Sunday, December 14, 2014

चाँद तनहा है आसमाँ तनहा...कहानी – प्रेमचंद सहजवाला



चाँद तनहा है आसमाँ तनहा...कहानी – प्रेमचंद सहजवाला

तीन मूर्ति पुस्तकालय तक पहुंचना यह मात्र तीसरी बार हो रहा था पर इस बार अच्छा फंसा. लोहिया हस्पताल के बाद उधर जाने वाली बस नहीं दिखी तो एक ऑटो में ज़बरदस्ती बैठ गया. पर ऑटो वाला भी मेरा उस्ताद निकला और बोला कि बस यहाँ ग्यारह मूर्तियों से आगे नहीं जाऊंगा और दाईं ओर मुड़ जाऊंगा. अपना सा मुंह ले कर उतरना पड़ा और बीस रुपए दे कर शहादत सी ओढ़ता मैं चल पड़ा पैदल. जब तक तीन मूर्ति भवन के मेन गेट के भीतर प्रवेश करूं और भीतर का लंबा रास्ता पार करता पुस्तकालय वाली इमारत की सीढियां चढूँ तब तक हालत पस्त थी. पसीने से तर-ब-तर था मैं...
गलियारे में कुछ सोफा सी दिखती आरामदायक बेंचें हैं पर सब भरी थीं कि उसी ने, यानी निवेदिता ने पीछे से आवाज़ दी थी – ‘सर, यहाँ बैठिये न!’
निवेदिता यानी बाद में जिसने कहा कि लोग उसे प्यार से निवी कहते हैं, मुझे जानती नहीं थी पर मेरी खस्ता हालत पर शायद उसे तरस आ गया था और मेरी थकी आँखों में उसने देख लिया कि कहीं सांस लेने को बैठना चाहता हूँ. मैं मुड़ा और दस कदम लौट कर उसके सामने खड़ा हो गया. निवेदिता सरक गयी. मुझे बहुत शर्म सी आयी कि ऐसे एक महिला के साथ मैं बैठा लंबी लंबी साँसें लूं और अपना थका हुआ थोबड़ा उसे दिखाऊँ. पर मेरे बैठते ही जब मैंने उसकी ओर देख थैंक यू कहा तब वह इस कदर दीप्त सी एक मुस्कराहट मुस्करा दी कि मेरी थकावट मानो उसने दूर कर दी. बाकी तो रुमाल से बस पसीना ही पोंछना था. कुछ देर ऊपर चल रहे पंखे की हवा ने राहत दी तो वह बहुत सुरीली मुस्कराहट मुस्कराई – ‘निवेदिता.’
एक बात यहीं बता दूं तो बेहतर. निवेदिता दीक्षित.. हाँ, यही उसका पूरा नाम था. कोई बला की खूबसूरत महिला नहीं थी. उसका चेहरा व बाकी जिस्म बल्कि सांवले से कुछ अधिक ही सांवले थे! उसके कपोलों से उसकी उम्र झलक रही थी, पैंतालीस से तो ऊपर होगी ही. मैंने अपना नाम बता दिया – ‘देवेन.’ उम्र मेरे चेहरे पर भी उतनी ही छलक रही थी, जैसे हमारे बीच कोई अदृश्य दर्पण भी हो और एक फीमेल टु मेल कन्वर्टर भी हो ताकि मेरा चेहरा उसी का बिम्ब लगे हालांकि वह औरत थी और मैं मर्द! हम उसी, पहली भेंट में ही दोस्त बन गए थे. थकान दूर हुई तो अंदर पुस्तकालय चले गए दोनों. मुझे तो ऊपर प्रथम तल पर लोकमान्य तिलक और गोखले के ज़माने के अख़बार देखने थे जो कि किसी प्रोजेक्टर स्क्रीन पर कोई रील फिट कर के बायोस्क्प की तरह अन्दर आँखें गड़ा कर देखने और पढने पड़ते थे. निवेदिता ग्राऊंड फ्लोर पर ही मुस्करा कर बाय करती वहां की अल्मारियों की लंबी क़तार में कहीं गुम हो गयी.  मैं तिलक का अख़बार केसरी पढ़ रहा था कि कंधे पर किसी का हल्का सा स्पर्श महसूस हुआ. उसी समय वहां का इंचार्ज भी आ कर बोला – ‘आधे घंटे का इंटरवल है. आप सिर्फ एक इशू और देख सकते हैं. फिर कल.’ निवेदिता मुस्करा रही थी जैसे उसे यह सब अच्छा लगा. बोली – ‘चाय...’
बाहर एक खुले से रेस्तरां में चाय पी दोनों ने, कुछ स्नैक्स वगैरह और दोस्ती...
*  *
बात कभी गाँधी और गोडसे की निकलती और मैं और निवेदिता यानी निवी लड़ पड़ते. निवी कहती – ‘मैं उच्च जाति के गुरूर से भरी ओर्थोडॉक्स ब्राह्मण महिला हूँ, हार्ड कोर ब्राह्मण समझे?...’
-         ‘और मैं दलित न होते हुए भी बाबा साहेब का शिष्य, गाँधी का चेला. कास्ट वास्ट मेरे लिए कुछ नहीं...’
