Monday, December 29, 2014

रिफ्यूजी कहानी – प्रेमचंद सहजवाला

                                                                 रिफ्यूजी
कहानी – प्रेमचंद सहजवाला
(हंस 2015 में प्रकाशित)
लीलां बुक्का फाड़ कर रो पडी. भागी को सब...
वो दिन भी बहुत पुराना नहीं, जब साथ के रिफ्यूजी घर में से भागी की ही क्लास में पढने वाला मुरली अभी इस घर में आया ही कि खौफ के मारे बुरी तरह चिल्ला पड़ा था – ‘मौसी....’ और मौसी अपने जबरदस्ती किचन कहे जाने वाले किचन में बेहोश पडी थी. कोयलों वाली अंगीठी उलट चुकी थी, जाने लीलां ने क्या तरीका अख्तियार किया था, इस प्रकार इस दोज़ख सी ज़िंदगी से रुखसत कर जाने का...
घर में लीलां की बहन रुकमा का व बच्चों का रोदन सा मच गया था. लीलां मौसी की पीठ जल कर लाल हो चुकी थी. चेहरे पर भी आंच थी, सब कह रहे थे साधू बाबा ने बचा लिया, वर्ना तो...
आज कमरे में चारों तरफ सुनसान पा कर लीलां मौसी बुक्का फाड़ रो पडी. भागी को सब ताड़का ताड़का कह कर क्यों चिढाते हैं. क्या बिगाड़ा है, मेरी मोटी तगड़ी बेटी ने. ह ह.. सब लोग हँसते हैं. सामने ही गुरुद्वारे में गयी थी. परसाद बंटने की भीड़ थी. पट्टेदार पतलूनें और जम्फर सा कुछ पहने, नाक से लम्बी लटकती नथों वाली औरतों की लाइन भागी के बाईं तरफ थी. उसने जो एक कोहनी से एक बुढ़िया को धक्का दिया तो एक एक कर के पूरी दस औरतें धड़ाम धड़ाम नीचे गिर गईं. हा हा हा हा... पूरे कसबे में बात आग की तरफ फ़ैल गयी थी. भागी... वो न... लीलां की ताड़का सी बेटी. चीखती है तो सिंध तक आवाज़ जाती है और सिंध जहाँ से लद-फंद कर यहाँ आए, वो भी दहल जाता होगा ताड़का की आवाज़ से...
लीलां अब कसबे के सिविल हस्पताल में दाखिल है. सबसे बड़ी भागी, फिर दो बेटे चेतन और सैजू. अब एक और संतान ने द्वार खटखटाया है. सिविल हस्पताल में मैटर्निटी वार्ड है कि मच्छी मार्केट. जहाँ तहां पलंग तो बिछे हैं और कुछ और औरतें ओनों कोनों में ज़मीन पर डिलीवरी के इंतजार में. दाइयां आती हैं और दो चार को झाड़ देती हैं, किसी किसी क्षण चीखाचाखी मचाती हैं. आने वाली संतानों को क्या पता, वे ऐसे रिफ्यूजी कसबे में जन्म ले रही हैं जहाँ के लोगों को खुद खाने के लिए कुछ नहीं. यहाँ देखते देखते नगर निगमिया  नलके पर अकेली कपडे धोती औरतों से बीड़ी सुलगाने को माचिस मांगते ठगों की कमी नहीं. औरतें सामने ही रिफ्यूजी घर में किसी को आवाज़ दे कर माचिस मंगा लेती हैं. अगर कोई ताड़का वाड़का सरीखी हुई तो ठग की हिम्मत नहीं कि कुछ कर जाए, ताड़का चिल्ला कर पूछेगी – ‘कौनसे मोहल्ले से आए हो?’ ठग झुक कर कहेगा – ‘पच्चीस सेक्शन से.’ ‘इधर कहाँ चले? माचिस जेब में नहीं रखते क्या?’ शर्मीली सी मुस्कराहट. और ताड़का माचिस की तीली ऐसे जला कर खीं खीं सी मचाएगी जैसे ठग को ही जलाने जा रही हो. माँ झाड़ेगी – ‘माचिस उसी को दे डायन तू क्यों जला रही है?’ पर ताड़का न हो कर कोई और हुई तो माँ को ही माचिस दे कर चली जाएगी. माँ ज्यों ही  माचिस ऊपर करेगी ठग नीचे झुकने के बहाने औरत के गले में पड़ी चेन ले कर चम्पत. हाय तौबा मचेगी. औरतें इकठ्ठा हो जाएँगी, कहेंगी – ‘इन मुए बदमाशों से तो भगवान् भी डरता होगा. तभी तो...’ औरत कितने दिन रोएगी. घर में पति की मार खाएगी... अजनबी मरद से ज़बान लड़ाई क्यों, इस से तो आँखें लड़ा कर उसी के साथ जहन्नुम वहन्नुम दफा हो जाती हरामज़ादी...
