Friday, July 10, 2015

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क्योंकि मैं सोचता हु इसलिए मैं हूँ.
डेसकार्टेस के इसी विचार के आधार पर प्रेमचंद सहजवाला जी सोचते चले गए, और लिखते चले गए, और जीते चले गए. और फिर एक दिन बस चले गए। 
पर नहीं, गए कहाँ हैं वो? बहुत कुछ है हमारे पास जिससे उन्हें हम अपने बीच जीवित रख सकते हैं. उनका लेखन, और उनकी सोच दोनों ही. और उनके बहुत से अधूरे  काम।  .

इस वेबसाइट के माध्यम से  हम कोशिश करेंगे कि उनकी लिखी कहानियां, कवितायेँ, लेख उनकी विचारधारा लोगों तक पहुंचें कोशिश यह भी रहेगी की इसी माध्यम से उनके संस्थापित ‘अंजना: एक विचार मंच’ को भी नयी ऊचाइयों तक ले जा सकें, तथा उनके अधूरे समाजिक कार्यों को भी संपन्न कर सकें

उनके मित्रों शुभचिंतकों सहयोग के लिए अनुरोध करूंगा. यदि इस वेबसाइट पर आप में से कोई कुछ लिखना चाहें, तो मुझे kanoo.sahajwala@gmail.com पर लिखें।

प्रेमचंद सहजवाला


जन्म तिथि: १८ दिसंबर १९४५
जन्म स्थल: सुजावल, सिंध

साहित्य
धर्मयुगसाप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिकारविवारकहानीजनसत्ताहंसपरिकथालमहीकथाक्रमवर्तमान साहित्य आदि सभी शीर्षस्थ पत्रिकाओं में कई कहानियां प्रकाशित.

श्रीपतराय की पत्रिका ‘कहानी’ की वार्षिक प्रतियोगिता में एक कहानी को द्वितीय पुरस्कार. कुछ अन्य कहानियां अन्यत्र पुरस्कृत व अनुवादित.

प्रकाशित पुस्तकें:
कहानी संग्रह : सदमा,
कैसे कैसे मंज़र,
टुकड़े टुकड़े आकाश प्रकाशित.
संग्रह ‘कैसे कैसे मंज़र’ पुरस्कृत.

उपन्यास: नौकरीनामा बुद्धू का प्रकाशित.
संस्मरण संग्रहसितम फेसबुक के प्रकाशित
इतिहास शोध:  भगतसिंह इतिहास के कुछ और पन्ने’ प्रकाशित. पेपरबैक संस्करण प्रकाशनाधीन.
अंग्रेज़ी पुस्तकें :

1.      India Through Questions & Answers (vol.) An encyclopedia with seven thousand five hundred questions and answers on india.

Mumbai kiski and other articles: A collection of political, historical and social article work.


अंजना: एक विचार मंच की स्थापना जो प्रतिवर्ष एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति को नकद पुरस्कार भी देती है

Thursday, February 19, 2015

संघ का हिंदुत्व

संघ का हिंदुत्व
प्रेमचंद सहजवाला

इन दिनों संघ बनाम हिंदुत्व की खूब चर्चा है. कतिपय मुस्लिम नेताओं ने संघ के वरिष्ठ अधिकारी इन्द्रेश कुमार के आगे कुछ प्रश्न रखे जिनका उत्तर इन्द्रेश कुमार के पास नहीं था सो उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि मुस्लिम नेता पहले इन प्रश्नों के उत्तर के लिए एक सम्मेलन बुलाएं जिसमें संघ उन प्रश्नों के उत्तर देगा.



दरअसल भारत में हिदुत्व के प्रथम मसीहा विनायक दामोदर सावरकर थे जिन्होंने ब्रिटिश काल के दौरान ही कहा था कि भारत में जो गैर हिन्दू हैं, अगर उन्हें भारत में रहना है तो धर्म परिवर्तन कर के वे हिन्दू बन कर भारत में रहें. उस पर तुर्रा यह कि जो ये परिवर्तित हिन्दू होंगे उन्हें जाति की सीढियों पर किसी निम्न जाति में रखा जाएगा. संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर ऐसा ज़रूरी नहीं समझते कि मुस्लिम या ईसाई हिन्दू बन कर ही इस देश में रहें. अलबत्ता वे भौगोलिक एकता (integrity) को अस्वीकार कर के सांस्कृतिक एकता की बात करते हैं. यानी इस देश में मुस्लिम  रहें या ईसाई, वे हिन्दू संस्कृति अपना कर ही रहें. यह भी कि इस देश के नागरिकों में सर्वोपरि हिन्दू हैं और बाकी धर्मों के लोगों को दोयम दर्जे की नागरिकता दी जाए. गोलवलकर हिटलर के प्रशंसक थे हालांकि जब हिटलर ने सत्ता अपनाई तब उन्होंने हिटलर की सत्ता की लोलुपता की भरपूर आलोचना भी की. बहरहाल, सावरकर और गोलवलकर के हिंदुत्व केवल भौगोलिक या सांस्कृतिक हिन्दू एकता तक सीमित नहीं थे. दोनों के बीच एक और बात पर गहरे मतभेद रहे कि हिन्दू धर्म से हिंदुत्व हुआ या इसके उलट हिंदुत्व से हिन्दू धर्म उपजा. गोलवलकर इन में से बाद वाले मत के समर्थक थे. साथ ही यह भी कि सावरकर नास्तिक थे व गोलवलकर आस्तिक. सावरकर गोमांस को आर्थिक स्थिति से जोड़ते थे जबकि गोलवलकर गोमांस खाने के कट्टरतम विरोधी. इन बातों से यह तो स्पष्ट है कि कदाचित संघ भी हिंदुत्व को कोई धर्म नहीं मानता, वरन अभी तक के संघ के कार्यकलापों से यही लगता है कि संघ हिन्दू संस्कृति को ही सबके लिए अनिवार्य मानता है. पर प्रश्न उठता है कि क्या जितने भी गैर हिन्दू धर्म के लोग हैं, क्या उनके लिए हिन्दू संस्कृति पर जीना भी एक धर्मपरिवर्तन नहीं माना जाएगा. संघ के कई नेता समय समय पर जोर देते रहे हैं कि मुस्लिम लोग पहले राम और कृष्ण को मानें फिर इस देश में रहें. स्मरण रहे कि रामजन्मभूमि के आन्दोलन में भी एक मस्जिद गिरा कर भव्य मंदिर बनाने की बात कही गयी थी. अर्थ कि गैर हिन्दू उचित या अनुचित कारणों से यहाँ रहें तो हिन्दू बन कर ही, बाकी अपने नाम के आगे लेबल वे भले ही अपने धर्म का लगाएं. जिन मुस्लिम नेताओं ने इन्द्रेश कुमार के आगे प्रश्न रखे उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम किसी भी हालत  में ‘वन्दे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ नहीं कहेंगे. स्पष्ट है कि जिन बातों पर संघ का वर्षों से आग्रह रहा है वह मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं है और संघ की तमाम बातें मात्र असंभव स्वप्न हैं. देश की सीमा पर जान लड़ा कर शहीद होने वाले मुसलामानों की भी कमी नहीं. पर संघ उनकी शहादत को राष्ट्रीयता न मान कर केवल अपने मानदंडों पर ही उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवादी बनाना चाहता है. और संघ यह भी जानता है कि वे मुसलमानों व अन्य गैर हिन्दू लोगों से असंभव परिवर्तन चाहते हैं, जिसके कारण इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संघ के सामने हिन्दू राष्ट्र का या हिंदुत्व का कोई भी बना बनाया खाका नहीं है. अस्तु.  