कभी देखो तो गोत्र पर दोनों सड़क पर चलते चलते ही तू तू मैं मैं पर उतर आए हैं. निवेदिता – ‘गोत्र की पहचान ज़रूरी है. समझे?’ लड़ाई शुरू ऐसे हुई कि मैंने कहा था कि खाप पंचायतें एक ही गोत्र वाले युवक युवती को शादी करने पर मार देते हैं.’ निवेदिता जैसे चीख पडी – ‘कर्रेक्ट...’ उसकी चीख सड़क की पूरी चौडाई पर फ़ैल गयी जैसे दूसरी तरफ के फुटपाथ पर चल रहे लोगों ने भी सुन ली. उसी समय बस आ गयी थी और हम बस में थे. सीट पर साथ साथ बैठ नहीं सके और बोलने लगे, ऐसे कि जैसे बोलना तो धीमे धीमे चाहते हैं पर आवाज़ न जाने क्यों बस में फ़ैल रही है.... बहरहाल. हम उस दिन खूब लड़े थे और मैंने उस से कह दिया था कि ठीक है तुम्हें जैसे सोचना है सोचो, अब हम कल से नहीं मिलेंगे... ठीक है, मुझे भी किसी वैद्य बैद्य ने नहीं कहा कि मैं तुमसे मिलूँ समझे?
मैं दरअसल पहले तो कभी कभार ही तीन मूर्ति पुस्तकालय जाता पर अब कई दिन से निवी के कारण आ रहा था. मेरा पुस्तकालय था ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी. एक दिन पुस्तकालय में बैठा ‘द लास्ट डेज़ ऑफ़ द ब्रिटिश राज’ पढ़ रहा था कि मोबाईल की पीप बजी. बस उसके बाद कम से कम बीस एस एम एस अदल बदल हुए जिनका लब्बो लुआब यही कि हमें विचारों पर नहीं लड़ना चाहिए. इस से दोस्ती टूटती है. मैं वहीं आ रही हूँ बस, मना मत करना.
ब्रिटिश काऊंसिल पुस्तकालय की कैंटीन में आमने सामने थे दोनों और निवी जैसे पैच अप करने को अपने होंठों पर लगातार एक मुस्कराहट लटकाए थी. एक और बात कि निवी की नाक के नीचे का ज्यग्रफिया ऐसे जैसे कि बंदरिया वन्दरिया हो. उसके काले से होंठ यूं गोल गोल मुड़े से दीखते जैसे सीटी बजाना चाहती हो. उस गोल गोल होंठों वाले पोर्शन से नीचे एक संक्षिप्त सी ठुड्डी बस. सामान्यतः किसी का भी आकर्षण न हो सके, ऐसा मुखौटा. पर उसका उत्साह और खुद पर एक प्यारा गुरूर सा, यही थी निवेदिता, उर्फ़ निवी. आज जाने क्योंकर एक खुशामदिया सी मुस्कराहट उसके होंठों पर लटकी थी. मैं बहुत अच्छे तरीके से पेश आ रहा था उस से, और दोनों बातें करते करते कैंटीन की बहुत मीठी सी चाय भी सुड़क कर बाहर आए तो निवी बोली - ‘अब कब? कब मिलेंगे हम?’
-         ‘जब आप कहो. मैं तो अक्सर इसी पुस्तकालय आता हूँ और आप जाती हो तीन मूर्ति में, सो जब यहाँ आओ मिल लेंगे.’
और ठीक चौथे दिन हम मैकडोनाल्ड में बैठे थे. जनपथ जहाँ आ कर सी.पी. के सर्किल से मिलता है, उस के बहुत नज़दीक एक ब्लॉक में मैकडोनाल्ड में बर्गर वर्गर का खूब मज़ा लिया हमने. यहाँ एक बात हो गयी, मैंने क्या किया कि अपना स्मार्ट सा फोन ले कर एकदम सामने बैठी निवी की एक फोटो क्लिक कर दी. निवी क्षण भर पोज़ बना कर एकाग्रता से सामने देखने भी लगी, पर फिर अचानक बौखला भी पडी – ‘नो नो, डिलीट कर दो मैं कहती हूँ. आई डोंट लाईक दैट.’ और मैं हतप्रभ था, बोला – ‘ये लो. मैं कोई...’
-         ‘नो नो, मेरा मतलब यह नहीं कि तुम कोई बुरे व्यक्ति हो... पर... डिलीट कर ही दो. पर हाँ, एक मिनट मैं देख तो लूं वो फोटो!...’

अपनी फोटो मेरा स्मार्ट फोन हाथ में ले कर बहुत हसरत से देखती रही वो, जैसे अपने आप को दर्पण में देख रही हो. फिर क्या हुआ कि झटके से फोन मुझे लौटाती बोली – ‘डिलीट!’
मैंने तत्क्षण वही किया जो निवी महारानी ने कहा. बस डिलीट कर दी उसकी तस्वीर. इसके बाद निकले तो सोचा ऑटो करने की क्या ज़रुरत. आज वाकिंग का खूब मज़ा लेते हैं. मौसम अच्छा था सो सी.पी के गलियारों में चलते रहे. चलते चलते बोली – ‘आज तक आपसे तो पूछा नहीं कि आपके घर कौन कौन है. बताइए.’ मैंने कहा – ‘बस, छोटा परिवार सुखी परिवार. एक अदद पत्नी है, और एक बेटा. सरकारी विभाग में हूँ, ड्यूटियां एक दिन सुबह एक दिन दोपहर से. ऑफिस में बुद्धिजीवी माना जाता हूँ, घर में निठल्ला. मित्रों में एक आप ही तो हैं, मेरी बहुत अच्छी दोस्त...’