यहाँ बच्चों का अपहरण भी हो जाता है. ताड़का यानी भागी ने तो एक बार पूरा बाज़ार ही सर पर उठा लिया फिर बाद में खूब खिल्ली उड़ी. कोई शरारती सा लड़का माँ से रूठ कर उसे गालियाँ देता तीन घंटे से गायब था. आखिर उसके मामा लोगों ने उसे ढूंढ लिया पर वह तगड़ा सा दिखता कहे कि मैं घर नहीं जाऊंगा. और उसके मामों ने पीट कर सीधा कर दिया उसे. फिर उसे टांगों और बांहों से झुलाते हुए बीच बाज़ार से चले घर कि ताड़का वहीं से गुज़री. – ‘अरे ए ए... देखो सब, इस लड़के को बदमाश उठा कर जा रहे हैं.’ उन मामों के सामने दो पैर दूर दूर तक सड़क में खुपा कर कमर पर दोनों तरफ मुट्ठियाँ खुपाए खड़ी चिल्लाने लगी ताड़का. वो लड़का मामों के चंगुल से निकल भागने को छटपटाने लगा. उसे पता है कि घर जा कर और मार पड़नी है. लेकिन भागी के चिल्लाने पर सामने ही फलूदे मलाई वाला हंसता खिलखिलाता भागा हुआ बाहर आया – ‘अरे जाने दे ताड़का... वो  बदमाश नहीं हैं. लड़का बदमाश है. माँ को तंग करता है... हा हा हा...’ कई और दुकानदार आ गए  हैं, तभी मामे मानो ज़मानत पर छूटे और सफलतापूर्वक अपने भांजे को किडनैप कर के घर ले गए.
इधर सिविल हस्पताल में लीलां दाखिल तो है, पर लीलां की बहन, बहन का परिवार, व खुद लीलां के ही दस दस बारह बारह साल के बेटे सब एक गहरे तनाव में हैं. लीलां का पति घर छोड़ कर जाने कहाँ गुम हो गया है. अब लीलां को बताएंगे तो वह मय बच्चे मर मरा ही न जाए. जब तो पीठ जली थी तब कई दिन तक तो कराहती रही थी लीलां. संध्या होते ही घर की बत्ती भी उसके साथ के घर वाली रुकमा या उसका पति आ कर जलाता था. लीलां को इतनी असह्य पीड़ा अपनी जली चमड़ी पर कि उस घुप्प अँधेरे में एक छाया सी रोती रहती  और भगवन के आगे नाक रगड़ती रहती कि जो तेरा अपराध मैंने किया हो वो अब तो माफ़ कर. मुझसे सहा नहीं जाता.
बाहर इसी बाज़ार से एक दर्ज़ी आया था और रुकमा से बोला था – ‘लीलां बहनजी को पीछे से रोज़ बिजली का करेंट दिया करो. धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा.’