Monday, December 29, 2014

रिफ्यूजी कहानी – प्रेमचंद सहजवाला

                                                                 रिफ्यूजी
कहानी – प्रेमचंद सहजवाला
(हंस 2015 में प्रकाशित)
लीलां बुक्का फाड़ कर रो पडी. भागी को सब...
वो दिन भी बहुत पुराना नहीं, जब साथ के रिफ्यूजी घर में से भागी की ही क्लास में पढने वाला मुरली अभी इस घर में आया ही कि खौफ के मारे बुरी तरह चिल्ला पड़ा था – ‘मौसी....’ और मौसी अपने जबरदस्ती किचन कहे जाने वाले किचन में बेहोश पडी थी. कोयलों वाली अंगीठी उलट चुकी थी, जाने लीलां ने क्या तरीका अख्तियार किया था, इस प्रकार इस दोज़ख सी ज़िंदगी से रुखसत कर जाने का...
घर में लीलां की बहन रुकमा का व बच्चों का रोदन सा मच गया था. लीलां मौसी की पीठ जल कर लाल हो चुकी थी. चेहरे पर भी आंच थी, सब कह रहे थे साधू बाबा ने बचा लिया, वर्ना तो...
आज कमरे में चारों तरफ सुनसान पा कर लीलां मौसी बुक्का फाड़ रो पडी. भागी को सब ताड़का ताड़का कह कर क्यों चिढाते हैं. क्या बिगाड़ा है, मेरी मोटी तगड़ी बेटी ने. ह ह.. सब लोग हँसते हैं. सामने ही गुरुद्वारे में गयी थी. परसाद बंटने की भीड़ थी. पट्टेदार पतलूनें और जम्फर सा कुछ पहने, नाक से लम्बी लटकती नथों वाली औरतों की लाइन भागी के बाईं तरफ थी. उसने जो एक कोहनी से एक बुढ़िया को धक्का दिया तो एक एक कर के पूरी दस औरतें धड़ाम धड़ाम नीचे गिर गईं. हा हा हा हा... पूरे कसबे में बात आग की तरफ फ़ैल गयी थी. भागी... वो न... लीलां की ताड़का सी बेटी. चीखती है तो सिंध तक आवाज़ जाती है और सिंध जहाँ से लद-फंद कर यहाँ आए, वो भी दहल जाता होगा ताड़का की आवाज़ से...
लीलां अब कसबे के सिविल हस्पताल में दाखिल है. सबसे बड़ी भागी, फिर दो बेटे चेतन और सैजू. अब एक और संतान ने द्वार खटखटाया है. सिविल हस्पताल में मैटर्निटी वार्ड है कि मच्छी मार्केट. जहाँ तहां पलंग तो बिछे हैं और कुछ और औरतें ओनों कोनों में ज़मीन पर डिलीवरी के इंतजार में. दाइयां आती हैं और दो चार को झाड़ देती हैं, किसी किसी क्षण चीखाचाखी मचाती हैं. आने वाली संतानों को क्या पता, वे ऐसे रिफ्यूजी कसबे में जन्म ले रही हैं जहाँ के लोगों को खुद खाने के लिए कुछ नहीं. यहाँ देखते देखते नगर निगमिया  नलके पर अकेली कपडे धोती औरतों से बीड़ी सुलगाने को माचिस मांगते ठगों की कमी नहीं. औरतें सामने ही रिफ्यूजी घर में किसी को आवाज़ दे कर माचिस मंगा लेती हैं. अगर कोई ताड़का वाड़का सरीखी हुई तो ठग की हिम्मत नहीं कि कुछ कर जाए, ताड़का चिल्ला कर पूछेगी – ‘कौनसे मोहल्ले से आए हो?’ ठग झुक कर कहेगा – ‘पच्चीस सेक्शन से.’ ‘इधर कहाँ चले? माचिस जेब में नहीं रखते क्या?’ शर्मीली सी मुस्कराहट. और ताड़का माचिस की तीली ऐसे जला कर खीं खीं सी मचाएगी जैसे ठग को ही जलाने जा रही हो. माँ झाड़ेगी – ‘माचिस उसी को दे डायन तू क्यों जला रही है?’ पर ताड़का न हो कर कोई और हुई तो माँ को ही माचिस दे कर चली जाएगी. माँ ज्यों ही  माचिस ऊपर करेगी ठग नीचे झुकने के बहाने औरत के गले में पड़ी चेन ले कर चम्पत. हाय तौबा मचेगी. औरतें इकठ्ठा हो जाएँगी, कहेंगी – ‘इन मुए बदमाशों से तो भगवान् भी डरता होगा. तभी तो...’ औरत कितने दिन रोएगी. घर में पति की मार खाएगी... अजनबी मरद से ज़बान लड़ाई क्यों, इस से तो आँखें लड़ा कर उसी के साथ जहन्नुम वहन्नुम दफा हो जाती हरामज़ादी...
यहाँ बच्चों का अपहरण भी हो जाता है. ताड़का यानी भागी ने तो एक बार पूरा बाज़ार ही सर पर उठा लिया फिर बाद में खूब खिल्ली उड़ी. कोई शरारती सा लड़का माँ से रूठ कर उसे गालियाँ देता तीन घंटे से गायब था. आखिर उसके मामा लोगों ने उसे ढूंढ लिया पर वह तगड़ा सा दिखता कहे कि मैं घर नहीं जाऊंगा. और उसके मामों ने पीट कर सीधा कर दिया उसे. फिर उसे टांगों और बांहों से झुलाते हुए बीच बाज़ार से चले घर कि ताड़का वहीं से गुज़री. – ‘अरे ए ए... देखो सब, इस लड़के को बदमाश उठा कर जा रहे हैं.’ उन मामों के सामने दो पैर दूर दूर तक सड़क में खुपा कर कमर पर दोनों तरफ मुट्ठियाँ खुपाए खड़ी चिल्लाने लगी ताड़का. वो लड़का मामों के चंगुल से निकल भागने को छटपटाने लगा. उसे पता है कि घर जा कर और मार पड़नी है. लेकिन भागी के चिल्लाने पर सामने ही फलूदे मलाई वाला हंसता खिलखिलाता भागा हुआ बाहर आया – ‘अरे जाने दे ताड़का... वो  बदमाश नहीं हैं. लड़का बदमाश है. माँ को तंग करता है... हा हा हा...’ कई और दुकानदार आ गए  हैं, तभी मामे मानो ज़मानत पर छूटे और सफलतापूर्वक अपने भांजे को किडनैप कर के घर ले गए.
इधर सिविल हस्पताल में लीलां दाखिल तो है, पर लीलां की बहन, बहन का परिवार, व खुद लीलां के ही दस दस बारह बारह साल के बेटे सब एक गहरे तनाव में हैं. लीलां का पति घर छोड़ कर जाने कहाँ गुम हो गया है. अब लीलां को बताएंगे तो वह मय बच्चे मर मरा ही न जाए. जब तो पीठ जली थी तब कई दिन तक तो कराहती रही थी लीलां. संध्या होते ही घर की बत्ती भी उसके साथ के घर वाली रुकमा या उसका पति आ कर जलाता था. लीलां को इतनी असह्य पीड़ा अपनी जली चमड़ी पर कि उस घुप्प अँधेरे में एक छाया सी रोती रहती  और भगवन के आगे नाक रगड़ती रहती कि जो तेरा अपराध मैंने किया हो वो अब तो माफ़ कर. मुझसे सहा नहीं जाता.
बाहर इसी बाज़ार से एक दर्ज़ी आया था और रुकमा से बोला था – ‘लीलां बहनजी को पीछे से रोज़ बिजली का करेंट दिया करो. धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा.’
फिर यह क्रम शुरू हो गया. रात नौ बजते ही रुकमा के रेलवे में काम करने वाले पति लीलां को बाज़ार ले जाते. यहाँ घर में बिजली थी पर पीछे जली हुई पीठ पर करेंट कैसे लगाएं धीरे धीरे, यह उस दर्ज़ी को ही पता था. यहाँ वैसे ही पच्चीस वाट का बल्ब जलता जो बैरक की  छत पर ऐसी जगह लगा रहता कि रुकमा और लीलां दोनों के घरों तक चलते फिरते रहने जितनी भर रोशनी दे, स्विच लीलां के घर होता. उधर बाज़ार में दर्ज़ी उन्हें इज्ज़त से बताता.  उसे एक ही लोभ होता कि ताड़का की माँ की पीठ पर से जब उसके ब्लाऊज़ के हुक खोल  कर लाल जली पीठ को नंगा किया जाएगा तो नीचे उसकी कमर व थोडा नीचे खिसकाए जाते पेटीकोट के भीतर इंच भर सही, झाँकने का मौका मिलेगा. कमर नहीं जली थी सो वह ज्यों की त्यों नंगी चमड़ी रूप में मय अपने ग्रूव के नज़र आती. दर्ज़ी मानो कुछ देर सामने  अपने एक स्टूल पर बैठा आँखें सेंक लेता. एक प्लग जैसा टर्मिनल लीलां की पीठ पर घुमाया जाता धीरे धीरे. रुकमा को अहसास होता कि उसका पति बहुत अच्छे चरित्र वाला है तो न तो नंगी कमर या हिप्स की झलक से वह ज़रा भी विचलित होगा. सो कभी आती कभी न आती. पर जिस समय आधे घंटे के लगभग लीलां करेंट पास करवा रही होती उस समय यहाँ एक और ही तमाशा खड़ा हो जाता. ताड़का कहती – ‘मौसा मौसा... एक फलूदा मलाई खिलाओ न...’