निवी मुस्करा दी, मेरी शैली पर.
फिर बोली – ‘आज तक आपने मुझसे तो पूछा नहीं, कि मेरे घर कौन कौन है. मैं कहाँ रहती हूँ. पूछो न.’
मैंने कहा – ‘रहने का तो एक दिन आपने कहा था कि नोएडा सेक्टर नाईन्टीन में रहती हैं. पर घर की बात कभी नहीं निकली.’
निवी बोली – ‘घर में सिर्फ माँ थी, वो चल बसी. अब मैं हूँ और मेरी तनहाई...’ अब तक हम रीगल वाला गलियारा पार कर के सेन्ट्रल न्यूज़ एजेंसी वाले गलियारे आ गए थे पर जब उस से भी बाहर थोड़े खुले में आ गए तो लगा जैसे निवी अपनी बात कहते कहते बहुत आहिस्ता सी चलने लगी है. जैसे मुझे अपने विषय में बताते बताते वह कुछ आर्द्र सी हो उठी है, या इसी धीमेपन को ले कर जाने कैसे वह जीवन बिता रही है. बोली – ‘पति थे. पर अब उनसे अलग हूँ, और अलग हुए पता है कितना अरसा हो गया है. बताओ?’
मैंने कहा – ‘लगता है काफी समय से अलग हो. सो तलाक लिया कि नहीं?’
बोली – ‘दस साल से अलग हूँ. कहता है कि तुम में कोई अपील नहीं है. हर बात पर झगड़ता. तलाक? मुझे कौनसी दोबारा शादी करनी है, जो तलाक लूंगी...’ मैंने बीच में ही टोका – ‘आपने ऐसा क्यों सोचा निवी. आपके आगे भी एक लंबी तनहा ज़िंदगी है. और वह? क्या उसे शादी नहीं करनी कि...’
निवी थोड़ी सख्त सी हो गयी – ‘जाने दो उस बास्टर्ड को. वह रोज़ औरत बदलता है. एक के साथ रहता भी है. शादी कर ली होगी उल्लू के पट्ठे ने... डोंट डिस्टर्ब यूअररसेल्फ ऑन दिस प्लीज़...’
एकदम शिवाजी स्टेडियम के बस अड्डे के बाहर खड़े थे. मौसम में एक प्यारा सा गीलापन तो था, पर मैंने कहा – ‘नोएडा जाना है न? वहां तो मेट्रो जाती है....’ निवी ने हाथ दे कर रोका – ‘मैं इतनी जल्दी घर नहीं जाती. अभी भी कहीं जा सकती हूँ. शाम सात से पहले मैं घर को रवाना नहीं होती. बाय...’
काफी कुछ पज़ल सा हो गया मैं. कहाँ जा कर समय बिताती है. पर सोचा जाने दूं, किसी के निजी जीवन में क्या पड़ना ज्यादा. पर उसे जाते जाते देख एक अहसास हुआ कि जिस तनहाई की वह बात कर रही है, वही तनहाई इस समय धीमे धीमे बस की तरफ बढ़ रही है. उसकी बस जहाँ मैं खड़ा था, वहां से काफी दूर थी, सो वह धीमे धीमे पहुंचे और बस में बैठे तो मैं जाऊं. वह मुझे इतनी दूर से बाय भी करेगी कि नहीं, मुझे संदेह था. पर हुआ यह कि जब वह अपनी बस के पास पहुँची तो पीछे मुड़ देखने लगी निवी. मैंने हाथ उठा कर बाय किया, इस विचार से कि वह विदा ले रही है, पर दरअसल वह तो मुस्करा रही थी, जैसे इतनी दूर से भी मुझमें गौर से देखने योग्य आखिर जाने क्या है, मैं तो साधारण सी शख्सियत वाला व्यक्ति हूँ. देखा कि निवी इस क्षण अपने कमज़ोर से लगते हाथ से इशारा कर के मुझे अपने पास बुला रही है. मैं तेज़ी तेज़ी से बसों की इस तरफ वाली लाइन को काटता अगली लाइन को भी काटता आखिर पहुँच गया निवी मेम सा’ब के एकदम सामने, मुस्कराने लगा मैं, निवी मेम सा’ब, जो पति से तलाक नहीं लेना चाहती क्योंकि उसे कौनसा शादी करनी है. निवी बोली – ‘सॉरी. दोबारा इतनी दूर से बुलाया. मैं यह कहना चाहती थी कि अब न मैं आपसे कब्बी भी किसी विचार पर नहीं लडूंगी. न गाँधी पर न गोडसे पर न गोत्र पर न खाप पर. मुझे क्या लेना देना है ह्म्म्म? ओके?’
मैंने कहा – ‘किसी बात को इतनी तूल दें ही क्यों हम? आप को अपने विचार बदलने ही हैं तो कन्विंस हो कर बदलो न. फिर हमारे बीच विचारों को ले कर जो खाई बनी वह तो शुरू शुरू की गर्मी थी न. ‘ निवी मुस्करा दी और मैंने संकेत किया तो चुपचाप बस की तरफ चेहरा कर के उसकी सीढियां चढ़ने लगी.