फिर यह क्रम शुरू हो गया. रात नौ बजते ही रुकमा के रेलवे में काम करने वाले पति लीलां को बाज़ार ले जाते. यहाँ घर में बिजली थी पर पीछे जली हुई पीठ पर करेंट कैसे लगाएं धीरे धीरे, यह उस दर्ज़ी को ही पता था. यहाँ वैसे ही पच्चीस वाट का बल्ब जलता जो बैरक की  छत पर ऐसी जगह लगा रहता कि रुकमा और लीलां दोनों के घरों तक चलते फिरते रहने जितनी भर रोशनी दे, स्विच लीलां के घर होता. उधर बाज़ार में दर्ज़ी उन्हें इज्ज़त से बताता.  उसे एक ही लोभ होता कि ताड़का की माँ की पीठ पर से जब उसके ब्लाऊज़ के हुक खोल  कर लाल जली पीठ को नंगा किया जाएगा तो नीचे उसकी कमर व थोडा नीचे खिसकाए जाते पेटीकोट के भीतर इंच भर सही, झाँकने का मौका मिलेगा. कमर नहीं जली थी सो वह ज्यों की त्यों नंगी चमड़ी रूप में मय अपने ग्रूव के नज़र आती. दर्ज़ी मानो कुछ देर सामने  अपने एक स्टूल पर बैठा आँखें सेंक लेता. एक प्लग जैसा टर्मिनल लीलां की पीठ पर घुमाया जाता धीरे धीरे. रुकमा को अहसास होता कि उसका पति बहुत अच्छे चरित्र वाला है तो न तो नंगी कमर या हिप्स की झलक से वह ज़रा भी विचलित होगा. सो कभी आती कभी न आती. पर जिस समय आधे घंटे के लगभग लीलां करेंट पास करवा रही होती उस समय यहाँ एक और ही तमाशा खड़ा हो जाता. ताड़का कहती – ‘मौसा मौसा... एक फलूदा मलाई खिलाओ न...’
सिर्फ ताड़का नहीं, रुकमा का मुरली और छोटी सरू व ताड़का से भी बड़ी रुकमा की समझदार बेटी इंजना भी वहीं आसपास होते. पर मुरली व सरू और लीलां के बेटे सैजू चेतन सब इसी ताक में होते कि मुरली के फराखदिल पिता कभी कभी ताड़का को फलूदे मलाई का एक प्याला ले कर देते हैं और उसे ताकीद करते हैं कि यहाँ अब रेल छेल घूमना नहीं, चुपचाप यहीं दर्ज़ी की दुकान पर बैठ फलूदा मलाई खानी है. पर ताड़का बाहर दौड़ जाती क्योंकि इंजना को छोड़ बाकी चारों बच्चों की टपकती लार का अहसास उसे करना पड़ता और इन मरभुक्खों को भी कुछ खिलाना पड़ेगा. सो वह रेल छेल सी करती बाहर फलूदे मलाई की दुकान पर रखी रंगीन बोतलों कुल्फियों को देखती देखती सब कुछ चट कर जाती. इंजना घर से ही मुरली सरू को समझा डांट कर चलती और वे समझदार से बैठे रहते.  रुकमा कई बार पति से बाज़ार बीच चलते चलते झगड़ भी चुकी है कि अपने बच्चों के लिए छोटे मोटे खिलौने ले आते हो बाकी सालियों पर दिल आए तो दस दस बीस बीस उड़ा कर टूर पर जाते हो. इधर कभी कभी इंजना-मुरली के पिता क्या करते कि फलूदे मलाई के दो प्याले और ले लेते, और एक एक मुरली-सरू व चेतन-सैजू को देते. कभी इंजना से कहते एक एक चम्मच कर दोनों को बारी बारी खिलाओ कभी खुद चेतन-सैजू को ऐसे ही खिलाते. वो दिन बाकी बचे इन चारों बच्चों का त्यौहार सा हो जाता. घर पहुँचते तो सब के मुंह मीठे होते...