सिर्फ ताड़का नहीं, रुकमा का मुरली और छोटी सरू व ताड़का से भी बड़ी रुकमा की समझदार बेटी इंजना भी वहीं आसपास होते. पर मुरली व सरू और लीलां के बेटे सैजू चेतन सब इसी ताक में होते कि मुरली के फराखदिल पिता कभी कभी ताड़का को फलूदे मलाई का एक प्याला ले कर देते हैं और उसे ताकीद करते हैं कि यहाँ अब रेल छेल घूमना नहीं, चुपचाप यहीं दर्ज़ी की दुकान पर बैठ फलूदा मलाई खानी है. पर ताड़का बाहर दौड़ जाती क्योंकि इंजना को छोड़ बाकी चारों बच्चों की टपकती लार का अहसास उसे करना पड़ता और इन मरभुक्खों को भी कुछ खिलाना पड़ेगा. सो वह रेल छेल सी करती बाहर फलूदे मलाई की दुकान पर रखी रंगीन बोतलों कुल्फियों को देखती देखती सब कुछ चट कर जाती. इंजना घर से ही मुरली सरू को समझा डांट कर चलती और वे समझदार से बैठे रहते.  रुकमा कई बार पति से बाज़ार बीच चलते चलते झगड़ भी चुकी है कि अपने बच्चों के लिए छोटे मोटे खिलौने ले आते हो बाकी सालियों पर दिल आए तो दस दस बीस बीस उड़ा कर टूर पर जाते हो. इधर कभी कभी इंजना-मुरली के पिता क्या करते कि फलूदे मलाई के दो प्याले और ले लेते, और एक एक मुरली-सरू व चेतन-सैजू को देते. कभी इंजना से कहते एक एक चम्मच कर दोनों को बारी बारी खिलाओ कभी खुद चेतन-सैजू को ऐसे ही खिलाते. वो दिन बाकी बचे इन चारों बच्चों का त्यौहार सा हो जाता. घर पहुँचते तो सब के मुंह मीठे होते...
... सिविल हस्पताल एक बड़ी सी बैरक में है. प्रवेश कर के कई पलंगों व ज़मीन पर लगे बिस्तरों को पार कर के बढ़ते चले जाओ और लीलां का बिस्तर खोजो तो दूर बेढंगी सी खड़ी ताड़का दिखती. कभी चौड़े से घेरे वाली फ्रॉक के किनारे को नीचे करती करती घुटनों को ढकती बैठती जैसे बैठने की तमीज सीख गयी ही, और छोटी सी गेंद को उछाल उछाल कर ज़मीन पर फ़ैली पत्थर की छोटी छोटी गिटकियों से अकेली ही खेल खेलती.. कभी माँ के पलंग के सिराहने बेढंगी सी ही टिक जाती. माँ से बातें करने के बहाने खोजती. कभी दाई आती तो दाई से ही अपनी जाहिलाना दबंग सी आवाज़ में पूछती – ‘तू मेरी माँ का ख्याल रखती है कि नहीं...’ और लीलां को उस हालत में भी अपनी बेटी के जाहिलपने पर हंसी आ जाती. दाई को पता है, यह ताड़का है, सो ज़बान कैसे लड़ाती भला. इधर रुकमा आती या इंजना, सबके सर पर यही चिंता सवार रहती किसी ने लीलां को बता तो नहीं दिया, उसका पति गुम हो गया है. सबको ताड़का पर आश्चर्य है, यह ऐसी जाहिल सी लडकी कैसे इतना  बड़ा राज़ सीने में छुपाए है, माँ को गलती से भी नहीं बताती बापू आजकल फिर भाग गए हैं. वे दो नंबर के राशन ऑफिस के बाहर फुटपाथ पर बनियान जुराबें बेचते हैं. बेवकूफ किस्म के हैं, सो पटरी के दूसरे दुकानदार उनसे पैसे टीप लेते हैं. उस उल्हासनगर नाम के कसबे को सिंध में फैले दंगों के बाद आए सिंधी शरणार्थियों को बसाया जैरामदास दौलतराम  नाम के नेता ने.  भगवान उसका भला करे. बेचारे ने दिन रात एक कर दिए. उधर वीसापुर, लेकबील भावनगर न जाने कहाँ कहाँ रिफ्यूजी बसाए. पर वो बेचारा इन सबको केवल माचिस की डिब्बियों जैसे छोटे छोटे घर दिलवा सका, क्लेम ऑफिस से. सिंध में छूट गयी आलू प्याज़ की बोरियां, बड़ी बड़ी हवेलियाँ, काजू बादामों से भरी जेबें, वो खुद मुख्तियारकार वो नौकर चाकर. अब यहाँ खाने के लाले पड़ गए हैं. सब खाली हाथ भाग आए जानें बचा कर, अब भी खाली हाथ हैं. एक एक रोटी पर घर के चार चार बच्चे झपटते हैं. भागी के पिता अक्सर लुटे पिटे से रहते हैं, घर आ कर लीलां एक रुपए का भी तकाजा करे तो अपने दाहिने हाथ से खुद अपने चेहरे को ही बुरी तरह पीटते चले जाते हैं, कभी लीलां को ही दो चार जमा देते हैं और कभी गायब.
आखिर वो दिन आता है कि ताड़का पूरे सिविल हस्पताल के फ्लोर पर एक भूकम्प सा मचाती दौड़ भी रही है,  खुशी से खिलखिला भी रही है – ‘मेरी बहन हुई... मेरी बहन हुई... हा हा हा हा...’ पलंगों पर लेटी या उठ बैठी औरतों की हंसी ही न रुके, इस जाहिल लड़की के अंदाज़ पर.
लीलां घर आ गयी है, और आखिर उसे बता ही दिया जाता है, भागी के बापू कई दिन से गायब हैं. इधर इसी कारण रुकमा का घर एक अजीब सी मुसीबत में फंस गया है. अब जब तक भागी का बापू मिले तब तक उधर भी राशन पानी का खर्च करो. रुकमा को लगा जैसे बर्बाद हुई जाती है वह. यहाँ तीन सगी बहनें हैं, दो तो लीलां और रुकमा. तीसरी उल्हासनगर एक में रहती हैं. कहने को बहनें हैं, एक दूसरे के लिए जान देने वाली. पर गरीबी ने अच्छा दुश्मन बना दिया है एक दूसरे का. यहाँ यह भी एक बच्चों का अच्छा टशन है कि उधर अपनी माँ से रूठ कर इधर मौसी के यहाँ ही आ जमे. मौसी किचन में छुप छुप कर अपने पेट जाए बच्चों के मुंह में निवाले ठूंस ठूंस कर खिलाती और ज़बरदस्ती उनके पेट भरती. फिर नकली प्यार से उस रूठे हुए बच्चे को भी बचा खुचा परोस देती. पर अब तो रुकमा पर उस पूरे कुनबे का बोझ आन पड़ा है, राशन वाले का बिल बढ़ता जा रहा है. ताड़का के बापू की खोज अब इंजना के पिता टूर से लौटें तो हो कहीं...
इधर उल्हासनगर एक में रहने वाली सबसे बड़ी बहन ड्रामेबाज़ सी है. हेमा आती है तो अब तो लीलां या रुकमा को कोई उम्मीद नहीं कि वह मदद को एक टका भी इधर भूल कर फेंक जाएगी. बल्कि वह चिल्लाने लगती है और सबको डांटती हुई ऐसे दिखाती है जैसे पूरे खानदान में वही एक समझदार है, यहाँ तो सब एक से बढ़ कर एक मूर्ख भरे हैं. पर कभी कभी ताड़का अच्छा भला ड्रामा खड़ा कर देती है जो हेमा के ड्रामे से भी बढ़ कर होता है. हेमा जब चीख चीख कर लीलां रुकमा को डांटती है तब चेतन और सैजू क्या करते हैं कि डर के मारे माँ की बड़ी सी चारपाई के नीचे छुप जाते हैं. उधर इन्जना अपने दोनों भाइयों को संभाले बहुत धैर्य से बैठी रहती है. हेमा मौसी आखिर में निकलेगी तो ले दे कर वही भिखारियों वाली एक चवन्नी बच्चों को पकड़ा जाएगी  जिसके एक तरफ एक शेरनी छपी है. पर असली शेरनी तो ताड़का होती जो क्या करती कि घर के पिछ्वाड़े वाली तीन पौड़ियों से जो छोटी सी दीवार पौड़ियों की साईड में बनती है उसी में छुप कर हेमा मौसी की नक़ल करती है. हेमा चिल्लाती है – ‘भागी तो निभागी है कहीं की...’ और हेमा को बुरी तरह  चौंकाती ताड़का की आवाज़ आती – ‘तू निभागी है तू...’ हेमा चिल्ला पड़ती है – ‘हैं!...’ ताड़का – हैं...’ हेमा इस चिढ़ाती आवाज़ को खोजती अचानक पिछवाड़े वाला दरवाज़ा खोलती है – ‘कहाँ है री तू. मुझ पर चिल्लाने का नतीजा जानती है तू...’
-         ‘तू... तू जान मुझ पर चिल्लाने का नतीजा...’ कहते कहते ताड़का मोटी छलांग सी मार कर इधर इंजना के घर वाली पौड़ियों के पीछे जा छुपती तो इंजना जो क्षण भर को झाँकने आती तो उसे बहुत जोर की हंसी आ जाती. अन्दर से बेटी को हंसती देख रुकमा की  भी हंसी न रुकती. वह अपने घर के पिछवाड़े वाला दरवाज़ा खोल भागी को इशारे से अन्दर बुला लेती और खुद चक्कर लगा कर सामने वाले दरवाज़े से लीलां के घर जा कर हेमा को किसी प्रकार रोकती – ‘जाने दे बच्ची है सीख जाएगी...’ पर हेमा संतुष्ट न होती और रुकमा की सफलता इसी में कि आखिर हेमा को ठंडा कर ही छोड़ती. बड़ी सी चारपाई पर अपनी नवजात बच्ची को गोद में थाम इतनी देर लीलां कैसी घुटन महसूस करती अपनी हंसी को रोके रहती इस का वर्णन मुश्किल. लीलां पूरी हथेली ही अपने होंठों के ऊपर दबा कर अपनी बिटिया के साथ आँखों आँखों ही हंसती बैठी रहती. आखिर हेमा अचानक नीचे उकडू बैठ जाती तो चेतन और सैजू सहम से जाते. हेमा क्या करती कि चेतन को बाहर खींचने लगती - ‘क्यों मुए, मैं कोई राक्षसिनी हूँ क्या कि चारपाई के नीचे छुप जाते हो?’ ऊपर बैठी लीलां से अब न रहा जाता, हंसती खिलखिलाती ऊपर से ही चिल्लाती – ‘खेल रहे हैं दोनों, जाने दे हेमा मैं कहती हूँ...’