*   *
अगली बार निवी का इंतजार मैं पटेल नगर बस स्टॉप पर कर रहा था. निवी जब भी एस एम एस करती है तो दोनों कम से कम बीस तीस एस एम एस से पूरी चैट ही कर डालते हैं. कभी कहती है नया लैपटॉप खरीदना है, कभी कहती है जाने दो, बजेट नहीं है. पर आपका कोई पहचान का हो तो... कभी मैं उससे कहता हूँ कि लैपटॉप पसंद कर लो, लैपटॉप वाला ही आपके क्रेडिट कार्ड कंपनी से फोन पर बात कर लेगा और दोनों के बीच अंडरस्टैंडिंग हो जाएगी कि आपको हर महीने तीन चार हज़ार की क़िस्त चुकानी होगी बस. निवी एक दिन अचानक बोली – ‘मुझे एक बढ़िया रूम किराए पर चाहिए. इधर नोएडा बहुत दूर पड़ता है तीन मूर्ति से.’ मैं अक्सर सोचता रहा कि निवी पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें क्यों पढ़ती है. पता चला कि उसे न तो कोई परीक्षा देनी है न ही कोई बुक वुक लिखनी है. वह तो महज़ बी.ए पास है. उसे दिन भर कहीं समय काटने को जगह चाहिए. निवी तो अगर नोएडा समय से पहले पहुँच जाए तो वहीं के मार्केट में ही कहीं भटकती रहती है. घर में जैसे कोई हौआ वौआ रहता हो, जो उसे खा जाएगा. सब कुछ खुद करती है निवी, खाना बनाना, बर्तन धोना, चाय... सिर्फ झाडू पोचे को कोई बाई है उसके. सो उस दिन पटेल नगर के बस स्टॉप पर वह किसी बस से नहीं उतरी तो आगे पैदल चलता पटेल नगर मेट्रो स्टेशन के खम्बों के आसपास टहलने लगा और मेरा मोबाईल बजा. गुस्से में बोली निवी – ‘देबू तुम कहाँ हो? मैं यहीं तो हूँ, तुम्हें देख पा रही हूँ. और हाँ, मैंने बस से आने को कहा था न, आयी मेट्रो से हूँ. सॉरी.’ ‘पर तुम कहाँ हो? मैं तुम्हें नहीं देख पा रहा...’ ‘हा हा हा हा... खा गए न गचका. ऊपर रोड से एकदम नीचे देखो, मैं ठीक तुम्हारे नीचे हूँ, जैसे तुम्हारे क़दमों में... हा हा...’ नीचे देखा तो जैसे मुझे असुविधा सी हुई. कुछ खफा सा भी हुआ मैं. निवी वो रही, नीचे मेन रोड के सामानांतर जा रही पतली सड़क पर एक एक फुटपाथिया पत्थर पर चढ़ कर ऐसे बैठी है निवेदिता दीक्षित द ओर्थोडॉक्स ब्राह्मण महिला जैसे मुझसे शरारत करने को छुप कर बैठी हो. उसके बैठने का अंदाज़ ऐसे जैसे जहाँ भी जाती होगी या बैठती होगी तो ऐसे जैसे सिमट कर खुद को ही खुद से छुपा रही हो. मैं ऊपर से बहुत प्यारी सी आवाज़ बना कर चिल्लाया – ‘निवी.’ उसने ऊपर देखा और मुस्करा दी, जैसे उसने मुझे मज़ा चखा दिया हो. बहरहाल पंद्रह मिनट बाद ही हम साऊथ पटेल नगर की एक कोठी में सेकण्ड फ्लोर पर बैठे थे. ऊपर सेकण्ड फ्लोर की गैलेरी से मिसेज़ प्रूथी मुझे देख वेव करने लगी. मैंने नीचे से ही वेव किया और मुस्करा दिया. सीढ़ियों में मेरे साथ चढ़ती चढ़ती निवी बोली – ‘तुमने तो बहुत सी औरतों से दोस्ती रख रखी है भाई, सब जगह यही करते हो क्या? कोई आदमी भी दोस्त है तुम्हारा?’ मैंने कहा – ‘आदमियों के पास वो सच्चा दिल कहाँ, जो औरतों में है. हा हा... यह जो मिसेज़ प्रूथी है वह मुझे किसी पार्टी में मिली थी. तुम्हें किराए पर रूम चाहिए था सो इसी को फोन किया और इसके साथ तो इसकी दो बहुएं एक पोता एक पोती एक बेटा रहते हैं. दूसरा बेटा लैगोस में है. यहाँ उसके पास टेरेस में एक कमरा है. पूछते हैं कितना किराया लेती है...’
निवी चलते चलते रुक गयी और मेरी तरफ देखने लगी, जैसे पूछ रही हो – ‘दे देगी क्या? हाँ, तुम कहोगे तो...’ और वह शरारत से मुस्करा दी. मुझे भी कहीं जाने क्यों, अवचेतन में महसूस हो रहा था कि यह कमरा वमरा लेगी नहीं. यह यूं ही खुद को छलती रहती है शायद. वहां बहुत ऊब जाती होगी तो बतौर परिवर्तन के कभी लैपटॉप खरीदने की बात करती होगी कभी यूं ही किसी दोस्त के साथ कोई कमरा देख आती होगी. जाती वाती कहीं नहीं होगी यह, निवी, जो पति से तलाक इसलिए नहीं लेना चाहती क्योंकि इसे कोई शादी थोड़ेई करनी है. कहती है – ‘पति उल्लू का पठ्ठा सुबह शाम यही कहता है कि...