... सिविल हस्पताल एक बड़ी सी बैरक में है. प्रवेश कर के कई पलंगों व ज़मीन पर लगे बिस्तरों को पार कर के बढ़ते चले जाओ और लीलां का बिस्तर खोजो तो दूर बेढंगी सी खड़ी ताड़का दिखती. कभी चौड़े से घेरे वाली फ्रॉक के किनारे को नीचे करती करती घुटनों को ढकती बैठती जैसे बैठने की तमीज सीख गयी ही, और छोटी सी गेंद को उछाल उछाल कर ज़मीन पर फ़ैली पत्थर की छोटी छोटी गिटकियों से अकेली ही खेल खेलती.. कभी माँ के पलंग के सिराहने बेढंगी सी ही टिक जाती. माँ से बातें करने के बहाने खोजती. कभी दाई आती तो दाई से ही अपनी जाहिलाना दबंग सी आवाज़ में पूछती – ‘तू मेरी माँ का ख्याल रखती है कि नहीं...’ और लीलां को उस हालत में भी अपनी बेटी के जाहिलपने पर हंसी आ जाती. दाई को पता है, यह ताड़का है, सो ज़बान कैसे लड़ाती भला. इधर रुकमा आती या इंजना, सबके सर पर यही चिंता सवार रहती किसी ने लीलां को बता तो नहीं दिया, उसका पति गुम हो गया है. सबको ताड़का पर आश्चर्य है, यह ऐसी जाहिल सी लडकी कैसे इतना  बड़ा राज़ सीने में छुपाए है, माँ को गलती से भी नहीं बताती बापू आजकल फिर भाग गए हैं. वे दो नंबर के राशन ऑफिस के बाहर फुटपाथ पर बनियान जुराबें बेचते हैं. बेवकूफ किस्म के हैं, सो पटरी के दूसरे दुकानदार उनसे पैसे टीप लेते हैं. उस उल्हासनगर नाम के कसबे को सिंध में फैले दंगों के बाद आए सिंधी शरणार्थियों को बसाया जैरामदास दौलतराम  नाम के नेता ने.  भगवान उसका भला करे. बेचारे ने दिन रात एक कर दिए. उधर वीसापुर, लेकबील भावनगर न जाने कहाँ कहाँ रिफ्यूजी बसाए. पर वो बेचारा इन सबको केवल माचिस की डिब्बियों जैसे छोटे छोटे घर दिलवा सका, क्लेम ऑफिस से. सिंध में छूट गयी आलू प्याज़ की बोरियां, बड़ी बड़ी हवेलियाँ, काजू बादामों से भरी जेबें, वो खुद मुख्तियारकार वो नौकर चाकर. अब यहाँ खाने के लाले पड़ गए हैं. सब खाली हाथ भाग आए जानें बचा कर, अब भी खाली हाथ हैं. एक एक रोटी पर घर के चार चार बच्चे झपटते हैं. भागी के पिता अक्सर लुटे पिटे से रहते हैं, घर आ कर लीलां एक रुपए का भी तकाजा करे तो अपने दाहिने हाथ से खुद अपने चेहरे को ही बुरी तरह पीटते चले जाते हैं, कभी लीलां को ही दो चार जमा देते हैं और कभी गायब.
आखिर वो दिन आता है कि ताड़का पूरे सिविल हस्पताल के फ्लोर पर एक भूकम्प सा मचाती दौड़ भी रही है,  खुशी से खिलखिला भी रही है – ‘मेरी बहन हुई... मेरी बहन हुई... हा हा हा हा...’ पलंगों पर लेटी या उठ बैठी औरतों की हंसी ही न रुके, इस जाहिल लड़की के अंदाज़ पर.