अचानक सैजू वहीं भीख की तरह हेमा द्वारा फेंकी हुई वही शेर वाली चवन्नी फर्श पर देखता और उसे झपट लेता. चेतन सैजू आपस में उलझ जाते. हेमा दोनों  बहनों से लिपट जो आंसुओं की धार बहाती वह दोनों को आज तक न पता चलता कि नकली है या असली. बाहर ताड़का आखिर सूंघ जाती कि हेमा मौसी रफादफा हो चुकी है. तब ताड़का भूकंप फैलाती दौड़ती फलांगती घर आती और सबसे पहले सैजू चेतन को निकाल उनके हिस्से आयी चवन्नी झपट कर अपने कब्ज़े में करती.

आखिर ताड़का का बापू ढूंढ लिया गया जब इंजना का बापू टूर से लौटा. इंजना के बापू ने एक झापड़ रसीद किया उसे और गुस्से में साथ के अपने घर चला गया. पर घंटे भर बाद उधर से आवाजें आयी जिस से लगा ताड़का का बापू खुद अपने चेहरे पर ही भारी भरकम हाथ मारे जा रहा है. रुकमा और इंजना के बापू घर बैठे रहे. पर सुबह पता चला कि दरअसल ताड़का का बापू खुद अपने आप को ही इसलिये पीटने लगा कि तूने अब फिर एक और बेटी पैदा कर दी. मर साली मर... भैन...’

दिन ऐसे ही सरकते रहे. साधू बाबा का घर कहीं उल्हासनगर पांच में है. कभी कभी वहां उसके भक्तजनों की अच्छी रौनक सी लग जाती है. लोग झूम झूम कर गाते हैं. आँखें मूँद विलीन से हो जाते हैं. पर आज का प्रमुख आकर्षण यह कि ताड़का औरतों के एक बड़े से गोले के बीच ऊंची ऊंची छलांगें मार नाचे जा रही है. भजन के बीच उसकी भोंडी सी आवाज़ भी अच्छी ही लग रही है जाने क्यों. औरतें एक दूसरे के कान में फुसफुसा रही हैं – ‘पास हुई है लीलां की बेटी भागी. कहती है मैं क्लास की लड़कियों में सातवें नंबर पर आयी हूँ मौसियो... सब हैरान थे मैं कैसे पास हो गयी सातवीं में. अरी सुन तो, तू क्लास की लड़कियों में सातवें नंबर पर आयी, पर क्लास में कितनी लड़कियां हैं चालीस? हा हा.. नहीं मौसियो मेरी क्लास में तो न सिर्फ सात ही लड़कियां हैं. हा हा हा हा... और ताड़का झूम झूम कर धरती हिलाती है. कहती है, अब आगे तो मैं पढूंगी ही नहीं मेरा दिल नहीं लगता. माँ से कह के छोटी बहना की देखभाल में उसकी मदद करूंगी. और घर में ही पापड़ बेल बेल कर घर घर बेच आऊँगी, सौ सौ के पैकेट. साधू  बाबा की मेहर होगी तो...

और साधू बाबा की मेहर हो गयी, एक और ही तरीके से. सबने सोचा साधू बाबा इसे सीख देंगे, कमसे कम मैट्रिक तक तो पढ़. पर बाहर लीलां और रुकमा एक चारपाई पर बैठी अन्दर से आ रहे भजनों का रस ले रही हैं. साधू बाबा अपने कमरे में पल्थी मार भजनों की इस धूम का हिस्सा बने हुए हैं और मुस्करा रहे हैं. तभी एक लड़का आता है, रुकमा से कहता है – ‘साधू बाबा ने ये सोडा लेमन की बोतलें मंगाई हैं, आठ हैं, कहाँ रखूँ?’

रुकमा को इस बीच साधू बाबा खिड़की से ही इशारे से अन्दर बुलाते हैं, कहते हैं  - ‘ये जो लड़का आया है, इसे गौर से देखना.’ रुकमा बाहर आ कर लड़के से कहती है – ‘ये बोतलें साधू बाबा कह रहे हैं वहां पानी का मटका है, आधा भरा है. उसी पानी में रख दे फ़िलहाल. थोड़ी देर बाद आरती होगी फिर थोड़ा थोड़ा ठंडा पेय भी पियेंगे सब.’

पर लीलां की तो बुरी तरह हंसी निकल गयी. मटका काफी दूर रखा है और अन्दर से भजनों का शोर. वो लड़का कँवल क्या करता है कि एक चाबी से एक एक बोतल खोलता है और अन्दर बोतलों के सारे पेय मटके के पानी में उंडेलता जाता है, लीलां चिल्लाती है – ‘ए ए लड़के क्या कर रहा है तू. बोतलें बंद ही अन्दर रखनी हैं तुझे...’

और थोड़े ही दिन बीतते हैं कि ताड़का के घर जश्न सा हो रहा है. पानी में बोतलें उंडेलने वाला लड़का एक साड़ी लाया है और ताड़का रुकमा के कहने पर अन्दर जा कर हेमा की मदद से ही साड़ी बाँध आती है. पहली बार उसने पेटीकोट ब्लाऊज नाम की चीज़ें पहनीं. हेमा को देख देख ताड़का अकारण खिलखिलाती जाती है पर आज हेमा कुछ नहीं कहती. साधू बाबा ने कहा है वो बोतलों को पानी में उंडेलने वाला लड़का यहीं विट्ठलवाड़ी स्टेशन पर एक टीन के ट्रे में केक बेचता है. लोकल आते ही दरवाज़े दरवाज़े लपकता है. लोकल तो उसी समय चली जाती है पर फिर भी भीड़ में कमाई हो जाती है...

और थोड़ी ही देर बाद बाहर बरामदे में बैठे साधू बाबा के पाँव छूती ताड़का कमरे के धूम धड़क्के में आती है और साड़ी का पल्लू लहराती कँवल से पूछती है – ‘दद्दा, इसमें मैं अच्छी लग रही हूँ?’ पर आज सबसे ज्यादा खुश है ताड़का का बार बार गुम हो जाने वाला मूर्ख सा बापू, पर कोई उसकी खुशी में खुशी मिला कर उसकी तरफ देखने को तैयार ही नहीं, सो वह खुशी में ही गदगद सा खुद अपने साथ हँसता कभी अपनी मुट्ठी से होंठ ढक लेता है, कभी हटा देता है, या अकारण ही थोड़ा सरक कर कमरे की रौनक को ताकता रहता है...