-          ‘कि तुम में सेक्स अपील नहीं है...’ मैं ने वाक्य पूरा किया तो एक मुक्का बड़े प्रयास से बना कर मेरे कंधे पर दे मारा – ‘धत्त, मैं बोली क्या सेक्स... मैं सिर्फ अपील बोली...’ मैंने कहा – ‘बाकी तो कॉमन सेन्स है न...’ निवी उस घुमाऊ सीढ़ी पर मुड़ कर आक्रान्त सी हो गयी – ‘चलो मैं वापस जा रही हूँ. तुम बैठो इसी प्रूथी की बूथी देखते रहो बस, और इसी की सेक्स अपील...’ और निवी मूर्ख औरत का ध्यान ही नहीं गया कि प्रूथी तो ऊपर जहाँ सीढियां ख़त्म होती हैं वहां का दरवाज़ा खोल मुस्कराती हमारे इंतजार में ही खडी है. निवी को कोई फर्क नहीं पड़ा शायद.
बस, प्रूथी के यहाँ भी समय ही कटना था. उसकी दोनों बहुएं मेरा मजाकिया स्वाभाव बहुत पसंद करती हैं सो हंसती हुई मेरे सामने आ बैठी. फिर प्रूथी ने अपनी बड़ी बहू से कहा दोनों को ऊपर का टेरेस दिखा लाओ. और बड़ी बहू एक और सीढी चढ़ा कर ऊपर टेरेस के सिंगल रूम में हमें खड़ा कर के कुछ देर नीचे ही चली आयी. मैं और निवी अकेले थे और मैं निवी के कुरते के कंधे को लापरवाही से अपनी जगह से सरका हुआ देख रहा था. और थोडा विचलित हो उठा था. निवी कमरे को ऐसे देखने लगी जैसे मुझे लेना थोड़ेई था, और मैं उसके करीब जा कर उसकी साँसों को आत्मसात सा करने लगा. अचानक मेरे मुंह से जो शब्द निकले तो निवी ने क्या किया कि मेरे गाल पर हाथ टिका कर बड़े हिंसक तरीके से उसे दूसरी ओर मोड़ दिया - ‘नतीजा जानते हो इन चीज़ों का? गेट अवे...’
मैं इस क्षण का नर्वस अब पटेल नगर मेट्रो स्टेशन पर निवी से कह रहा था – ‘आप उस लिफ्ट में जाओ. मुझे आपसे ऑपोजिट ही जाना होता है, सो उस तरफ की लिफ्ट में मैं जाऊंगा..’ निवी अपनी गाडी के प्लेटफॉर्म वाली लिफ्ट में घुस गयी, अन्दर कोई नहीं था सो मैं भी अकारण घुस गया और फिर कुछ अस्फुट सा बोलने लग कि निवी बाहर निकल आयी और मैं भी. मुश्किल से उसके गुस्से का सामना करता मैंने अगली बार उसे अकेले लिफ्ट में घुसने दिया और अपनी राह पकड़ता अपनी मेट्रो में चला आया. अब अगली बार मैं ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी में बैठा हूँ कि फिर शुरू हो गया एस एम एस चैट. निवी ने कहा – ‘आज तीन मूर्ति में बहुत अच्छा हिस्ट्री का प्रोग्राम है. तुम्हारे फेवेरेट ऑथर आ रहे हैं. एक से बढ़ कर एक... जैसे राजमोहन गाँधी, इतिहासकार मृदुला मुख़र्जी...’ मैंने कहा – ‘पता है. जयराम रमेश भी जा रहे हैं. पर मैं तो यहाँ बिजी हूँ न...’ निवी बोली – ‘आ जाओ न, इतने बड़े बड़े लोग आ रहे हैं. हिस्ट्री तो आपका भी पेशन है. कितना कुछ जानते हो...’ आखिर पहुंचना पड़ा. शाम छः बजे पहुंचा तो चाय चल रही थी एक बड़े से शामियाने में. निवी ने कहा – ‘वो देखो, कश्मीर द ट्रेजेडी ऑफ़ एरर्स की ऑथर, तवलीन सिंह, तुम्हारी एक और फेवेरेट...’ मैं जा कर राजमोहन गाँधी के आगे ऐसे झुका कि उसके पाँव छूना चाहता हूँ. पर वह मुस्करा दिया और मैं सीधे खड़े हो कर उस से बात करने लगा. दो घंटे खूब स्पीचिज़ हुई. मैंने अपने स्मार्ट फोन से बहुत क्लिक किया. बौद्धिक संतुष्टि हो तो मैं काफी सक्रिय हो जाता हूँ. फिर एक बार और चाय हुई. तब तक अँधेरा भी हो गया. बड़े बड़े ऑथर लोग चले भी गए. उनका खाना शायद किसी बड़े होटल में हो. हमारे लिये उसी शामियाने में खाना बनना था. जल्दी जल्दी खा कर आए क्योंकि बाहर बहुत हेवी खाना मुझे जंचता नहीं. आ कर बाहर रखी गोल मेजों के गिर्द रखी कुर्सियों पर बैठे निवी और मैं. निवी बोली – ‘बहुत फोटो खींचे? मेरी खींची कोई...’