लीलां घर आ गयी है, और आखिर उसे बता ही दिया जाता है, भागी के बापू कई दिन से गायब हैं. इधर इसी कारण रुकमा का घर एक अजीब सी मुसीबत में फंस गया है. अब जब तक भागी का बापू मिले तब तक उधर भी राशन पानी का खर्च करो. रुकमा को लगा जैसे बर्बाद हुई जाती है वह. यहाँ तीन सगी बहनें हैं, दो तो लीलां और रुकमा. तीसरी उल्हासनगर एक में रहती हैं. कहने को बहनें हैं, एक दूसरे के लिए जान देने वाली. पर गरीबी ने अच्छा दुश्मन बना दिया है एक दूसरे का. यहाँ यह भी एक बच्चों का अच्छा टशन है कि उधर अपनी माँ से रूठ कर इधर मौसी के यहाँ ही आ जमे. मौसी किचन में छुप छुप कर अपने पेट जाए बच्चों के मुंह में निवाले ठूंस ठूंस कर खिलाती और ज़बरदस्ती उनके पेट भरती. फिर नकली प्यार से उस रूठे हुए बच्चे को भी बचा खुचा परोस देती. पर अब तो रुकमा पर उस पूरे कुनबे का बोझ आन पड़ा है, राशन वाले का बिल बढ़ता जा रहा है. ताड़का के बापू की खोज अब इंजना के पिता टूर से लौटें तो हो कहीं...
इधर उल्हासनगर एक में रहने वाली सबसे बड़ी बहन ड्रामेबाज़ सी है. हेमा आती है तो अब तो लीलां या रुकमा को कोई उम्मीद नहीं कि वह मदद को एक टका भी इधर भूल कर फेंक जाएगी. बल्कि वह चिल्लाने लगती है और सबको डांटती हुई ऐसे दिखाती है जैसे पूरे खानदान में वही एक समझदार है, यहाँ तो सब एक से बढ़ कर एक मूर्ख भरे हैं. पर कभी कभी ताड़का अच्छा भला ड्रामा खड़ा कर देती है जो हेमा के ड्रामे से भी बढ़ कर होता है. हेमा जब चीख चीख कर लीलां रुकमा को डांटती है तब चेतन और सैजू क्या करते हैं कि डर के मारे माँ की बड़ी सी चारपाई के नीचे छुप जाते हैं. उधर इन्जना अपने दोनों भाइयों को संभाले बहुत धैर्य से बैठी रहती है. हेमा मौसी आखिर में निकलेगी तो ले दे कर वही भिखारियों वाली एक चवन्नी बच्चों को पकड़ा जाएगी  जिसके एक तरफ एक शेरनी छपी है. पर असली शेरनी तो ताड़का होती जो क्या करती कि घर के पिछ्वाड़े वाली तीन पौड़ियों से जो छोटी सी दीवार पौड़ियों की साईड में बनती है उसी में छुप कर हेमा मौसी की नक़ल करती है. हेमा चिल्लाती है – ‘भागी तो निभागी है कहीं की...’ और हेमा को बुरी तरह  चौंकाती ताड़का की आवाज़ आती – ‘तू निभागी है तू...’ हेमा चिल्ला पड़ती है – ‘हैं!...’ ताड़का – हैं...’ हेमा इस चिढ़ाती आवाज़ को खोजती अचानक पिछवाड़े वाला दरवाज़ा खोलती है – ‘कहाँ है री तू. मुझ पर चिल्लाने का नतीजा जानती है तू...’