Sunday, December 14, 2014

चाँद तनहा है आसमाँ तनहा...कहानी – प्रेमचंद सहजवाला



चाँद तनहा है आसमाँ तनहा...कहानी – प्रेमचंद सहजवाला

तीन मूर्ति पुस्तकालय तक पहुंचना यह मात्र तीसरी बार हो रहा था पर इस बार अच्छा फंसा. लोहिया हस्पताल के बाद उधर जाने वाली बस नहीं दिखी तो एक ऑटो में ज़बरदस्ती बैठ गया. पर ऑटो वाला भी मेरा उस्ताद निकला और बोला कि बस यहाँ ग्यारह मूर्तियों से आगे नहीं जाऊंगा और दाईं ओर मुड़ जाऊंगा. अपना सा मुंह ले कर उतरना पड़ा और बीस रुपए दे कर शहादत सी ओढ़ता मैं चल पड़ा पैदल. जब तक तीन मूर्ति भवन के मेन गेट के भीतर प्रवेश करूं और भीतर का लंबा रास्ता पार करता पुस्तकालय वाली इमारत की सीढियां चढूँ तब तक हालत पस्त थी. पसीने से तर-ब-तर था मैं...
गलियारे में कुछ सोफा सी दिखती आरामदायक बेंचें हैं पर सब भरी थीं कि उसी ने, यानी निवेदिता ने पीछे से आवाज़ दी थी – ‘सर, यहाँ बैठिये न!’
निवेदिता यानी बाद में जिसने कहा कि लोग उसे प्यार से निवी कहते हैं, मुझे जानती नहीं थी पर मेरी खस्ता हालत पर शायद उसे तरस आ गया था और मेरी थकी आँखों में उसने देख लिया कि कहीं सांस लेने को बैठना चाहता हूँ. मैं मुड़ा और दस कदम लौट कर उसके सामने खड़ा हो गया. निवेदिता सरक गयी. मुझे बहुत शर्म सी आयी कि ऐसे एक महिला के साथ मैं बैठा लंबी लंबी साँसें लूं और अपना थका हुआ थोबड़ा उसे दिखाऊँ. पर मेरे बैठते ही जब मैंने उसकी ओर देख थैंक यू कहा तब वह इस कदर दीप्त सी एक मुस्कराहट मुस्करा दी कि मेरी थकावट मानो उसने दूर कर दी. बाकी तो रुमाल से बस पसीना ही पोंछना था. कुछ देर ऊपर चल रहे पंखे की हवा ने राहत दी तो वह बहुत सुरीली मुस्कराहट मुस्कराई – ‘निवेदिता.’
एक बात यहीं बता दूं तो बेहतर. निवेदिता दीक्षित.. हाँ, यही उसका पूरा नाम था. कोई बला की खूबसूरत महिला नहीं थी. उसका चेहरा व बाकी जिस्म बल्कि सांवले से कुछ अधिक ही सांवले थे! उसके कपोलों से उसकी उम्र झलक रही थी, पैंतालीस से तो ऊपर होगी ही. मैंने अपना नाम बता दिया – ‘देवेन.’ उम्र मेरे चेहरे पर भी उतनी ही छलक रही थी, जैसे हमारे बीच कोई अदृश्य दर्पण भी हो और एक फीमेल टु मेल कन्वर्टर भी हो ताकि मेरा चेहरा उसी का बिम्ब लगे हालांकि वह औरत थी और मैं मर्द! हम उसी, पहली भेंट में ही दोस्त बन गए थे. थकान दूर हुई तो अंदर पुस्तकालय चले गए दोनों. मुझे तो ऊपर प्रथम तल पर लोकमान्य तिलक और गोखले के ज़माने के अख़बार देखने थे जो कि किसी प्रोजेक्टर स्क्रीन पर कोई रील फिट कर के बायोस्क्प की तरह अन्दर आँखें गड़ा कर देखने और पढने पड़ते थे. निवेदिता ग्राऊंड फ्लोर पर ही मुस्करा कर बाय करती वहां की अल्मारियों की लंबी क़तार में कहीं गुम हो गयी.  मैं तिलक का अख़बार केसरी पढ़ रहा था कि कंधे पर किसी का हल्का सा स्पर्श महसूस हुआ. उसी समय वहां का इंचार्ज भी आ कर बोला – ‘आधे घंटे का इंटरवल है. आप सिर्फ एक इशू और देख सकते हैं. फिर कल.’ निवेदिता मुस्करा रही थी जैसे उसे यह सब अच्छा लगा. बोली – ‘चाय...’
बाहर एक खुले से रेस्तरां में चाय पी दोनों ने, कुछ स्नैक्स वगैरह और दोस्ती...
*  *
बात कभी गाँधी और गोडसे की निकलती और मैं और निवेदिता यानी निवी लड़ पड़ते. निवी कहती – ‘मैं उच्च जाति के गुरूर से भरी ओर्थोडॉक्स ब्राह्मण महिला हूँ, हार्ड कोर ब्राह्मण समझे?...’
-         ‘और मैं दलित न होते हुए भी बाबा साहेब का शिष्य, गाँधी का चेला. कास्ट वास्ट मेरे लिए कुछ नहीं...’
कभी देखो तो गोत्र पर दोनों सड़क पर चलते चलते ही तू तू मैं मैं पर उतर आए हैं. निवेदिता – ‘गोत्र की पहचान ज़रूरी है. समझे?’ लड़ाई शुरू ऐसे हुई कि मैंने कहा था कि खाप पंचायतें एक ही गोत्र वाले युवक युवती को शादी करने पर मार देते हैं.’ निवेदिता जैसे चीख पडी – ‘कर्रेक्ट...’ उसकी चीख सड़क की पूरी चौडाई पर फ़ैल गयी जैसे दूसरी तरफ के फुटपाथ पर चल रहे लोगों ने भी सुन ली. उसी समय बस आ गयी थी और हम बस में थे. सीट पर साथ साथ बैठ नहीं सके और बोलने लगे, ऐसे कि जैसे बोलना तो धीमे धीमे चाहते हैं पर आवाज़ न जाने क्यों बस में फ़ैल रही है.... बहरहाल. हम उस दिन खूब लड़े थे और मैंने उस से कह दिया था कि ठीक है तुम्हें जैसे सोचना है सोचो, अब हम कल से नहीं मिलेंगे... ठीक है, मुझे भी किसी वैद्य बैद्य ने नहीं कहा कि मैं तुमसे मिलूँ समझे?
मैं दरअसल पहले तो कभी कभार ही तीन मूर्ति पुस्तकालय जाता पर अब कई दिन से निवी के कारण आ रहा था. मेरा पुस्तकालय था ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी. एक दिन पुस्तकालय में बैठा ‘द लास्ट डेज़ ऑफ़ द ब्रिटिश राज’ पढ़ रहा था कि मोबाईल की पीप बजी. बस उसके बाद कम से कम बीस एस एम एस अदल बदल हुए जिनका लब्बो लुआब यही कि हमें विचारों पर नहीं लड़ना चाहिए. इस से दोस्ती टूटती है. मैं वहीं आ रही हूँ बस, मना मत करना.
ब्रिटिश काऊंसिल पुस्तकालय की कैंटीन में आमने सामने थे दोनों और निवी जैसे पैच अप करने को अपने होंठों पर लगातार एक मुस्कराहट लटकाए थी. एक और बात कि निवी की नाक के नीचे का ज्यग्रफिया ऐसे जैसे कि बंदरिया वन्दरिया हो. उसके काले से होंठ यूं गोल गोल मुड़े से दीखते जैसे सीटी बजाना चाहती हो. उस गोल गोल होंठों वाले पोर्शन से नीचे एक संक्षिप्त सी ठुड्डी बस. सामान्यतः किसी का भी आकर्षण न हो सके, ऐसा मुखौटा. पर उसका उत्साह और खुद पर एक प्यारा गुरूर सा, यही थी निवेदिता, उर्फ़ निवी. आज जाने क्योंकर एक खुशामदिया सी मुस्कराहट उसके होंठों पर लटकी थी. मैं बहुत अच्छे तरीके से पेश आ रहा था उस से, और दोनों बातें करते करते कैंटीन की बहुत मीठी सी चाय भी सुड़क कर बाहर आए तो निवी बोली - ‘अब कब? कब मिलेंगे हम?’
-         ‘जब आप कहो. मैं तो अक्सर इसी पुस्तकालय आता हूँ और आप जाती हो तीन मूर्ति में, सो जब यहाँ आओ मिल लेंगे.’
और ठीक चौथे दिन हम मैकडोनाल्ड में बैठे थे. जनपथ जहाँ आ कर सी.पी. के सर्किल से मिलता है, उस के बहुत नज़दीक एक ब्लॉक में मैकडोनाल्ड में बर्गर वर्गर का खूब मज़ा लिया हमने. यहाँ एक बात हो गयी, मैंने क्या किया कि अपना स्मार्ट सा फोन ले कर एकदम सामने बैठी निवी की एक फोटो क्लिक कर दी. निवी क्षण भर पोज़ बना कर एकाग्रता से सामने देखने भी लगी, पर फिर अचानक बौखला भी पडी – ‘नो नो, डिलीट कर दो मैं कहती हूँ. आई डोंट लाईक दैट.’ और मैं हतप्रभ था, बोला – ‘ये लो. मैं कोई...’
-         ‘नो नो, मेरा मतलब यह नहीं कि तुम कोई बुरे व्यक्ति हो... पर... डिलीट कर ही दो. पर हाँ, एक मिनट मैं देख तो लूं वो फोटो!...’