मैंने गुस्से में कहा – ‘क्यों खींचूँ, फिर डिलीट करा दोगी.’
-    ‘हा हा हा हा...’
अचानक एक और बात याद आयी. उस दिन मैकडोनाल्ड में जब निवी ने गुस्से में कहा था कि मेरी फोटो डिलीट कर दो प्लीज़, तब तो सिर्फ उसी की फोटो डिलीट की थी. पर जब वहां से बाहर आ कर पैदल ही आगे बढ़ने लगे तो उसने एक बार फिर मेरे स्मार्ट फोन की डिमांड की. जैसे उसे अपनी फोटो की हत्या हो जाने का दुःख हो. फिर वह फोन की गैलेरी में कुछ और फोटोज देखने लगी तो अचानक फिर भड़क उठी. दो तीन और फोटो देख बोली थी – ‘ये सब क्या है? ये कैसी मॉडल्स मॉडल्स की तस्वीरें रखते हो मोबाईल में.’ मैंने कहा था – ‘मैं कम्प्यूटर से स्मार्ट फोन में डाउनलोड करता हूँ.  मॉडलिंग कोई बुरी बात थोड़ेई है.’ निवी कड़क आवाज़ में बोली थी – ‘डिलीट करो ये सब, ये क्या बकवास है.’ और मैं हतप्रभ. आज उसने अचानक मोबाईल मांगा तो उसकी ओर बढाते बढ़ाते हाथ रुक गया. खूब घबराया मैं. बिकिनी में ही दो मॉडल्स की तस्वीरें आज भी थीं उसी फोन में. कम्प्यूटर से डाउनलोड की हुई. एक तो ज्यादा ही कामोत्तेजक लग रही थी. मैं सोचता हूँ, मेरा मोबाईल मेरी पर्सनल आईटम है. मैं किसी को दिखाने के लिए थोड़ेई लेता हूँ कि कोई पोर्नोग्राफी दिखाने का इलज़ाम लगा दे मुझ पर. अब खयाल आया कि निवी तो बात बात पर नतीजों की बात करती है सो ये फोटो देख कहेगी कि महिलाओं को शरारतन ऐसी फोटुएं दिखाने की पता है कितनी जेल होती है. हाथ रुक गया तो निवी आक्रामक सी बोली – ‘दिखाओ मैं कहती हूँ. राजमोहन गांधी की ली कि नहीं? और अपनी दूसरी फेवेरेट तवलीन की?’ मैं अब घबराया सा बोला – ‘बहुत ली हैं. ऑडियेंस में आपकी भी है. पर एक दो और वैसी मॉडल्स की भी हैं. फिर तुम चिल्लाओगी, बोलोगी...’ और निवी खिलखिला पडी – ‘न न दिखाओ. मैं अब तुम्हें पहचान गयी हूँ. कुछ नहीं कहूंगी...’ और स्मार्ट फोन निवी के हाथ में था. उसने सब फोटो देखी, और फिर उन्हीं मॉडल्स को दूसरी तीसरी बार देख मोबाईल का स्क्रीन मेरी तरफ कर के टेढ़े होंठों से हंस पडी, पता न चला कि मुझ पे हंस रही है या खुद अपनी ही स्थिति पर. उसके बदन को आपादमस्तक जाने क्यों देख गया मैं, जैसे पूरा बदन कहीं जल कर खुद ही किसी शीतलता से शीतल होने के प्रयास में हो. हो सकता है, यह भी मेरी खामखयाली हो, सो मैंने एक प्रकार से अपनी सोच से समझौता सा किया और आगे सोचना बंद कर के कुछ क्षण बेवकूफों सा देखता रहा निवी महारानी को...फिर न सोचने का निर्णय ले कर भी यह सोचा कि उसे तो इन्हीं तस्वीरों में लुत्फ़ सा मिल रहा है, जैसे कि उसके बिना अपील वाले बदन में भी नीचे से ऊपर या उलट दिशा में कुछ रेंग सा रहा हो...जाने क्या हो, मैं इतने सायास तरीके से भला क्यों सोच रहा हूँ. और उस रात भी निवी की खरी खोटी सुननी पडी. बाहर निकल कर पुस्तकालय के बाहर के उस अँधेरे भरे रास्ते से निवी जैसे तेज़ तेज़ भागी जा रही थी, बोलती भी जा रही थी – ‘मैंने बहुत मिस्टेक की बताती हूँ. तुम्हें यहाँ बुलाया, तुम बहुत ख़राब आदमी हो...’ जिस गलियारे में हम बैठे थे वहां से थोड़ी दूर जो लोग बैठे थे चले गए तो मैंने निवी को नज़दीक के एक बेंच पर बुलाया कि यहाँ बैठते हैं, यहाँ हवा अच्छी आ रही है. निवी आ गयी. घुलमिल कर बातें कर रही थी. उसे मैंने बताया कि अभी कुछेक साल ही पहले न तीस हजारी कोर्ट की एक महिला वकील ने किसी बड़ी अंग्रेज़ी पत्रिका में पलथी मार कर मेडीटेशन में एक पूरे पृष्ठ पर छा जाने वाली तस्वीर अपनी दी थी. निवी बोली – ‘तो क्या? वो तो अच्छी हुई न?’ पर मैंने कहा – ‘तीस हजारी के सैकड़ों वकील एक दिन ‘बार’ में इकठ्ठा हो गए थे कि इस प्रकार हमारी एक वकील ने टॉपलेस मॉडलिंग कर के केवल एक अंडरगारमेंट में फोटो दी है. वकीलों ने मुकदमा कर दिया कि इस महिला ने वकील बिरादरी की नाक नीची कर दी है.’ निवी पर जाने क्यों, प्रतिक्रिया नज़र ही नहीं आ रही थी. मैंने कहा – ‘उस जज ने पता है क्या जजमेंट दी? कि ये सभी मॉडल्स हमारे देश की सांस्कृतिक राजदूत हैं, सो इन्हें पूरा सम्मान मिलना चाहिए. यानी दे आर अवर कल्चरल एम्बेसेडरस!’ 
दोनों एक ही बेंच पर बैठे थे कि लगा निवी को जैसे झपकी आ रही है, या फिर मेरी बात को नकारने की कोशिश में उसने झपकी को सायास ही बुला लिया हो.  मैंने क्या किया कि अपनी दाहिनी बांह से उसके कन्धों को घेर लिया कि निवी बिगड़ी – ‘हटाओ ये... हटाओ मैं कहती हूँ...’ मैं जिद पर. बोली, फिर वही डायलौग – ‘आजकल खतरनाक नतीजे हैं इस सबके. एक फोन कर दूंगी न, सीधे हो जाओगे पल भर में. ज़िंदगी बदल जाएगी आपकी...’ मैं बहुत ढीठ तरीके से मुस्कराया पर फिर खुद ही नर्वस सा हो कर हाथ हटा दिया मैंने. और अँधेरे में निवी वो रही, भागी जा रही है, मुझे कोसती. पर गेट पर बड़ा सा गोलचक्कर है, बहुत तीखी रोशनी वाली ट्यूबलाईटें. वहां रोशनी में निवी मेरे इंतजार में खड़ी मुझे हिकारत से देखने लगी और पास पहुँचने पर बोली – ‘वो रही आपकी बस... वहां उस स्टॉप पर. पहुंचोगे तो दूसरी आ जाएगी..’ मैंने मायूस सा कहा - ‘मैं ऑटो में जाऊंगा. पटेल नगर तक मिल जाएगा और वहां से मेट्रो...’ निवी बोली – ‘यहाँ ऑटो मुश्किल से मिलता है. कोई एक मिला तो मैं जाऊंगी उसमें.’ और एक ऑटो आया तो लपक कर बैठ गयी वह. ऑटो वाले से कहा – ‘चलो, राजीव चौक मेट्रो स्टेशन.’ ऑटो वाले ने किक लगाई कि उसे रोक कर मेरी तरफ देख तरस खाती सी बोली – ‘बैठो. राजीव चौक से भी आपको मेट्रो मिल जाएगी. जनकपुरी उतर कर विकासपुरी जाना होता है न...’ दोनों ऑटो में थे और दोनों घोर चुप. उतर कर सिर्फ अपने प्लैटफॉर्म की तरफ जाते हुए उसने मेरी तरफ बाय के अंदाज़ में देखा और घूरने सा लगी. फिर उसने अकारण आँखें बंद कर ली, जैसे फिर सायास एक झपकी को खड़े खड़े ही बुलाना चाहती हो. फिर हाथ मिलाने का एक अभिनय सा करती अपनी दिशा वाली मेट्रो के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी.
आज फिर वह ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी में एक लंबा सा एस एम एस चैट कर के आयी. मैंने उस से मजाक किया था कि एक साथ इतने एस एम एस कर के मुझे लगता है मेरी अंगुली स्मार्ट फोन को ही समर्पित है, जैसे एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य को मिला था. एक स्माईली मिली एस एम एस में और निवी मेरी लायब्रेरी में. वह कोई मुझे बता कर नहीं घुसी वरन मैं एक पुस्तक का पन्ना पलट ज़रा नज़र उठाऊँ कि निवी मेरे एकदम साथ वाली कुर्सी पर बैठी किसी पुस्तक के पन्ने में नज़र गडाए है. जैसी बुरी तरह दबी मुस्करहट उस दिन उसके होंठों पर थी, वैसी ही. मुझे पता ही न चला वह कब आयी और दबे पाँव इस पढने वाले हॉल में घुस कर मेरे ठीक दाईं तरफ वाली कुर्सी पर  बैठ एक पुस्तक पढने लगी थी. कुछ ही क्षण  बाद एक एस एम एस – ‘चलो, फीलिंग बोर.’ दोनों लायब्रेरी से बाहर. एक ऑटो में. ‘कहाँ चल रही हो?’ ‘मैकडोनाल्ड’.