-         ‘तू... तू जान मुझ पर चिल्लाने का नतीजा...’ कहते कहते ताड़का मोटी छलांग सी मार कर इधर इंजना के घर वाली पौड़ियों के पीछे जा छुपती तो इंजना जो क्षण भर को झाँकने आती तो उसे बहुत जोर की हंसी आ जाती. अन्दर से बेटी को हंसती देख रुकमा की  भी हंसी न रुकती. वह अपने घर के पिछवाड़े वाला दरवाज़ा खोल भागी को इशारे से अन्दर बुला लेती और खुद चक्कर लगा कर सामने वाले दरवाज़े से लीलां के घर जा कर हेमा को किसी प्रकार रोकती – ‘जाने दे बच्ची है सीख जाएगी...’ पर हेमा संतुष्ट न होती और रुकमा की सफलता इसी में कि आखिर हेमा को ठंडा कर ही छोड़ती. बड़ी सी चारपाई पर अपनी नवजात बच्ची को गोद में थाम इतनी देर लीलां कैसी घुटन महसूस करती अपनी हंसी को रोके रहती इस का वर्णन मुश्किल. लीलां पूरी हथेली ही अपने होंठों के ऊपर दबा कर अपनी बिटिया के साथ आँखों आँखों ही हंसती बैठी रहती. आखिर हेमा अचानक नीचे उकडू बैठ जाती तो चेतन और सैजू सहम से जाते. हेमा क्या करती कि चेतन को बाहर खींचने लगती - ‘क्यों मुए, मैं कोई राक्षसिनी हूँ क्या कि चारपाई के नीचे छुप जाते हो?’ ऊपर बैठी लीलां से अब न रहा जाता, हंसती खिलखिलाती ऊपर से ही चिल्लाती – ‘खेल रहे हैं दोनों, जाने दे हेमा मैं कहती हूँ...’

अचानक सैजू वहीं भीख की तरह हेमा द्वारा फेंकी हुई वही शेर वाली चवन्नी फर्श पर देखता और उसे झपट लेता. चेतन सैजू आपस में उलझ जाते. हेमा दोनों  बहनों से लिपट जो आंसुओं की धार बहाती वह दोनों को आज तक न पता चलता कि नकली है या असली. बाहर ताड़का आखिर सूंघ जाती कि हेमा मौसी रफादफा हो चुकी है. तब ताड़का भूकंप फैलाती दौड़ती फलांगती घर आती और सबसे पहले सैजू चेतन को निकाल उनके हिस्से आयी चवन्नी झपट कर अपने कब्ज़े में करती.

आखिर ताड़का का बापू ढूंढ लिया गया जब इंजना का बापू टूर से लौटा. इंजना के बापू ने एक झापड़ रसीद किया उसे और गुस्से में साथ के अपने घर चला गया. पर घंटे भर बाद उधर से आवाजें आयी जिस से लगा ताड़का का बापू खुद अपने चेहरे पर ही भारी भरकम हाथ मारे जा रहा है. रुकमा और इंजना के बापू घर बैठे रहे. पर सुबह पता चला कि दरअसल ताड़का का बापू खुद अपने आप को ही इसलिये पीटने लगा कि तूने अब फिर एक और बेटी पैदा कर दी. मर साली मर... भैन...’

दिन ऐसे ही सरकते रहे. साधू बाबा का घर कहीं उल्हासनगर पांच में है. कभी कभी वहां उसके भक्तजनों की अच्छी रौनक सी लग जाती है. लोग झूम झूम कर गाते हैं. आँखें मूँद विलीन से हो जाते हैं. पर आज का प्रमुख आकर्षण यह कि ताड़का औरतों के एक बड़े से गोले के बीच ऊंची ऊंची छलांगें मार नाचे जा रही है. भजन के बीच उसकी भोंडी सी आवाज़ भी अच्छी ही लग रही है जाने क्यों. औरतें एक दूसरे के कान में फुसफुसा रही हैं – ‘पास हुई है लीलां की बेटी भागी. कहती है मैं क्लास की लड़कियों में सातवें नंबर पर आयी हूँ मौसियो... सब हैरान थे मैं कैसे पास हो गयी सातवीं में. अरी सुन तो, तू क्लास की लड़कियों में सातवें नंबर पर आयी, पर क्लास में कितनी लड़कियां हैं चालीस? हा हा.. नहीं मौसियो मेरी क्लास में तो न सिर्फ सात ही लड़कियां हैं. हा हा हा हा... और ताड़का झूम झूम कर धरती हिलाती है. कहती है, अब आगे तो मैं पढूंगी ही नहीं मेरा दिल नहीं लगता. माँ से कह के छोटी बहना की देखभाल में उसकी मदद करूंगी. और घर में ही पापड़ बेल बेल कर घर घर बेच आऊँगी, सौ सौ के पैकेट. साधू  बाबा की मेहर होगी तो...