अपनी फोटो मेरा स्मार्ट फोन हाथ में ले कर बहुत हसरत से देखती रही वो, जैसे अपने आप को दर्पण में देख रही हो. फिर क्या हुआ कि झटके से फोन मुझे लौटाती बोली – ‘डिलीट!’
मैंने तत्क्षण वही किया जो निवी महारानी ने कहा. बस डिलीट कर दी उसकी तस्वीर. इसके बाद निकले तो सोचा ऑटो करने की क्या ज़रुरत. आज वाकिंग का खूब मज़ा लेते हैं. मौसम अच्छा था सो सी.पी के गलियारों में चलते रहे. चलते चलते बोली – ‘आज तक आपसे तो पूछा नहीं कि आपके घर कौन कौन है. बताइए.’ मैंने कहा – ‘बस, छोटा परिवार सुखी परिवार. एक अदद पत्नी है, और एक बेटा. सरकारी विभाग में हूँ, ड्यूटियां एक दिन सुबह एक दिन दोपहर से. ऑफिस में बुद्धिजीवी माना जाता हूँ, घर में निठल्ला. मित्रों में एक आप ही तो हैं, मेरी बहुत अच्छी दोस्त...’
निवी मुस्करा दी, मेरी शैली पर.
फिर बोली – ‘आज तक आपने मुझसे तो पूछा नहीं, कि मेरे घर कौन कौन है. मैं कहाँ रहती हूँ. पूछो न.’
मैंने कहा – ‘रहने का तो एक दिन आपने कहा था कि नोएडा सेक्टर नाईन्टीन में रहती हैं. पर घर की बात कभी नहीं निकली.’
निवी बोली – ‘घर में सिर्फ माँ थी, वो चल बसी. अब मैं हूँ और मेरी तनहाई...’ अब तक हम रीगल वाला गलियारा पार कर के सेन्ट्रल न्यूज़ एजेंसी वाले गलियारे आ गए थे पर जब उस से भी बाहर थोड़े खुले में आ गए तो लगा जैसे निवी अपनी बात कहते कहते बहुत आहिस्ता सी चलने लगी है. जैसे मुझे अपने विषय में बताते बताते वह कुछ आर्द्र सी हो उठी है, या इसी धीमेपन को ले कर जाने कैसे वह जीवन बिता रही है. बोली – ‘पति थे. पर अब उनसे अलग हूँ, और अलग हुए पता है कितना अरसा हो गया है. बताओ?’
मैंने कहा – ‘लगता है काफी समय से अलग हो. सो तलाक लिया कि नहीं?’
बोली – ‘दस साल से अलग हूँ. कहता है कि तुम में कोई अपील नहीं है. हर बात पर झगड़ता. तलाक? मुझे कौनसी दोबारा शादी करनी है, जो तलाक लूंगी...’ मैंने बीच में ही टोका – ‘आपने ऐसा क्यों सोचा निवी. आपके आगे भी एक लंबी तनहा ज़िंदगी है. और वह? क्या उसे शादी नहीं करनी कि...’
निवी थोड़ी सख्त सी हो गयी – ‘जाने दो उस बास्टर्ड को. वह रोज़ औरत बदलता है. एक के साथ रहता भी है. शादी कर ली होगी उल्लू के पट्ठे ने... डोंट डिस्टर्ब यूअररसेल्फ ऑन दिस प्लीज़...’
एकदम शिवाजी स्टेडियम के बस अड्डे के बाहर खड़े थे. मौसम में एक प्यारा सा गीलापन तो था, पर मैंने कहा – ‘नोएडा जाना है न? वहां तो मेट्रो जाती है....’ निवी ने हाथ दे कर रोका – ‘मैं इतनी जल्दी घर नहीं जाती. अभी भी कहीं जा सकती हूँ. शाम सात से पहले मैं घर को रवाना नहीं होती. बाय...’
काफी कुछ पज़ल सा हो गया मैं. कहाँ जा कर समय बिताती है. पर सोचा जाने दूं, किसी के निजी जीवन में क्या पड़ना ज्यादा. पर उसे जाते जाते देख एक अहसास हुआ कि जिस तनहाई की वह बात कर रही है, वही तनहाई इस समय धीमे धीमे बस की तरफ बढ़ रही है. उसकी बस जहाँ मैं खड़ा था, वहां से काफी दूर थी, सो वह धीमे धीमे पहुंचे और बस में बैठे तो मैं जाऊं. वह मुझे इतनी दूर से बाय भी करेगी कि नहीं, मुझे संदेह था. पर हुआ यह कि जब वह अपनी बस के पास पहुँची तो पीछे मुड़ देखने लगी निवी. मैंने हाथ उठा कर बाय किया, इस विचार से कि वह विदा ले रही है, पर दरअसल वह तो मुस्करा रही थी, जैसे इतनी दूर से भी मुझमें गौर से देखने योग्य आखिर जाने क्या है, मैं तो साधारण सी शख्सियत वाला व्यक्ति हूँ. देखा कि निवी इस क्षण अपने कमज़ोर से लगते हाथ से इशारा कर के मुझे अपने पास बुला रही है. मैं तेज़ी तेज़ी से बसों की इस तरफ वाली लाइन को काटता अगली लाइन को भी काटता आखिर पहुँच गया निवी मेम सा’ब के एकदम सामने, मुस्कराने लगा मैं, निवी मेम सा’ब, जो पति से तलाक नहीं लेना चाहती क्योंकि उसे कौनसा शादी करनी है. निवी बोली – ‘सॉरी. दोबारा इतनी दूर से बुलाया. मैं यह कहना चाहती थी कि अब न मैं आपसे कब्बी भी किसी विचार पर नहीं लडूंगी. न गाँधी पर न गोडसे पर न गोत्र पर न खाप पर. मुझे क्या लेना देना है ह्म्म्म? ओके?’
मैंने कहा – ‘किसी बात को इतनी तूल दें ही क्यों हम? आप को अपने विचार बदलने ही हैं तो कन्विंस हो कर बदलो न. फिर हमारे बीच विचारों को ले कर जो खाई बनी वह तो शुरू शुरू की गर्मी थी न. ‘ निवी मुस्करा दी और मैंने संकेत किया तो चुपचाप बस की तरफ चेहरा कर के उसकी सीढियां चढ़ने लगी.
*   *
अगली बार निवी का इंतजार मैं पटेल नगर बस स्टॉप पर कर रहा था. निवी जब भी एस एम एस करती है तो दोनों कम से कम बीस तीस एस एम एस से पूरी चैट ही कर डालते हैं. कभी कहती है नया लैपटॉप खरीदना है, कभी कहती है जाने दो, बजेट नहीं है. पर आपका कोई पहचान का हो तो... कभी मैं उससे कहता हूँ कि लैपटॉप पसंद कर लो, लैपटॉप वाला ही आपके क्रेडिट कार्ड कंपनी से फोन पर बात कर लेगा और दोनों के बीच अंडरस्टैंडिंग हो जाएगी कि आपको हर महीने तीन चार हज़ार की क़िस्त चुकानी होगी बस. निवी एक दिन अचानक बोली – ‘मुझे एक बढ़िया रूम किराए पर चाहिए. इधर नोएडा बहुत दूर पड़ता है तीन मूर्ति से.’ मैं अक्सर सोचता रहा कि निवी पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें क्यों पढ़ती है. पता चला कि उसे न तो कोई परीक्षा देनी है न ही कोई बुक वुक लिखनी है. वह तो महज़ बी.ए पास है. उसे दिन भर कहीं समय काटने को जगह चाहिए. निवी तो अगर नोएडा समय से पहले पहुँच जाए तो वहीं के मार्केट में ही कहीं भटकती रहती है. घर में जैसे कोई हौआ वौआ रहता हो, जो उसे खा जाएगा. सब कुछ खुद करती है निवी, खाना बनाना, बर्तन धोना, चाय... सिर्फ झाडू पोचे को कोई बाई है उसके. सो उस दिन पटेल नगर के बस स्टॉप पर वह किसी बस से नहीं उतरी तो आगे पैदल चलता पटेल नगर मेट्रो स्टेशन के खम्बों के आसपास टहलने लगा और मेरा मोबाईल बजा. गुस्से में बोली निवी – ‘देबू तुम कहाँ हो? मैं यहीं तो हूँ, तुम्हें देख पा रही हूँ. और हाँ, मैंने बस से आने को कहा था न, आयी मेट्रो से हूँ. सॉरी.’ ‘पर तुम कहाँ हो? मैं तुम्हें नहीं देख पा रहा...’ ‘हा हा हा हा... खा गए न गचका. ऊपर रोड से एकदम नीचे देखो, मैं ठीक तुम्हारे नीचे हूँ, जैसे तुम्हारे क़दमों में... हा हा...’ नीचे देखा तो जैसे मुझे असुविधा सी हुई. कुछ खफा सा भी हुआ मैं. निवी वो रही, नीचे मेन रोड के सामानांतर जा रही पतली सड़क पर एक एक फुटपाथिया पत्थर पर चढ़ कर ऐसे बैठी है निवेदिता दीक्षित द ओर्थोडॉक्स ब्राह्मण महिला जैसे मुझसे शरारत करने को छुप कर बैठी हो. उसके बैठने का अंदाज़ ऐसे जैसे जहाँ भी जाती होगी या बैठती होगी तो ऐसे जैसे सिमट कर खुद को ही खुद से छुपा रही हो. मैं ऊपर से बहुत प्यारी सी आवाज़ बना कर चिल्लाया – ‘निवी.’ उसने ऊपर देखा और मुस्करा दी, जैसे उसने मुझे मज़ा चखा दिया हो. बहरहाल पंद्रह मिनट बाद ही हम साऊथ पटेल नगर की एक कोठी में सेकण्ड फ्लोर पर बैठे थे. ऊपर सेकण्ड फ्लोर की गैलेरी से मिसेज़ प्रूथी मुझे देख वेव करने लगी. मैंने नीचे से ही वेव किया और मुस्करा दिया. सीढ़ियों में मेरे साथ चढ़ती चढ़ती निवी बोली – ‘तुमने तो बहुत सी औरतों से दोस्ती रख रखी है भाई, सब जगह यही करते हो क्या? कोई आदमी भी दोस्त है तुम्हारा?’ मैंने कहा – ‘आदमियों के पास वो सच्चा दिल कहाँ, जो औरतों में है. हा हा... यह जो मिसेज़ प्रूथी है वह मुझे किसी पार्टी में मिली थी. तुम्हें किराए पर रूम चाहिए था सो इसी को फोन किया और इसके साथ तो इसकी दो बहुएं एक पोता एक पोती एक बेटा रहते हैं. दूसरा बेटा लैगोस में है. यहाँ उसके पास टेरेस में एक कमरा है. पूछते हैं कितना किराया लेती है...’
निवी चलते चलते रुक गयी और मेरी तरफ देखने लगी, जैसे पूछ रही हो – ‘दे देगी क्या? हाँ, तुम कहोगे तो...’ और वह शरारत से मुस्करा दी. मुझे भी कहीं जाने क्यों, अवचेतन में महसूस हो रहा था कि यह कमरा वमरा लेगी नहीं. यह यूं ही खुद को छलती रहती है शायद. वहां बहुत ऊब जाती होगी तो बतौर परिवर्तन के कभी लैपटॉप खरीदने की बात करती होगी कभी यूं ही किसी दोस्त के साथ कोई कमरा देख आती होगी. जाती वाती कहीं नहीं होगी यह, निवी, जो पति से तलाक इसलिए नहीं लेना चाहती क्योंकि इसे कोई शादी थोड़ेई करनी है. कहती है – ‘पति उल्लू का पठ्ठा सुबह शाम यही कहता है कि...
-          ‘कि तुम में सेक्स अपील नहीं है...’ मैं ने वाक्य पूरा किया तो एक मुक्का बड़े प्रयास से बना कर मेरे कंधे पर दे मारा – ‘धत्त, मैं बोली क्या सेक्स... मैं सिर्फ अपील बोली...’ मैंने कहा – ‘बाकी तो कॉमन सेन्स है न...’ निवी उस घुमाऊ सीढ़ी पर मुड़ कर आक्रान्त सी हो गयी – ‘चलो मैं वापस जा रही हूँ. तुम बैठो इसी प्रूथी की बूथी देखते रहो बस, और इसी की सेक्स अपील...’ और निवी मूर्ख औरत का ध्यान ही नहीं गया कि प्रूथी तो ऊपर जहाँ सीढियां ख़त्म होती हैं वहां का दरवाज़ा खोल मुस्कराती हमारे इंतजार में ही खडी है. निवी को कोई फर्क नहीं पड़ा शायद.
बस, प्रूथी के यहाँ भी समय ही कटना था. उसकी दोनों बहुएं मेरा मजाकिया स्वाभाव बहुत पसंद करती हैं सो हंसती हुई मेरे सामने आ बैठी. फिर प्रूथी ने अपनी बड़ी बहू से कहा दोनों को ऊपर का टेरेस दिखा लाओ. और बड़ी बहू एक और सीढी चढ़ा कर ऊपर टेरेस के सिंगल रूम में हमें खड़ा कर के कुछ देर नीचे ही चली आयी. मैं और निवी अकेले थे और मैं निवी के कुरते के कंधे को लापरवाही से अपनी जगह से सरका हुआ देख रहा था. और थोडा विचलित हो उठा था. निवी कमरे को ऐसे देखने लगी जैसे मुझे लेना थोड़ेई था, और मैं उसके करीब जा कर उसकी साँसों को आत्मसात सा करने लगा. अचानक मेरे मुंह से जो शब्द निकले तो निवी ने क्या किया कि मेरे गाल पर हाथ टिका कर बड़े हिंसक तरीके से उसे दूसरी ओर मोड़ दिया - ‘नतीजा जानते हो इन चीज़ों का? गेट अवे...’
मैं इस क्षण का नर्वस अब पटेल नगर मेट्रो स्टेशन पर निवी से कह रहा था – ‘आप उस लिफ्ट में जाओ. मुझे आपसे ऑपोजिट ही जाना होता है, सो उस तरफ की लिफ्ट में मैं जाऊंगा..’ निवी अपनी गाडी के प्लेटफॉर्म वाली लिफ्ट में घुस गयी, अन्दर कोई नहीं था सो मैं भी अकारण घुस गया और फिर कुछ अस्फुट सा बोलने लग कि निवी बाहर निकल आयी और मैं भी. मुश्किल से उसके गुस्से का सामना करता मैंने अगली बार उसे अकेले लिफ्ट में घुसने दिया और अपनी राह पकड़ता अपनी मेट्रो में चला आया. अब अगली बार मैं ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी में बैठा हूँ कि फिर शुरू हो गया एस एम एस चैट. निवी ने कहा – ‘आज तीन मूर्ति में बहुत अच्छा हिस्ट्री का प्रोग्राम है. तुम्हारे फेवेरेट ऑथर आ रहे हैं. एक से बढ़ कर एक... जैसे राजमोहन गाँधी, इतिहासकार मृदुला मुख़र्जी...’ मैंने कहा – ‘पता है. जयराम रमेश भी जा रहे हैं. पर मैं तो यहाँ बिजी हूँ न...’ निवी बोली – ‘आ जाओ न, इतने बड़े बड़े लोग आ रहे हैं. हिस्ट्री तो आपका भी पेशन है. कितना कुछ जानते हो...’ आखिर पहुंचना पड़ा. शाम छः बजे पहुंचा तो चाय चल रही थी एक बड़े से शामियाने में. निवी ने कहा – ‘वो देखो, कश्मीर द ट्रेजेडी ऑफ़ एरर्स की ऑथर, तवलीन सिंह, तुम्हारी एक और फेवेरेट...’ मैं जा कर राजमोहन गाँधी के आगे ऐसे झुका कि उसके पाँव छूना चाहता हूँ. पर वह मुस्करा दिया और मैं सीधे खड़े हो कर उस से बात करने लगा. दो घंटे खूब स्पीचिज़ हुई. मैंने अपने स्मार्ट फोन से बहुत क्लिक किया. बौद्धिक संतुष्टि हो तो मैं काफी सक्रिय हो जाता हूँ. फिर एक बार और चाय हुई. तब तक अँधेरा भी हो गया. बड़े बड़े ऑथर लोग चले भी गए. उनका खाना शायद किसी बड़े होटल में हो. हमारे लिये उसी शामियाने में खाना बनना था. जल्दी जल्दी खा कर आए क्योंकि बाहर बहुत हेवी खाना मुझे जंचता नहीं. आ कर बाहर रखी गोल मेजों के गिर्द रखी कुर्सियों पर बैठे निवी और मैं. निवी बोली – ‘बहुत फोटो खींचे? मेरी खींची कोई...’
मैंने गुस्से में कहा – ‘क्यों खींचूँ, फिर डिलीट करा दोगी.’
-    ‘हा हा हा हा...’
अचानक एक और बात याद आयी. उस दिन मैकडोनाल्ड में जब निवी ने गुस्से में कहा था कि मेरी फोटो डिलीट कर दो प्लीज़, तब तो सिर्फ उसी की फोटो डिलीट की थी. पर जब वहां से बाहर आ कर पैदल ही आगे बढ़ने लगे तो उसने एक बार फिर मेरे स्मार्ट फोन की डिमांड की. जैसे उसे अपनी फोटो की हत्या हो जाने का दुःख हो. फिर वह फोन की गैलेरी में कुछ और फोटोज देखने लगी तो अचानक फिर भड़क उठी. दो तीन और फोटो देख बोली थी – ‘ये सब क्या है? ये कैसी मॉडल्स मॉडल्स की तस्वीरें रखते हो मोबाईल में.’ मैंने कहा था – ‘मैं कम्प्यूटर से स्मार्ट फोन में डाउनलोड करता हूँ.  मॉडलिंग कोई बुरी बात थोड़ेई है.’ निवी कड़क आवाज़ में बोली थी – ‘डिलीट करो ये सब, ये क्या बकवास है.’ और मैं हतप्रभ. आज उसने अचानक मोबाईल मांगा तो उसकी ओर बढाते बढ़ाते हाथ रुक गया. खूब घबराया मैं. बिकिनी में ही दो मॉडल्स की तस्वीरें आज भी थीं उसी फोन में. कम्प्यूटर से डाउनलोड की हुई. एक तो ज्यादा ही कामोत्तेजक लग रही थी. मैं सोचता हूँ, मेरा मोबाईल मेरी पर्सनल आईटम है. मैं किसी को दिखाने के लिए थोड़ेई लेता हूँ कि कोई पोर्नोग्राफी दिखाने का इलज़ाम लगा दे मुझ पर. अब खयाल आया कि निवी तो बात बात पर नतीजों की बात करती है सो ये फोटो देख कहेगी कि महिलाओं को शरारतन ऐसी फोटुएं दिखाने की पता है कितनी जेल होती है. हाथ रुक गया तो निवी आक्रामक सी बोली – ‘दिखाओ मैं कहती हूँ. राजमोहन गांधी की ली कि नहीं? और अपनी दूसरी फेवेरेट तवलीन की?’ मैं अब घबराया सा बोला – ‘बहुत ली हैं. ऑडियेंस में आपकी भी है. पर एक दो और वैसी मॉडल्स की भी हैं. फिर तुम चिल्लाओगी, बोलोगी...’ और निवी खिलखिला पडी – ‘न न दिखाओ. मैं अब तुम्हें पहचान गयी हूँ. कुछ नहीं कहूंगी...’ और स्मार्ट फोन निवी के हाथ में था. उसने सब फोटो देखी, और फिर उन्हीं मॉडल्स को दूसरी तीसरी बार देख मोबाईल का स्क्रीन मेरी तरफ कर के टेढ़े होंठों से हंस पडी, पता न चला कि मुझ पे हंस रही है या खुद अपनी ही स्थिति पर. उसके बदन को आपादमस्तक जाने क्यों देख गया मैं, जैसे पूरा बदन कहीं जल कर खुद ही किसी शीतलता से शीतल होने के प्रयास में हो. हो सकता है, यह भी मेरी खामखयाली हो, सो मैंने एक प्रकार से अपनी सोच से समझौता सा किया और आगे सोचना बंद कर के कुछ क्षण बेवकूफों सा देखता रहा निवी महारानी को...फिर न सोचने का निर्णय ले कर भी यह सोचा कि उसे तो इन्हीं तस्वीरों में लुत्फ़ सा मिल रहा है, जैसे कि उसके बिना अपील वाले बदन में भी नीचे से ऊपर या उलट दिशा में कुछ रेंग सा रहा हो...जाने क्या हो, मैं इतने सायास तरीके से भला क्यों सोच रहा हूँ. और उस रात भी निवी की खरी खोटी सुननी पडी. बाहर निकल कर पुस्तकालय के बाहर के उस अँधेरे भरे रास्ते से निवी जैसे तेज़ तेज़ भागी जा रही थी, बोलती भी जा रही थी – ‘मैंने बहुत मिस्टेक की बताती हूँ. तुम्हें यहाँ बुलाया, तुम बहुत ख़राब आदमी हो...’ जिस गलियारे में हम बैठे थे वहां से थोड़ी दूर जो लोग बैठे थे चले गए तो मैंने निवी को नज़दीक के एक बेंच पर बुलाया कि यहाँ बैठते हैं, यहाँ हवा अच्छी आ रही है. निवी आ गयी. घुलमिल कर बातें कर रही थी. उसे मैंने बताया कि अभी कुछेक साल ही पहले न तीस हजारी कोर्ट की एक महिला वकील ने किसी बड़ी अंग्रेज़ी पत्रिका में पलथी मार कर मेडीटेशन में एक पूरे पृष्ठ पर छा जाने वाली तस्वीर अपनी दी थी. निवी बोली – ‘तो क्या? वो तो अच्छी हुई न?’ पर मैंने कहा – ‘तीस हजारी के सैकड़ों वकील एक दिन ‘बार’ में इकठ्ठा हो गए थे कि इस प्रकार हमारी एक वकील ने टॉपलेस मॉडलिंग कर के केवल एक अंडरगारमेंट में फोटो दी है. वकीलों ने मुकदमा कर दिया कि इस महिला ने वकील बिरादरी की नाक नीची कर दी है.’ निवी पर जाने क्यों, प्रतिक्रिया नज़र ही नहीं आ रही थी. मैंने कहा – ‘उस जज ने पता है क्या जजमेंट दी? कि ये सभी मॉडल्स हमारे देश की सांस्कृतिक राजदूत हैं, सो इन्हें पूरा सम्मान मिलना चाहिए. यानी दे आर अवर कल्चरल एम्बेसेडरस!’ 
दोनों एक ही बेंच पर बैठे थे कि लगा निवी को जैसे झपकी आ रही है, या फिर मेरी बात को नकारने की कोशिश में उसने झपकी को सायास ही बुला लिया हो.  मैंने क्या किया कि अपनी दाहिनी बांह से उसके कन्धों को घेर लिया कि निवी बिगड़ी – ‘हटाओ ये... हटाओ मैं कहती हूँ...’ मैं जिद पर. बोली, फिर वही डायलौग – ‘आजकल खतरनाक नतीजे हैं इस सबके. एक फोन कर दूंगी न, सीधे हो जाओगे पल भर में. ज़िंदगी बदल जाएगी आपकी...’ मैं बहुत ढीठ तरीके से मुस्कराया पर फिर खुद ही नर्वस सा हो कर हाथ हटा दिया मैंने. और अँधेरे में निवी वो रही, भागी जा रही है, मुझे कोसती. पर गेट पर बड़ा सा गोलचक्कर है, बहुत तीखी रोशनी वाली ट्यूबलाईटें. वहां रोशनी में निवी मेरे इंतजार में खड़ी मुझे हिकारत से देखने लगी और पास पहुँचने पर बोली – ‘वो रही आपकी बस... वहां उस स्टॉप पर. पहुंचोगे तो दूसरी आ जाएगी..’ मैंने मायूस सा कहा - ‘मैं ऑटो में जाऊंगा. पटेल नगर तक मिल जाएगा और वहां से मेट्रो...’ निवी बोली – ‘यहाँ ऑटो मुश्किल से मिलता है. कोई एक मिला तो मैं जाऊंगी उसमें.’ और एक ऑटो आया तो लपक कर बैठ गयी वह. ऑटो वाले से कहा – ‘चलो, राजीव चौक मेट्रो स्टेशन.’ ऑटो वाले ने किक लगाई कि उसे रोक कर मेरी तरफ देख तरस खाती सी बोली – ‘बैठो. राजीव चौक से भी आपको मेट्रो मिल जाएगी. जनकपुरी उतर कर विकासपुरी जाना होता है न...’ दोनों ऑटो में थे और दोनों घोर चुप. उतर कर सिर्फ अपने प्लैटफॉर्म की तरफ जाते हुए उसने मेरी तरफ बाय के अंदाज़ में देखा और घूरने सा लगी. फिर उसने अकारण आँखें बंद कर ली, जैसे फिर सायास एक झपकी को खड़े खड़े ही बुलाना चाहती हो. फिर हाथ मिलाने का एक अभिनय सा करती अपनी दिशा वाली मेट्रो के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी.
आज फिर वह ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी में एक लंबा सा एस एम एस चैट कर के आयी. मैंने उस से मजाक किया था कि एक साथ इतने एस एम एस कर के मुझे लगता है मेरी अंगुली स्मार्ट फोन को ही समर्पित है, जैसे एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य को मिला था. एक स्माईली मिली एस एम एस में और निवी मेरी लायब्रेरी में. वह कोई मुझे बता कर नहीं घुसी वरन मैं एक पुस्तक का पन्ना पलट ज़रा नज़र उठाऊँ कि निवी मेरे एकदम साथ वाली कुर्सी पर बैठी किसी पुस्तक के पन्ने में नज़र गडाए है. जैसी बुरी तरह दबी मुस्करहट उस दिन उसके होंठों पर थी, वैसी ही. मुझे पता ही न चला वह कब आयी और दबे पाँव इस पढने वाले हॉल में घुस कर मेरे ठीक दाईं तरफ वाली कुर्सी पर  बैठ एक पुस्तक पढने लगी थी. कुछ ही क्षण  बाद एक एस एम एस – ‘चलो, फीलिंग बोर.’ दोनों लायब्रेरी से बाहर. एक ऑटो में. ‘कहाँ चल रही हो?’ ‘मैकडोनाल्ड’.