कहते कहते निवी जाने क्यों, मेरे करीब आ कर मुझसे सट सी गई, मैं हैरान. ऑटो अभी एल आय सी की विशाल  इमारत के बाहर से आगे बढ़ रहा था कि निवी को जाने कैसे एक अटैक सा हुआ कि मुझसे चिपके चिपके ही उसने मुझ पर ही अटैक कर दिया. मेरी पीठ को घेर उसने चलते ऑटो में मुझे बुरी तरह कस लिया. मैं हैरान था. नतीजों की याद आने लगी, पर यह... जैसे उसकी नैसर्गिकता स्वाभाविक होती हो और मेरी मुजरिम सी. निवी ने उस शाम मुझे बुरी तरह अपने कब्ज़े में कर लिया. मैकडोनाल्ड तो अभी आगे शिवाजी स्टेडियम के साथ वाले ब्लॉक में था पर रीगल के सामने पड़ते ही निवी ने ऑटो रुकवा दिया. छलांग लगाई और बीस रुपए ऑटो वाले को दे कर मुझे हाथ पकड़ बाहर घसीटने लगी. उसके जिस्म पर मानो आक्रमण सा हो गया था. और मैं हतप्रभ उसकी गिरफ्त में था. रीगल के बाद वाली रेड लाईट पर जैसे उसी ने सारा ट्रैफिक रोका था. मेरा हाथ पकड़ खींचती हुई वह एक हीरोइन की तरह सड़क की चौडाई पर लगभग दौड़ने सा लगी. दोनों अब पालिका बाज़ार के ऊपर वाले पार्क में थे. ऊपर घोर बादल छाए हुए थे जैसे निवी की आदिमता ही ऊपर उड़ कर आसमान में छा गयी और उसे एक शिकार के रूप में मैं मिल गया था. उस सुखद या जाने एक अजीब उदासी सा पैदा करते गीले माहौल में चारों तरफ अपने आप में गुम जोड़े थे जिन्हें दुनिया जहान की कोई फ़िक्र न थी. वे एक दूसरे से मिल एकाकार से हो गए थे. हमें कोई जगह ही नहीं मिल रही थी. आखिर एक ढलान से फिसल कर एक छोटे से वृक्ष के तले जब हमें जगह मिली तो हम भी सुध बुध खो बैठे. निवी मुझ पर आक्रांत थी. कहा भी मैंने – ‘आज क्या हुआ है? नतीजे सोचे हैं इस सब के?’ ‘हा हा हाहा... निवी का आदिम सा लगता बंदरिया सा चेहरा बड़ा सा हो गया. अँधेरे की कई परतें नीचे उतर निवी के ही कहने पर जैसे हमें ढक रही थीं. निवी बहुत धीमी आवाज़ में मेरी आँखों में अपनी हवस भरी आँखें गड़ा कर बोली – ‘चुपचाप लेटे रहो. आज मैं होश में नहीं. आज मैं नीचे नहीं, ऊपर हूँ. आसमान मेरे नीचे है... हा हा हा हा...’ निवी ने मेरे कपोलों पर अपने  आक्रामक होंठों से एक जाला सा बिछा दिया. उसका और अब मेरा भी पूरा बदन जल रहा था और हम एकाकार थे. हमें तो होश भी न रहा कि अचानक हल्की हल्की सही, बरसात की फुहारें पड़ने लगी हैं और जोड़े उठ उठ कर जाने भी लगे हैं. हम दोनों के जिस्म उस अँधेरे में जल से रहे थे और निवी थी कि जैसे उस आदिमता में भी वही आध्यात्मिकता लिए थी जो उस जज को उस टोपलेस मॉडेल में नज़र आयी होगी जो आँखें मूँद अपने चित्र को देखने वालों के भीतर भी वही आध्यात्मिकता संप्रेषित कर रही थी... अब निवी भी जैसे एक कल्चरल एम्बेसेडर लग रही थी,  नतीजे वतीजे कुछ नहीं उसके लिए... हा हा... हा हा हा हा ... निवी की तन्हाई जैसे बेबस थी, उसका जिस्म जैसे गा रहा था – ‘चाँद तनहा है, आसमां तनहा...दर्द मिलता कहाँ कहाँ तनहा.....’ बहुत फुहारें पडी हम पर और कोई आसपास चलता हुआ बेवजह चिल्लाने भी लगा, तब जा कर निवी ने मुझे छोड़ा. मैकडोनाल्ड में बैठे थे दोनों, पर निवी चुप चुप थी, जैसे जाने क्या सोच रही हो, जैसे अभी अभी उस के साथ कोई ट्रेजेडी घट गयी हो. और मैकडोनाल्ड से जल्दी निकल कर बुत सी बाहर गलियारे में चलने लगी निवी. जैसे जिंदा ही न हो. एक खामोश सी काया हो जैसे. जैसे अब इसके साथ जो भी करूँ, यह हिलेगी डुलेगी तक नहीं. शिवाजी स्टेडियम पर भी अँधेरा ही अँधेरा था. गीलापन हम दोनों के जिस्मों से चिपक रहा था. पर वह बुत ही थी, जाने जिंदा थी कि... उसे यहीं इसी कॉर्नर से बस पकडनी थी अब. सो मैंने क्या किया कि उसके पूरे जिस्म को झकझोर कर अँधेरे का फायदा उठा कर उसके कपोल को चूम लिया और बोला – ‘बाय.’ तेज़ी से मुड़ गया मैं और सिर्फ एक बुत से निकली आवाज़ आयी, बाय. फिर कभी न मिलना मुझसे.... और मैं चला आया था. निवी उसके बाद मेरी कोशिशों के बावजूद मिली नहीं थी. अब मैं तीन मूर्ति पुस्तकालय कभी नहीं गया, और वह ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी कभी नहीं आयी. 

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