और साधू बाबा की मेहर हो गयी, एक और ही तरीके से. सबने सोचा साधू बाबा इसे सीख देंगे, कमसे कम मैट्रिक तक तो पढ़. पर बाहर लीलां और रुकमा एक चारपाई पर बैठी अन्दर से आ रहे भजनों का रस ले रही हैं. साधू बाबा अपने कमरे में पल्थी मार भजनों की इस धूम का हिस्सा बने हुए हैं और मुस्करा रहे हैं. तभी एक लड़का आता है, रुकमा से कहता है – ‘साधू बाबा ने ये सोडा लेमन की बोतलें मंगाई हैं, आठ हैं, कहाँ रखूँ?’

रुकमा को इस बीच साधू बाबा खिड़की से ही इशारे से अन्दर बुलाते हैं, कहते हैं  - ‘ये जो लड़का आया है, इसे गौर से देखना.’ रुकमा बाहर आ कर लड़के से कहती है – ‘ये बोतलें साधू बाबा कह रहे हैं वहां पानी का मटका है, आधा भरा है. उसी पानी में रख दे फ़िलहाल. थोड़ी देर बाद आरती होगी फिर थोड़ा थोड़ा ठंडा पेय भी पियेंगे सब.’

पर लीलां की तो बुरी तरह हंसी निकल गयी. मटका काफी दूर रखा है और अन्दर से भजनों का शोर. वो लड़का कँवल क्या करता है कि एक चाबी से एक एक बोतल खोलता है और अन्दर बोतलों के सारे पेय मटके के पानी में उंडेलता जाता है, लीलां चिल्लाती है – ‘ए ए लड़के क्या कर रहा है तू. बोतलें बंद ही अन्दर रखनी हैं तुझे...’

और थोड़े ही दिन बीतते हैं कि ताड़का के घर जश्न सा हो रहा है. पानी में बोतलें उंडेलने वाला लड़का एक साड़ी लाया है और ताड़का रुकमा के कहने पर अन्दर जा कर हेमा की मदद से ही साड़ी बाँध आती है. पहली बार उसने पेटीकोट ब्लाऊज नाम की चीज़ें पहनीं. हेमा को देख देख ताड़का अकारण खिलखिलाती जाती है पर आज हेमा कुछ नहीं कहती. साधू बाबा ने कहा है वो बोतलों को पानी में उंडेलने वाला लड़का यहीं विट्ठलवाड़ी स्टेशन पर एक टीन के ट्रे में केक बेचता है. लोकल आते ही दरवाज़े दरवाज़े लपकता है. लोकल तो उसी समय चली जाती है पर फिर भी भीड़ में कमाई हो जाती है...

और थोड़ी ही देर बाद बाहर बरामदे में बैठे साधू बाबा के पाँव छूती ताड़का कमरे के धूम धड़क्के में आती है और साड़ी का पल्लू लहराती कँवल से पूछती है – ‘दद्दा, इसमें मैं अच्छी लग रही हूँ?’ पर आज सबसे ज्यादा खुश है ताड़का का बार बार गुम हो जाने वाला मूर्ख सा बापू, पर कोई उसकी खुशी में खुशी मिला कर उसकी तरफ देखने को तैयार ही नहीं, सो वह खुशी में ही गदगद सा खुद अपने साथ हँसता कभी अपनी मुट्ठी से होंठ ढक लेता है, कभी हटा देता है, या अकारण ही थोड़ा सरक कर कमरे की रौनक को ताकता रहता है...

No comments: