जो अब तक सोचता समझता रहा है.’ (पृ. 43). कहानी मुक्ति की तरह यहाँ भी नायक का नायिका रीमा से संबंध प्रभावित होता है और उसे लगता है कि ‘किसी दौड़ में वह बहुत पीछे छूट चुका है. एक ऐसी दौड़ जिस में हिस्सा लेते हुए वह असहज महसूस करता रहा है और उस दौड़ से बाहर हो चुका है (पृ. 44).

भूमंडलीकरण ने भारत के पिछड़े गाँव और महानगर के बीच की खाई को और गहरा दिया है. एक पिछड़े गाँव के गरीब मास्टर रामदीन गुरु जी ‘यहाँ गाँव की गरीबी देख कर अत्यंत दुखी व उदास हो उठते हैं. अख़बार में जब वे देश-दुनिया की ख़बरें पढ़ते हैं तो उन्हें आश्चर्य होता है, यहाँ जबकि अभी भी एक वक्त की रोजी-मजूरी कमा कर लोग लाते हैं तो घर का चूल्हा जलता है तो दूसरी तरफ कारपोरेट सेक्टर में महीनों में लाखों की तनख्वाह अर्जित करने वालों की दुनिया से भी वे परिचित होते हैं. इन तीस सालों की मास्टरी में असमानता की इतनी गहरी खाई को देखना उन्हें विस्मित भी करता है.’ (पृ. 76 – कहानी ‘खाली जगह’) गाँव की एक बीमार बच्ची का बाप रामेश्वर उसे साईकिल पर मीलों दूर जा कर शहर के हस्पताल में व्याप्त अमानवीयता व वहां धनाड्य लोगों को मिलते सुगम उपचार से आक्रान्त है. उसे  ‘क्या पता कि शहर का इतना मशहूर डॉक्टर इमरजेंसी मरीज़ की जगह इमरजेंसी फीस की एक नई परिभाषा चिकित्सा में जोड़ चुका है. डॉक्टर मिश्रा की तारीफ़ में अख़बारों में आने वाली ख़बरें क्या महज़ प्रचार प्रसार के स्टंट भर नहीं हैं?’ (पृ. 82). शहर की अमानवीयता व उपेक्षा की वेदी पर गाँव की एक बीमार मासूम बच्ची की बलि पर यह एक अच्छी कहानी है.

कहानी ‘डर’ एक अच्छी मनोवैज्ञानिक कहानी है जो मध्य तक एक लंबे व कुछ कुछ झेलने को विवश नैरेशन से गुजरती अंत तक आते आते मार्मिक बन जाती है. एक दूसरे के प्रति बेवफा माता पिता द्वारा त्यक्त संतप्त पुत्र बड़ा हो कर बड़ी पोस्ट तक तो पहुँच जाता है पर उसके भीतर एक डर सा बैठ जाता है और ‘सेल्फ-इंडीपेंडेंट होने की दौड़, जॉब अपोर्चुनीटी और कंपनियों के बाजारू ऑफरों ने रिश्तों की अहमियत को तार तार कर दिया था, यह सब देखते देखते उसने अपने जीवन के पैंतीस साल गुज़ार दिए थे...’ (पृष्ठ: 12). संबंधों की टुटन के प्रति वह प्रतिपल भयभीत रहता है. सो खुद की शादी के प्रति एक  भयाक्रांत उदासीनता ओढ़ लेता है पर अंततः किसी अपरिचित युवती के जीवन में आने और चले जाने ने उसकी चेतना को बदल दिया है...

प्रेम की इस मनोवैज्ञानिक शक्ति से साक्षात्कार कहानी  ‘माफ़ करना  नीलोत्पल’ में भी होता है. स्वयं को महापुरुष समझने वाले, पेशे से रिटायर्ड स्कूल मास्टर और गाँव के लैंडलार्ड देवधर बाबू स्वभाव से तानाशाह हैं जिन्हें गाँव में ‘लोगों को अपने सम्मान में तालियाँ बजाते देख लगता है जैसे वे किसी महापुरुष  की जगह धीरे धीरे लेते जा रहे हैं.’ (पृ. 14). पर उनकी तानाशाही के तहत उनके चारों बेटे गाँव से निकल नहीं सके. अपने पिछड़े हुए तरीकों के तहत वे बेटों को किसी आधुनिक कृषि तकनीक से भी अपनी फिलौसौफी की धौंक में वंचित रखते हैं. नतीजतन उनका एक बेटा जब आत्महत्या करता है तो उसकी विधवा पत्नी का जीवन अनायास नाराकीयता की ओर धकेल दिया जाता है पर गाँव से प्रशंसा  बटोरने व तालियाँ बजवाने का एक अवसर उन्हें और मिलता है जब वे उस विधवा बहू का विवाह अपने ही एक और बेटे से करवा कर बहू के अंधेरों में और इजाफा कर देते हैं. बहू मिट्टी का बुत बनी जीवन को नियति मान जीवन जीती है पर ऐसे में बचपन में बंगलादेशी रिफ्यूजी शिविर में आये नीलोत्पल बाबू का प्यार उन अंधेरों को छांटने में सफल होता है. जीवन के अतीव डिप्रेशन व तन्हाई में प्रेम एक शक्ति बन कर उभरता है. कहानी ‘धूप छाँव’ में यही प्रेम एक अनूठे मनोवैज्ञानिक ट्रीटमेंट के रूप में बहुत सफल तरीके से उभरता है. एक प्रतिभाशाली चित्रकार महिला जिसे चित्रकारी में उसके माँ बाप का पूरा सपोर्ट है तथा जिसके चित्र आर्ट गैलरियों तक में स्थान पाते हैं, विवाह के बाद उस सपोर्ट को नदारद पाती है क्यों कि उसका पति एक पूरी तरह डेज़र्ट मैन है. ऐसे में उस विवाहिता की स्थति उस गौरैया की तरह  हो जाती है जो कमरे के सीलिंग फैन से टकरा कर घायल हो जाती है. कुछ समय एक अन्तराल की तरह एक पर-पुरुष के साथ बिता कर व उसका सपोर्ट पा कर अपने भीतर के परिवर्तन को महसूस कर वह सोचती है कि ‘उसमें यह परिवर्तन इसलिए भी शायद आया हो कि अपने मन की बातें बहुत दिन बाद किसी से खुल कर वह कह सकी थी और उतनी ही तन्मयता से किसी ने उसे सुना था. शायद इसीलिये भी वह ज्यादा खुश थी कि एक समान सोच व रुचि रखने वाले किसी हमउम्र मर्द के नज़दीक आने का अवसर उसे इस समर क्लास ने दे दिया था (पृ. 38)’.
संग्रह में नश्वर जीवन को अच्छे कर्मों द्वारा हमेशा जीवित रखने की प्रेरणा देने वाली एक सशक्त कहानी भी है जो उक्त शब्दों के कारण दार्शनिक न बन कर बेहद व्यवहारिक व प्रभावशाली कहानी बन गयी है. कहानी का नायक अपनी कैंसर पीड़ित माँ के जीवन के अंतिम दिनों को पल पल जी कर पीछे उसके कर्मठ जीवन को चलचित्र की भांति देखता है. मृत माँ के पार्थिव शरीर को घर में लाने पर ‘घर की दहलीज पर पूरा गाँव आ खड़ा हुआ है...कुछ कुछ उपकार है उन पर माँ का, जिस से वे उऋण नहीं हो सकते. विकलांग बच्चे प्रार्थना गीत गा रहे हैं जिनके लिये अपने खून पसीने की कमाई लगा कर माँ ने स्कूल खुलवाया. दूर लडकियों का रुदन जिनके हाथ पीले हो चुके हैं और वे अब इस गाँव की बहुएं हैं. माँ ने ही  उन्हें पैरों पर चलना सिखाया. गाँव में खुल रहे सिलाई बुनाई केंद्र में इनके पीले हो चुके हाथों के जादू से बहुत से घरों की दाल रोटियां चल निकली हैं. एक ऐसा दृश्य है जिस से अलग कर के माँ को कोई देखना नहीं चाहता.... माँ अब तक पूरे गाँव को एकता के सूत्र में बांधती रही है... (पृ. 53).
पारिवारिक रिश्तों पर ‘कटे हुए हिस्से’ कहानी संग्रह की एक और अच्छी कहानी. अपने ही हाथों अपनी पत्नी व बेटी जूलियन को जीवन से विलग कर चुका व्यक्ति यथार्थवादी जीवन की सुखांत कहानियां तलाशता है और जीवन के जिन चित्रों पर उसने काले रंग फेर उन्हें बदरंग कर दिया था, उन्हें पुनः पुनः प्राप्त करने को छटपटाता है. ऐसा व्यक्ति यह कल्पना करने से भी बचता है कि उसकी पत्नी ने कहीं पुनर्विवाह कर लिया है. पर ऐसे क्षण एक आत्मग्लानी भी उसे कचोटती है और एक स्त्री विमर्शकार की मानिंद वह स्वयं को लताड़ता भी है – ‘...तुम्हीं सब कुछ कर सकते हो?...वह कुछ  भी नहीं कर सकती? दुनिया में हर पुरुष तुम्हारी तरह स्वार्थी तो नहीं है जो उसका साथ न दे सके...’


संग्रह की कहानियां पढ़ कर यह आभास भी स्पष्ट होता है कि इन कहानियों के कांसेप्ट अपने आप में सुस्पष्ट हैं पर पूरे संग्रह में यह अवश्य लगता है कि कहानियों के ट्रीटमेंट में जीवन्तता व पठनीयता की कमी इन्हें प्रथम स्तर की कहानियां बनने से रोकती हैं. अधिकांश कहानियां नैरेशन व वर्णन के बल पर ही आगे बढ़ती हैं. प्रभाव की दृष्टि से कहानी ‘सज़ा’ प्रभावित नहीं करती क्योंकि वह मात्र एक लंबा व कुछ कुछ ऊबाऊ सा नैरेशन है और किसी कहानी के काथानक मात्र को किसी के सम्मुख वर्णित करने का सा आभास देती है. इसी प्रकार कहानी ‘पुण्यात्मा’ भी प्रभाव की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती.
कुल मिला कर रमेश शर्मा अपने इस संग्रह द्वारा केवल सही ज़मीन चुन कर एक संभावनाशील कथाकार के आगमन का आभास देते है और स्तर की कसौटी पर अभी उन्हें और सशक्त प्रमाण देने हैं.



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