कहते कहते निवी जाने क्यों, मेरे करीब आ कर मुझसे सट सी गई, मैं हैरान. ऑटो अभी एल आय सी की विशाल  इमारत के बाहर से आगे बढ़ रहा था कि निवी को जाने कैसे एक अटैक सा हुआ कि मुझसे चिपके चिपके ही उसने मुझ पर ही अटैक कर दिया. मेरी पीठ को घेर उसने चलते ऑटो में मुझे बुरी तरह कस लिया. मैं हैरान था. नतीजों की याद आने लगी, पर यह... जैसे उसकी नैसर्गिकता स्वाभाविक होती हो और मेरी मुजरिम सी. निवी ने उस शाम मुझे बुरी तरह अपने कब्ज़े में कर लिया. मैकडोनाल्ड तो अभी आगे शिवाजी स्टेडियम के साथ वाले ब्लॉक में था पर रीगल के सामने पड़ते ही निवी ने ऑटो रुकवा दिया. छलांग लगाई और बीस रुपए ऑटो वाले को दे कर मुझे हाथ पकड़ बाहर घसीटने लगी. उसके जिस्म पर मानो आक्रमण सा हो गया था. और मैं हतप्रभ उसकी गिरफ्त में था. रीगल के बाद वाली रेड लाईट पर जैसे उसी ने सारा ट्रैफिक रोका था. मेरा हाथ पकड़ खींचती हुई वह एक हीरोइन की तरह सड़क की चौडाई पर लगभग दौड़ने सा लगी. दोनों अब पालिका बाज़ार के ऊपर वाले पार्क में थे. ऊपर घोर बादल छाए हुए थे जैसे निवी की आदिमता ही ऊपर उड़ कर आसमान में छा गयी और उसे एक शिकार के रूप में मैं मिल गया था. उस सुखद या जाने एक अजीब उदासी सा पैदा करते गीले माहौल में चारों तरफ अपने आप में गुम जोड़े थे जिन्हें दुनिया जहान की कोई फ़िक्र न थी. वे एक दूसरे से मिल एकाकार से हो गए थे. हमें कोई जगह ही नहीं मिल रही थी. आखिर एक ढलान से फिसल कर एक छोटे से वृक्ष के तले जब हमें जगह मिली तो हम भी सुध बुध खो बैठे. निवी मुझ पर आक्रांत थी. कहा भी मैंने – ‘आज क्या हुआ है? नतीजे सोचे हैं इस सब के?’ ‘हा हा हाहा... निवी का आदिम सा लगता बंदरिया सा चेहरा बड़ा सा हो गया. अँधेरे की कई परतें नीचे उतर निवी के ही कहने पर जैसे हमें ढक रही थीं. निवी बहुत धीमी आवाज़ में मेरी आँखों में अपनी हवस भरी आँखें गड़ा कर बोली – ‘चुपचाप लेटे रहो. आज मैं होश में नहीं. आज मैं नीचे नहीं, ऊपर हूँ. आसमान मेरे नीचे है... हा हा हा हा...’ निवी ने मेरे कपोलों पर अपने  आक्रामक होंठों से एक जाला सा बिछा दिया. उसका और अब मेरा भी पूरा बदन जल रहा था और हम एकाकार थे. हमें तो होश भी न रहा कि अचानक हल्की हल्की सही, बरसात की फुहारें पड़ने लगी हैं और जोड़े उठ उठ कर जाने भी लगे हैं. हम दोनों के जिस्म उस अँधेरे में जल से रहे थे और निवी थी कि जैसे उस आदिमता में भी वही आध्यात्मिकता लिए थी जो उस जज को उस टोपलेस मॉडेल में नज़र आयी होगी जो आँखें मूँद अपने चित्र को देखने वालों के भीतर भी वही आध्यात्मिकता संप्रेषित कर रही थी... अब निवी भी जैसे एक कल्चरल एम्बेसेडर लग रही थी,  नतीजे वतीजे कुछ नहीं उसके लिए... हा हा... हा हा हा हा ... निवी की तन्हाई जैसे बेबस थी, उसका जिस्म जैसे गा रहा था – ‘चाँद तनहा है, आसमां तनहा...दर्द मिलता कहाँ कहाँ तनहा.....’ बहुत फुहारें पडी हम पर और कोई आसपास चलता हुआ बेवजह चिल्लाने भी लगा, तब जा कर निवी ने मुझे छोड़ा. मैकडोनाल्ड में बैठे थे दोनों, पर निवी चुप चुप थी, जैसे जाने क्या सोच रही हो, जैसे अभी अभी उस के साथ कोई ट्रेजेडी घट गयी हो. और मैकडोनाल्ड से जल्दी निकल कर बुत सी बाहर गलियारे में चलने लगी निवी. जैसे जिंदा ही न हो. एक खामोश सी काया हो जैसे. जैसे अब इसके साथ जो भी करूँ, यह हिलेगी डुलेगी तक नहीं. शिवाजी स्टेडियम पर भी अँधेरा ही अँधेरा था. गीलापन हम दोनों के जिस्मों से चिपक रहा था. पर वह बुत ही थी, जाने जिंदा थी कि... उसे यहीं इसी कॉर्नर से बस पकडनी थी अब. सो मैंने क्या किया कि उसके पूरे जिस्म को झकझोर कर अँधेरे का फायदा उठा कर उसके कपोल को चूम लिया और बोला – ‘बाय.’ तेज़ी से मुड़ गया मैं और सिर्फ एक बुत से निकली आवाज़ आयी, बाय. फिर कभी न मिलना मुझसे.... और मैं चला आया था. निवी उसके बाद मेरी कोशिशों के बावजूद मिली नहीं थी. अब मैं तीन मूर्ति पुस्तकालय कभी नहीं गया, और वह ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी कभी नहीं आयी.